दो दिन का जबरदस्त ससपैंस !

पिछ्ला माह हमारे देश के लोकतन्त्र के इतिहास के लिए उल्लेखनीय कहा जा सकता है। क्योंकि इस माह में देश की सत्तारुढ़ कांग्रेस सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। पर मेरी मन्द बुद्धि में यह बात नही आयी कि ये उल्टी गंगा कैसे बह गयी। कि जिन वामपन्थियों ने अपने विश्वास मत से कांग्रेस सरकार को बनाया। उन्होने ही सरकार के विरोध में अविश्वास का प्रस्ताव विपक्ष के साथ मिलकर प्रस्तुत किया। इससे तो ऐसा लगता है, जैसे कि अविश्वास तो वामपन्थी पार्टियों ने कांग्रेस के साथ किया। पर अब मैं तो हुआ इस देश का पढ़ा लिखा व्यक्ति जो कभी वोट देने भी नहीं जाता, इसलीए राजनीति के बारे में समझ चाहे ना रखूं लिख तो सकता हुं।

दोस्तो दो दिन की इस बहस में किसी जासूसी उपन्यास जैसा जबरदस्त ससपैंस देखने को मिला। अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान बहुत कुछ असामान्य भी हुआ जो आपने या मैंने सोचा भी नहीं था। सरकार के साथ चार साल तक ताता-थय्या करने वाले वामपंथी अचानक आंगन टेढ़ा होने की बात कह कर दर्दे डिस्को गाने लगे। उनने अपने तुणीर का हर बाण सरकार, और खासतौर से प्रधानमंत्री के उपर छोड़ा। सरकार के लिए यहां तक कह दिया, कि इस सरकार ने भारत को अमेरिका का पिछलग्गू बना दिया। मुझे तो अभी तक यह ही भ्रम था कि सरकार वाम्पन्थियों की पिछलग्गू थी। या फ़िर सरकार को समर्थन के लिए यह कम्पटीशन तो नही चल रहा था, कि बड़ा अगलग्गू (पिछ्लग्गू का विलोम) कौन, वामपन्थी या अमेरिका?

चार साल दो महीने तक तो लेफ्ट सरकार का समर्थन करता रहा या कहें कि सरकार पर उनका विश्वास रहा। लेकिन जैसे ही उनको अगला चुनाव नज़र आया अविश्वास प्रस्ताव की भूमिका तैयार कर ली। चार साल पूंजीपतियों के साथ मलाई खाने के बाद अचानक उनकी समाजवादी आत्मा जागृत हो गयी। आत्मा भी ऐसी जागृत हुयी कि अपने सबसे वरिष्ट साथी की भी फ़जीहत करवा डाली। बेचारे सोमनाथ दा तो अपने पद की गरिमा व पार्टी के प्रति जबाबदेही की पहेली में ही फ़ंस कर रह गये। शायद पहली बार लोक सभा के स्पीकर खुद इस प्रकार के विवाद का विषय बने। पर उनको लाल सलाम कि एक मिसाल कायम करते हुए उन्होंने पार्टी (सीपीएम) के बजाय संवैधानिक पद की मर्यादा को चुना।

सरकार की ओर से चर्चा में हमारे वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने वही घिसा पिटा राग अलापते हुये अपनी सरकार की नीतियों का बचाव किया। उन्होने लेफ्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा कि कुछ लोग नहीं चाहते कि भारत एक आर्थिक महाशक्ति बने और चीन से आगे निकले। पर शायद वह भूल गये कि आगे निकलने से पहले आस पास भी पहुंचना होता है। भई चीन से आगे निकलने से पहले उसके आस पास तो पहुंच जायें। प्रधानमंत्री ने कहा, कि लेफ्ट सरकार को बंधुआ मजदूर बनाकर रखना चाहता था, जिसे हमने स्वीकार नहीं किया। शायद कुछ गलत कह गये उनका कहने का मतलब शायद था कि, इसे उन्होने ४ साल तक स्वीकार किया। प्रधानमंत्री ने यह जताने की पूरी कोशिश की कि सरकार अमेरिका की पिछलग्गू नही है। उन्होने याद दिलाया, कि सरकार ने इराक पर अमेरिकी हमले का विरोध किया था।

इस सत्र की एक विशेषता यह भी रही कि इस देश के भावी प्रधानमंत्री माने जाने वाले युवराज (माफ़ किजिये वे युवराज कहलाना पसंद नही करते हैं) ने पार्टी सदस्य के नाते नहीं,भारतीय नागरिक के नाते' सदन को संबोधित किया। हम सब जानते ही हैं और अगर नहीं तो जान लें, कि भारतीय नागरिक के नाते संसद तक पहुंचने और वहां भाषण देने की औकात तो देश के केवल एक ही खानदान के सदस्यों की है। ये बात और है कि विपक्षी उस परिवार की एक सदस्या को विदेशी मानते हैं और एक पार्टी और उसके अध्यक्ष की सारी राजनीति ही इस मुद्दे से चल रही। पहली बार युवराज ने संसद में भाषण दिया और मुझे लगता है कि देसी घी की तरह शुद्ध राजनीतिक भाषण दिया। एक बार तो जोश में वाजपेयी सरकार के कार्य की सराहना भी कर डाली। वह यह कहना भी नही भूले कि अगर भारत को बड़ी ताकत बनना है, तो हम यह सोचें कि वह दुनिया को कैसे प्रभावित कर सकता है।

