
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-०९ बै अघिल
दसूँ अध्याय - विभूति योग
श्री भगवान बलाण
महाबाहु! अब मेरा सुणि ले, यो रहस्यमय परम वचन।
तेरी पीति का कारण कूछूँ, करण हूँ तेरो हित साधन।01।
क्वे लै सुरगण ओ महर्षि जन, मरा जन्म कँ नी जाणन।
सब प्रकार, सब देव महर्षिन को मैं भयूँ आदि कारण।02।
अज अनादि जो मकैं जरणन छऽ समझौं लोक महेश्वर कैं।
निश्चय ही ऊ मोह रहित नर मुक्त होलो सब पापन हे।03।
बुद्धि ज्ञान औ मोह रहित गति, क्षमा सम्य दम और शमनं।
सुख दुख, उत्पत्ति प्रलय क्षय, भय और अभय पराजल जय।04।
समदर्शन, संतोष, अहिंसा, दान तपस्या यश अपयश।
हुनी पकट यौं सब प्रणिन का भाव मथैं बट मेरा वश।05।
सात महर्षि, चार पैली का, स्वायंभुव आदिक मनु लै।
मेरा मानस भाव लै उपजीं, उपजी जनन बै सारी प्रजा।06।
यै विभूति योग कैं मेरा तत्वसहित जो समझौ नर।
कती योग में नि हो चल विचल जुटल योग बिन संशय डर।07।
यै सब की उत्पत्ति करूँ औ मैं बट सब यो चालित हूँ।
यो समझी सब बुध जन भजनी, म्ेंकन भाव सहित हित हूँ।08।
मैं में चित्त प्राण मैं में छन, आपस में गुण गान मेरो।
एक दुसार थें कथन उपकथन, छऽ सुखरमण ध्यान मेरो।09।
उन सदा ध्यान करनेरन कैं, नित प्रीत सहित भजनेरन कैं।
मैं शुद्ध बुद्धि यो दी दीं, उन मैं कन पइल्हिनेरन कैं।10।
मैं उनरो अज्ञान जनित तम अनुकंपा करि हरणै तें।
अन्तर में स्नेह प्रकाया करूँ वाँ ज्ञानदीप ल्ही धरणै तें।11।
अर्जुन बलाण
तुम परम ब्रह्म! तुम परम धाम! आपूँ छन अति पावन महान!
हे दिव्य पुरुष! हे आदि देव! व्यापक अनन्त शाश्वत अनादि!12।
यै कूनी सब ऋषि आपूँ थैं, देवन का ऋषि नारद जां लै।
यैं देवल, असित व्यास ज्यू लै औ स्व्यं आपूँ कऽ छऽ याँ लै।13।
केशव! यो सब सत्य मानूँ मैं, जे कुछ तुमल बतायो छऽ।
हे भगवन!तुमुल समूल भलिक, नी जाणन देवता दानव क्वे।14।
स्वयं आपूँ कैं आपण आफी, तुम जाणनै हुनला महमते!
हे पुरुषोत्तम! भूतेश! प्रभो! हे देवदेव! हे जगत्पते!।15।
तुम परम्पूर करि सकला सब, आपणी दिव्य विभूतिन कैं।
तुम अखिल लोक में व्याप्त हई ल्हीहअबैठी छनै विभूतिन कैं।16।
हे योगिन! तुमन मैंकसि जाणू? औ कसिक तुमारो हो चिन्तन?
