पहाड़ पर ट्रेन


दोस्तो मेरा जन्म पहाड़ में हुआ, तो आप जानते ही हैं कि पहाड़ों पर यातायात के साधन बहुत सिमित होते हैं। मैं भाग्यशाली था कि मेरा घर सड़क के किनारे है और मुझे कभी बस देखने के लिए कहीं दूर जाना नही पड़ा। क्योकिं पहाड़ में तो कई ऐसे लोग मिल जायेंगे जिनने बस भी नही देखी होगी। चाहे ऐसे लोग गिनती के ही हों। पर ट्रेन देखना तो पहाड़वासियों के लिए अभी भी एक उपलब्धि से कम नही है, और मैदान वाले लोगों के लिए तो पहाड़ियों के पिछड़ेपन का एक प्रतीक ही है।
जब मैं स्कूल जाने की उम्र में पहुंचा तो स्कूल में भी यही सबसे बड़ा स्टेटस सिमबल बन गया कि किसने ट्रेन देखी है? मैं उस समय उन बहुसन्ख्यक फ़िसड्डियों की सुची में था जिनने ट्रेन नही देखी थी। वैसे मैं ट्रेन में सफ़र भी कर चुका था पर तब मेरी उम्र २ साल से भी कम थी और मुझे कुछ याद नहीं था। मेरा यह फ़िसड्डीपन करीब दो साल तक चला और मेरे चाचाजी की बारात जब हल्द्वानी गयी तो मुझे साक्षात ट्रेन देखने का सुअवसर मिला। मैं विशेष रूप से काठगोदाम रेलवे स्टेशन ट्रेन देख्नने गया और ट्रेन देखी ही नही उसमे काठ्गोदाम से हल्द्वानी तक सवारी भी की।
इस प्रकार करीब दो साल के बाद स्कूल में हमारे फ़िसड्डीपन का अन्त हुआ, पर ट्रेन की कहानी तो अभी शुरु हुयी है। आप सब जानते है कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र है, अगर नही तो आश्चर्य मत करिये और मेरी बात मान लिजिये। तो हमारे देश में गणतन्त्र का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यहां कम से कम ५ साल में एक बार चुनाव होते ही है और अगर हमारे जनप्रतिनिधियों का जमीर जाग गया तो ५ साल के अन्दर २ बार भी या हर साल भी चुनाव हो सकते हैं।
आप सोच रहे होन्गे कि ट्रेन के बीच के स्टेशन पर ये चुनाव कहां से आ गये तो मैं बताता हुं कि स्कूल के बाद जिस चीज से हमारा परिचय हुआ वह थे चुनाव। हमारे चुनाव क्षेत्र से एक उम्मीद्वार होते थे जिनका नाम था दौलत सिंह यह नाम में उनके मतपत्र के आधार पर बता रहा हुं। वैसे वह मशहूर थे रागी बाबा के नाम से और पेहनावे से वह बाबा (साधु) का वेश रखते थे। बाकि उनके बारे में क्या बताउं, थे तो वह बाबा धरतीपकड़ के अवतार शायद कभी जमानत बचा पाये हों।
पर रागी बाबा का भी ट्रेन से खास प्रेम था, शायद वह भी मेरी तरह ही ट्रेन ना देख्नने की वजह से फ़िसड्डीपन के शिकार रहे हों। उनके चुनाव लड़ने का एक ही एजेण्डा था कि चुनाव जितते ही सबसे पहले पहाड़ पर नैनीताल तक ट्रेन लायेन्गे और उसके बाद उसका विस्तार अन्य पहाड़ी स्थानों तक करेंगे। उनका चुनाव प्रचार बड़ा ही अनुठा होता था, वह एक हैण्ड माईक और लाउड स्पीकर के साथ अकेले पैदल ही चुनाव प्रचार किया करते थे। उनके चुनाव प्रचार में ट्रेन ही प्रमुख मुद्दा होती थी और पहाड पर ट्रेन लाकर वह हम पहाड़ वालों का पिछ्ड़ापन दूर करना चाहते थे।
रागी बाबा के श्रोताओं में ज्यादातर तो हम जैसे बच्चे हुआ करते थे या फ़िर बुजुर्ग लोग, जिससे आप समझ ही गये होंगे कि वह चुनाव क्यों नही जीत पाये? क्योकि जनता तो बातों पर नही कार्यों पर वोट देती है। अब बेचारे रागी बाबा के ऐसे करम कहां कि जागरूक वोटरों को चुनाव की पुर्व्सन्ध्या पर शराब का पौवा या चाय पानी का खर्चा भी दे सकें। हम बच्चों में कई बार यह अफ़वाह भी खूब उड़ा करती थी कि अब रागी बाबा रेल लाने वाले हैं। और हमारे दोस्तों में जो ज्यादा प्रतिभाशाली थे वह एक बार यह खबर भी उड़ा दिये कि रागीबाबा काठ्गोदाम से रेल लेकर रानीबाग तक पहुंच गये हैं।
दोस्तो हमारा दुर्भाग्य कि मेरे किशोरावस्था तक आते आते बेचारे रागी बाबा स्वयं स्वर्ग सिधार गये और मेरे जैसे फ़िसड्डियों का ट्रेन देख्नने का सपना जो रागी बाबा ने दिखाया था सपना ही रह गया। पर निराशा की कोई बात नही है, हमारे आधुनिक राजनेता तो रागी बाबा से काफ़ी आगे निकल गये हैं और उन्होने तो टनकपुर से बागेश्वर, सहारनपुर से काल्सी और रिषिकेश से रुद्रप्रयाग तक की रेलसेवायें शुरु करने के वादे कर दिये हैं।
उसके बाद मै दिल्ली आ गया तो वहां पर भी मेरे जैसे पहाड़ी लोगों की खिल्ली इस बात के लिए उड़ायी जाती कि उन्होने ट्रेन नही देखी है। पर उन्ही पढ़े-लिखे अपटूडेट लोगों को यह पूछ्ते कोई झिझक नही होती है कि लोग पहाड़ पर चारपाई कैसे लगाते हैं। दोस्तो अब मैं यहां देहरादून में हुं तब भी पहाड पर ट्रेन का यह यक्षप्रश्न फ़िर पीछा नही छोड़ता कि पहाड़ पर ट्रेन कब आयेगी? अभी भी हम पहाड़ी लोगों को चिढ़ाते हुए बस कंड्क्टर रेल्वे स्टेशन आते ही यह कहना नही भूलता कि ट्रेन देखने वाले उतर जाओ। उसका यह वाक्य मुझे मेरे बचपन के उस स्कूली बच्चे के रूप में वापस ले जाता है और ऐसा लगता है कि यह बस कंडक्टर सब कुछ जानते हुये मुझसे ही उतरने को कह रहा है।

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