एक ऐसी घटना जो दूसरे दिन घटी हम भारतवासियों के लिए तो कोई महत्व नहीं रखती क्योंकि हमारे संस्कार और आदर्श बड़े ही उच्च हैं, और ऐसी छोटी मोटी बातों से हमारी लाखों वर्षों की संस्कृति और अस्मिता को विशेष प्रभाव नही पड़ता है। पर संभवत:दुनिया के संसदीय इतिहास में पहली बार किसी सदन में नोटों की गड्डियां लहराई गईं, जो बीजेपी के मुताबिक सत्तापक्ष ने वोट खरीदने के लिए दीं। अब यह कम आश्चर्य की बात है कि विपक्ष के सांसदों, जिनके पास कोई सरकारी पद भी नही है, ईमानदारी की ऐसी मिसाल पेश की।

अब ऐसा कभी देख्नने को मिला कि पैसे लेने वाला बताये कि उसको पैसे मिले हैं और देने वाला ईन्कार कर रहा हो कि मैंने पैसे नही दिये। कभी आपने किसी पुलिस वाले को थाने में नोट लहराते और यह कहते सुना कि मुझे फ़लां आदमी ने पैसे दिये हैं और आदमी ईन्कार कर रहा हो कि नही मैंने पैसे नही दिये। लेकिन हमारे विपक्षी सांसदो ने ईमानदारी साबित करते हुये सारे देश को बताया कि वह कितने ईमानदार हैं और सत्तापक्ष वाले पैसे ना देने की बात कहकर अपनी ईमानदारी साबित कर रहे थे। मु्झे आशा है कि हमारे सरकारी कर्मचारी भाई और अधिकारीगण सांसदों के इस आचरण से शिक्षा लेंगे।

सांसदों का यह आचरण इसलीए भी उल्लेख्ननीय है कि हमारे देश के ज्यादातर सांसद गरीबी की रेखा से नीचे की श्रेणी में आते हैं। जिस कारण बेचारे जब अपना कार्यकाल पूरा करते हैं, तो इस लायक भी नही होते कि अपना बिजली,पानी, टेलीफ़ोन आदि बुनियादी जरुरतों का बकाया भी जमा कर सकें। बहुत से तो ऐसे भी हैं जिनका रहने का भी ठिकाना नहीं है एक बार सांसद बन गये और फ़िर उस सरकारी बंगले को कभी नहीं छोड़ते। अब चुनाव जीतें ना जीतें यह तो जनता जनार्दन पर निर्भर है,पर वह तो जनता की सेवा और जेब ढीली करते रह हैं। करें भी तो क्या, कहां जायेंगे रहने का कोई दूसरा ठिकाना राजधानी में आसानी से मिलता भी नही। राजधानी की एक खासियत यह भी जो एक बार यहां आ जाये वह धक्के खाकर भी यहां से जाता नही है, अब चाहे वह नेता हो या मजदूर।

वैसे कोई पहली घटना भी नही है कि सांसदों की बोली लगने की चर्चा सदन में हुयी हो। अब यह भी सब जानते हैं कि इसमें कौन सच बोल रहा है यह पता करना तो शायद किसी बड़ी से बड़ी खुफ़िया ऎजेंसी के बस की बात नही है। इसके दो कारण है कि किसी बड़ी से बड़ी खुफ़िया ऎजेंसी के प्रमुख की भी क्या औकात कि वह विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के ठेकेदारों के सौदों में कोई दखलंदाजी कर सके, अरे हुआ तो एक सरकारी मुलाजिम ही। कई बार संसद की सुरक्षा व्यवस्था पर भी सवाल उठे पर सुरक्षा में भी तो बेचारे सरकारी मुलाजिम ही लगे हैं। क्या आपको लगता है कि हमारे जवान का मनोबल इस स्तर का हो सकता है कि वह किसी सांसद की तलाशी ले सके।

कई अभूतपूर्व, सोचनीय और अशोभनीय घटनाओं के बीच लोकसभा का विशेष सत्र डा० मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार की सलामती के साथ मंगलवार को खत्म हो गया। इस दो दिन के लोकसभा सत्र के दौरान आप और हमें कई सम्भावित और कई अप्रत्याशित घट्नाऎं या कहें दुर्घटनाऎं देख्नने को मिली। पर जो भी हो लोकतन्त्र की जीत हुयी, सम्प्रदायवादी, सामंतवादी, मनुवादी, अलगाववादी और वादीपक्ष की सभी पार्टियां परास्त हुयी।

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