कन कन भावन बट में तुमरो, अब चिन्तन भजन करूँ भगवन्! 17।
विस्तृत कै कै दियो जनार्दन, फिरि उन योग विभूतिन कन
सुणि सुणि तृप्ति भई जै न्हातन, तुमारा अमृत मधुर वचन।18।
श्री भगवान बलाण
अर्जुन! सुण अब कूनो छूँ मैं, आपणी दिव्य विभूतिनकैं
जो जो प्राान छन कुरुश्रेष्ठ! विस्तारी मेरा अन्तै न्हा।19।
मैं आत्मा छूँ गुड़ाकेश! सब प्राणिन का अन्तरा भितरं।
सब को आदि मध्य मैं ही छूँ और अन्त लै भूतन को।20।
आदित्यन में विष्एाु भयूँ मैं, ज्योतिमान मैं रवि में छू!।
मैं मरीचि छूँ मरुत गणन में, नक्षत्रपमेंमैं शशि छूँ।21।
वेदन मं सामवेद छू!, देवराज छू! देवन में।
मन छू! मैं इन्द्रिन को राजा, भ्ूतन में चेतना भयूँ ।22।
रुद्रगणन में मैं शंकर छू! धन कुबेर छूँ यक्षन में।
अष्अ वसुन में पावक छू! मैं, मैं सुमेरु छू! शिखरन में।23।
पुराहितन में पार्थ! वृहस्पति, सुरगुरु में मैंे मुख्य भयूँ।
सेनापतिन मंकार्तिकेय मैं, जलाशयन में सागर छूँ।24।
मुख्य महर्षिन में भृगु मैं छूँ, वाणी में एकाक्षर मैं।
यज्ञन में जप यज्ञ भयूँ मैं, स्थावर रूप् हिमालय छ।25।
सब बोटन में पीपल मैं ही, देवर्षिन में नारद लै।
गन्धर्वन में भयूँ चित्ररथ, सिद्धन में मुनि कपिल समझ।26।
उच्चैश्रवा घ्वाड़न में उत्तम, अमृतमंथन इत्रबै उदित हई।
गजराजन मं ऐरावत मैं, नरगण बीच नराधिप छूँ।27।
सब अयुध में बज्र भयूँ मैं, कामधेनु मैं गाइन में।
प्रजनन करणी मदन भयूँ औ वासुकि छूँ मैं स्यापन में।28।
नागन में मैं शेषनाग छूँ, जलचर अधिपति वरुण भयूँ।
पितरन मं मैं भयूँ अर्यमा, संयम करणी मैं यम छूँ। 29।
दैत्यन में प्रह्लाइ भक्त मैं, गणना करणी काल भईं।
प्शुअन में वणराज सिंह छू! वैनतेय पक्षिन में छूँ।30।
पावन करणी पवन भयूँ मैं, राम शस्त्रधारिन मं छूँ।
जल जीवन मेंमगरमच्छ मैं, सरितन में मैं गंगा छूँ।31।
सृष्टिन को मैं आदि अन्त छूँ तथा मध्य लै मैं अर्जुन!
विद्या में अध्यात्म ज्ञान छूँ, वाद छूँ वाद विवादन में।32।
आदि अ कार आखरन में छूँ द्वन्द्व समास समासन में।
अक्षय का काल में ही छूँ धाता विराट सर्वतोमुखी।33।
सर्वहरण करि दिणी मृत्यु मैं, फिर भ्विष्य को उद्भव छूँ।
नारिन में कीर्ती श्री, वाणी,स्मृतिख् मेधा,धृति और क्षमा।34।
सामगान में वृहत् साम छूँ, गायत्री छन्दन में छूँ।
म्हैंएान में मंगशीर भयूँ मैं, छूृँ .ऋतुराज छइ्र ऋतु में।35।
द्यूत छुँ मैं छल करनेरन को, तेजस्विन को तेज दूँ मैं।
जय छूँ मैं व्यवसाय मई छूँ, सात्विक जन को सत मैं छूँ।36।
वृष्णि वंश में वासुदेव मैं, पांडवन में अर्जुन छूँ ।
महामुनिन में वेदव्यास मैं, शुक्राचार्य कविन में छूँ।37।
दण्ड दमन करनेरन को मैं नीति विजय चानेरन की
मैं ही मौन लुकूनेरन को, ज्ञान ज्ञानवानन को छूँ।38।
जो कुछ याँ छ जड़ यस चेतन, म्ें कारण वी छूँ अर्जुन!?
ऐस क्वे न्ही चर अवचर कती पन, रईसकौ जो मेरा बिन।39।
न्हा सीमा, ना अन्त परंतप! मेरी दिव्य विभूतिन को।
जो कुछ यो विस्तार बतायो, वी कन समझ अंश तिनको।40।
जो कुछ सत्यं शिवं सुन्दरम्, जग में श्री उत्साह भरी।
ऊ सब समझ विभूति मेरा ही तेज अंश बट छऽ उभरी।41।
इनन बहुत पिवस्तार कै जाणी के बड़ लाभ नि हौ अर्जुन!
यतुकै समझ चवन्नी भरि में, सौ जगतकी छ झुन झुन।42।
कृमशः अघिल अध्याय-११
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