
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
अट्ठारूं अध्याय - श्लोक (०१ बटि १० तक)
अर्जुन उवाच - संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्। त्यागस्य च हृषिकेश पृथक्केशिनिषूदन।।१।। श्रीभगवानुवाच - काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः। सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।२।। त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। यज्ञदानतपःकर्म च त्याज्यमिति चापरे।।३।। निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम। त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः।।४।। यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तमश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।५।। कुमाऊँनी: अर्जुन कूंण लागौ कि- हे कृष्ण ज्यु! मैं त्याग और त्यागमय जीवनक् उद्येष्य ज्याणण् चानूं । तब भगवान् ज्यु कुनई कि- भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों क् परित्याग कैं लोग संन्यास कूनीं औ सब्बै कर्मूंक् फल कि आस नि करंण कैं बुद्धिमान लोग त्याग कूनीं। कुछ विद्वान लोग सब्बै प्रकारक् सकाम कर्मूं कैं दोषपूर्ण समजिबेर् त्यागि दींण चैं यस् लै कूनीं, और कुछ विद्वान कूनीं कि यज्ञ, अनुष्ठान और तपस्या इन तीन कर्मूं कैं कभ्भीं नि त्यागण चैन्। आब् येक् विषय में म्यर् निर्णय यौ छू कि- यज्ञ, दान और तपस्या इन तीन कर्मूं कैं त्यागण नि चैन् किलैकि इनूल् महात्मा/भल् मनखि लोगोंकि पवित्रता बणीं रैं । (अर्थात् भौतिक लाभ या इच्छा पूर्ति क् ल्हिजी क्वे लै कर्म निषिद्ध छू, और यज्ञ, तप तथा दान निस्वार्थ भावैल् जब करीं जानीं त् जो महात्मा छन्, भल् मनखि छन् उनर् मन पवित्र है जां, पर इन कर्मूं कैं जब राग, द्वेष, अहंकार आदि छोड़ि बेर् निर्लिप्त भावैल् और समाज कल्याणैंकि भावनाल् करी जाओ तब।)
हिन्दी= अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन! मैं त्यागमय जीवन ( संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ।
श्रीभगवान् ने कहा - भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं। कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान मानते हैं कि यज्ञ, दान यदि तप के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए।
हे भरतश्रेष्ठ! त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो - शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है, यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। ये तीनों कर्म बुद्धिमानों को पवित्र बनाते हैं।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।६।।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।७।।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।८।।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।९।।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।१०।।
कुमाऊँनी:
पैली बतायी हुई कार्यन् कैं बिना आसक्ति और बिना फलैकि इच्छा करियै करंण चैं और कर्तव्य समजिबेर् सम्पन्न करंण चैं, यौ ई म्यर् आंखरी मत छू। नियत कर्मूं कैं छोड़ण नि चैन्, जो मोहक् कारण नियत कर्म कैं छोड़नी तो ऊं तामसी कयी जानीं। नियत कर्मूं कैं शारीरिक कष्टक् कारण जो छोडंनी त् ऊ त्याग रजोगुणी कयी जां। हे अर्जुन! जो अपंण नियत कर्मन् कैं अपंण कर्तव्य समजिबेर् और आसक्ति त्यागि बेर् पुर करनीं यस् त्याग सात्विक कयी जां। सतोगुण में स्थित बुद्धिमान मनखी भल् और नक् कर्मूंक् भेद नि ज्याणन् और उनूकैं अपंण कर्तव्य क् प्रति संशय लै नि रून्।
(अर्थात् चौरासी लाख जून भुगतंण बाद मनखी शरीर प्राप्त है रौ, ये में लै यदि मनखि भोग-विलास में ई लागी रौल् त् उद्धार कसिक् हौल्। यैक् ल्हिजी शास्त्रौक् अनुसार जे लै कर्म मनखि वास्ते निर्धारित छन् उनूकैं बिना लाग-लपेटैल् करंण चैं। ये में क्वे लालच, शरम या फलप्राप्तिक् विचार नि करंण चैन्। यौ ई बात अर्जुनाक् माध्यमैल् भगवान् ज्यु हमूकैं समजांण लै रयीं।)
हिन्दी= उपरोक्त सभी कार्यों को आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र! इन्हें कर्तव्य मान कर सम्पन्न किया जाना चाहिए। यही मेरा अन्तिम मत है। निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए। यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का त्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है। जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझकर या शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है वह राजसी त्याग हो जाता है। हे अर्जुन! जब मनुष्य नियत कर्म को कर्तव्य समझकर और भौतिक आसक्ति को त्याग देता है तो उसका यह त्याग सात्विक कहलाता है। सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो शुभ-अशुभ का भेद नहीं करता वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता।
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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