
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
दशूं अध्याय - श्लोक (१२ बटि २० तक)
अर्जुन उवाच-
परं ब्रह्म परं धामं पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शास्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।१२।।
अहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।१३।।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवः।।१४।।
कुमाऊँनी:
अर्जुन कूंण लागौ कि- आपूं परम भगवान्, परमधाम, परम पवित्र और परम सत्य छा, आपूं ई नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा और महान छा। नारद, असित, देवल और व्यास ऋषि यौ बातैकि पुष्टि करनी, फिरि आपूं स्वयं लै यौ बात अपंण मुखैल् कूंणछा। हे कृष्ण! आपूल् मि तैं जो कुछ लै कौ ऊकैं मैं पूर्ण सत्य माननूं। हे प्रभो! चाहे द्याप्त हैं या राकस या फिरि साधारण मनखि तुमर् स्वरूप (महिमा) कैं नि ज्याणि सकन्।
(अर्थात् , कृष्ण भगवान् छन् और मनखि कैं चैं कि निरन्तर उनौर् ध्यान् करते हुए उनार् दगड़ सम्पर्क स्थापित करौ। ऊं सब्बै शारीरिक आवश्यकताओं और जन्म-मरण है मुक्त छन्, यौ बातै कि पुष्टि सब्बै वेद, पुराण, शास्त्र, ऋषि आदि करनीं । गुरु परम्परा कि शिज्ञा क् ह्रास और अंग्रेजन् द्वारा स्थापित शिक्षा लै एक कारण छु कि हम अपणि संस्कृति, परम्परा और ज्ञान-विज्ञान कैं समजणाक् बजाय अनर्गल तर्क या बहस करनूं जो हमर् ल्हिजी भौतै नुकसानदेह छू।)
हिन्दी= अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप भी स्वयं मुझसे इस बात को कह रहे हैं। हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा , उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभो! न तो देवतागण और न ही असुरगण आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्य त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।१५।।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।१६।।
कुमाऊँनी:
हे परमपुरुष, हे सबनक् उद्गम, हे सब्बै प्राणियों क् स्वामी, हे देवों क् देव, हे ब्रह्माण्ड क् विभु! अपणि अन्तरंगा शक्ति कैं ज्याणणीं तुमूंकैं है अलावा और को है सकूँ, आब् कृपा करिबेर् मिकैं उन दैवी शक्तियों क् बार् में बताओ, जैक् द्वारा आपूं इन सब लोकों में व्याप्त छा।
(अर्थात्- ये में शंका करणैकि क्वे लै जर्वत् न्हैं कि भगवान् बिना यौ संसार या ब्रह्माण्ड क् अस्तित्व छी ई नै। अर्जुन भगवान् ज्यु तैं जो सवाल पुछणौ ऊ अपुंण ल्हिजी कम और हमर् ल्हिजी ज्यादे छन्, अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण ज्युक् सखा छु , संत प्रवृति लै छू, ये हिसाबैल् ऊ सब ज्याणूं। यौ गीता अर्जुनाक् माध्यमैल् हमूकैं सुणाई जांणै, यस् समजि बेर जो गीताज्युक् अध्ययन और मनन करूँ ऊ निश्चित रूपैल् भगवान् ज्यु कि कृपा प्राप्त करूँ।)
हिन्दी= हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के विभु! निःसंदेह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगा शक्ति से जाननेवाले हैं। कृपा करके विस्तार पूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।१७।।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।१८।।
कुमाऊँनी:
हे भगवन्! मैं तुमर् लगातार चिन्तन कसिक् करू और तुमूंकैं कसिक् ज्याणू, फिरि तुमर् चिन्तन को-को रूप में करू। हे जनार्दन! तुम मिकैं अपंण ऐश्वर्य और योगशक्ति क् बार् में फिरि बताओ। मै तुमर् बार् में सुणिबेर तृप्त नि हुन् और फिरि-फिरि तुमर् बार् में सुणंण चानूं।
(अर्थात्- एक सांच साधक कभीं भगवान् ज्यु क् बार् में सुणिबेर नि अघान् और बार-बार भगवान् ज्यु कि काथ या उनर् भजन सुणंण चां। उस्सै अर्जुन लै सांच भक्त या मित्र छू तो ऊ भगवान् ज्यु क् मुख बटि कयी हुई बातन् कैं बार-बार सुणंण चां, और हमन् पार् लै उपकार करनौ कि हम यौ संवाद कैं बार-बार सुणिबेर्/ पढ़िबेर् अपुंण जीवन सार्थक करूँ।)
हिन्दी= हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूं? तथा आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय? हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, फिर उतना ही आपके शब्द-अमृत को चुना चाहता हूँ।
श्रीभगवानुवाच-
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।२०।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- म्यर् ऐश्वर्य त् असीम छू फिरि लै मैं तुमूंकैं अपुंण खास-खास वैभवयुक्त रूपोंक् बार् में वर्णन करनूं। हे अर्जुन! मैं सब जीवोंक् हृदय में स्थित परमात्मा छूं और मैं ई सब जीवोंक् आदि मध्य और अन्त लै छूं।
(अर्थात्- भगवान् ज्यु और उनर् ऐश्वर्य कैं समजंण , सुणंण, और बखान करंण भौत्तै कठिन छू, येक् ल्हिजी भगवान् ज्यु कुनई कि-मैं खास-खास अपुंण ऐश्वर्य या शक्तियों क् बार् मैं बतूनूं। और अर्जुन जैल् नीन (निद्रा) पार् तक विजय प्राप्त करी छू, यस् भक्त तैं भगवान् ज्यु अपुंण बार् में बतूंण लै रयीं कि यौ संसाराक् जतु लै जीव छन् उनौर् आदि, मध्य और अन्त मैं ई त् छू।)
हिन्दी= श्रीभगवान् ने कहा- हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्वर्य असीम है। मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ और मै ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ।
जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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