
कुमाऊँ के परगने- दारमा भोट परगना
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
दारमा पट्टी
व्यास चौदास पट्टियाँ भी इसी दारमा के भीतर गिनी जाती हैं।
सरहद
इस परगने की इस प्रकार हैं-पूर्व की तरफ काली गंगा, तिंकर गाँव के पहाड, पलमजुंग, छवांगरू व काली पानी, तारा इसको नेपाल राज्य से अलग करते हैं। दक्षिण में अस्कोट व इलंगगाड़ अस्कोट से इसे अलग करते है। पश्चिम में इसके जोहार परगना है। उत्तर की ओर नवे डांडा व लिपुडांडा इसे तिब्बत से अलग करते हैं।
पर्वत-मालाऐं - पंचाचुली, पलजुंग, तारा, लिपु, लांगा, तिंकर, मर्माधुरा, निरपनियाँ।
नदियाँ– धौली, रामा, न्योला, गलछया, सोबला, ज्यू ती, गलागाढ़, काली।
व्यांस पट्टी
इस पट्टी की सरहद हुणदेश याने तिब्बत के तकलाखाल से मिली है।
सरहद के पर्वतों के नाम ये हैं:-
(१) लिपुधुरा, जिसमें लिपीश नामक महादेव रहते हैं,
(२) ताराघुरा, जिसमें तारकालय शिव हैं।
इन पहाड़ों के उत्तर तरफ़ को हरताल, सुहागा व नमक की खाने हैं। कहते हैं, सोने की खान भी उस तरफ़ को है। ये खाने तिब्बत-सरकार के क़ब्ज़े में बताई जाती हैं। तारा पहाड़ के नीचे कालीपानी गाँव है। उसमें श्यामा कुंड है। जिससे कालीनदी निकलती है। उसी कुड के किनारे व्यास ऋषि ने तपस्या की थी। इसी से इस पट्टी का नाम व्यांस कहलाता है। कुटी गाँव के ऊपर मंगश्यांग नामक पहाड़ से श्यामा नदी पाती है। श्यामा व काली का संगम मौजे गुंजी व कवा के निकट होता है।

जब तक व्यांस कुमाऊँ राज्य के भीतर शामिल न हुआ था, व्यांसी लोग जाड़े के मौसम में धूप सेंकने पट्टी चौदांस भीतर गल्लागाढ़ में आते थे। चौदांस के बूढा मार्फत रक़म धूप सेंकने की १७००) रु. चद-राजाश्रों के खजाने में दाखिल करते थे। गल्लागाड़ से नीचे आने की आज्ञा उनको न थी। आज्ञा लेकर आते थे। व्यांस व दार्मा के बीच सरहदी पहाड़ ज्योलंका है। ऊपर लिपुधुरा है। व्यांसी लोग कहते हैं कि जब उनके मुल्क में वर्षा नहीं होती, तो वे श्यामा कुड में सत्तू डाल देते हैं, उस सत्त को जूठा समझकर गंगाजी वर्षा बरसा देती हैं, ताकि वह सत्त बह जावे। आजकल भी लोग ऐसा करते हैं।
चौदांस पट्टी
इस पट्टी में चतुर्दष्ट शिव हैं। इसी कारण इस पट्टी को चौदांस कहते हैं। इसी पट्टी में ह्यांकी वंश के भोटिये हैं। वे कहते हैं कि चौदांस पहले बिलकुल वीरान था। आसमान से एक आदमी उस मुल्क में बरसा। उसने मुल्क आबाद किया। उस आदमी की सन्तान बहुत बढ़ गई। कई पुश्त तक उसके बदन से ज़ख्म होने पर खून के बदले दूध निकला। बाद को खून निकला। उस आसमान से बरसे हुए की संतान में से ह्यांकी लोग अपने को बताते हैं। दार्मा व.जोहार के बीच पंचचूली नामक बर्फ से भरा हुआ पहाड़ है। ये पाँचो चूलियाँ या चोटियाँ दूर-दूर से दिखाई देती हैं। इनको पांडवों की पाँच चूलियाँ' यानी रसोइयाँ कहते हैं। (पर्वतीय भाषा में चुलियों को रसोई भी कहते हैं)।
इनके उस तरफ़ यानी जोहार पट्टी में दो गाँव अटासी व बलाँती हैं। कहते हैं कि पहले यह गाँव दार्मा के सुनपति सौका के 'घाटे' (दर्रे) के भीतर थे। उस सौके का यह 'घाटा' ( दर्रा) अपने प्रान्त जोहार से अटासी बलाँती का पहाड़ उल्लंघन कर दार्मा के शिबू गाँव होकर हूणदेश यानी तिब्बत जाने का था, पर अब बर्फ से ढक गया है। जिन दिनों खुला था, कहते हैं कि इतना नज़दीक था कि अटासी बलाँती से कुत्ता गर्म रोटी मुँह में लेकर शिबू गाँव में आता था। यहाँ पर न्यवे धारा, शिबू तथा पंचचूली से तीन धाराएँ निकलती हैं, जो धौली गंगा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
देवता-
गबीला, छिपुला, हरद्योल ग्राम-देवता हैं। कात्तिक, भादों व जेठ महीनों में तीन बार इनकी पूजा होती है। इनकी पूजा को भोटिये मर्द, बुढ़िया औरतें तथा लड़कियाँ जाती हैं। जवान औरतों को जाने का हुक्म नहीं है। पूजा में बकरे मारे जाते हैं तथा एक प्रकार की शराब(ज्वाँण) चढ़ती है। और पूरी-भात खाने के लिये बनाते हैं। शिकार, पूरी-भात खाकर, शराब पीकर खूब नाचते व कूदते हैं। व्याँस चौदाँसवाले भी इसी तरह गबीला व छिपुला को पूजते हैं।

तिजारत-
इन लोगों की तिजारत हूंण-देशवालों के साथ सदियों से होती आई है। तिजारती मंडियाँ तकलाकोट, करदभकोट, दरचन और गढ़तोक हैं। सबसे बड़ी मंडी गढ़तोक है। दस्तूर है कि जिस भोटिये की आढ़त जिस हुणिये या लामा से हुई, उसका लेन-देन उसी के साथ होगा। दूसरे के साथ नहीं होने पाता। यह दस्तूर कभी खिलाफ़ हो पड़ा, तो जहाँ झगड़े की बिनाय हुई, उसी देश की अदालत में दावा पेश होता है। पुरानी अदालतवाला डिक्री पाता है। बल्कि यह आढ़त यहाँ तक पक्की समझी जाती है कि भोटिये लोग अपनी श्राढ़त को दूसरे के हाथ बेच डालते हैं। बाद को खरीदार उसके हाथ सौदागिरी करता है। हुणियों व भोटियों के बीच सौदागिरी होने के पर्व खाना-पीना साथ होता है, कोई परहेज़ नहीं होता। किन्तु कुमय्याँ लोगों के साथ बातचीत में भोटिये अपने को बढ़ा तथा हुणियों को अपने से कम समझते हैं। तिजारत बकरियों व झूपू जानवरों में होती है।
फसल सिर्फ एक खरीफ़ की होती है। रबी के समय जमीन बर्फ से ढकी रहती है। जाड़ों में बर्फ़ बहुत पड़ती है। नदियाँ जम जाती हैं, उनके बहाव का शब्द जो गर्मी व बरसात में मीलों तक सुनाई देता है, बिलकुल नहीं सुनाई देता। गर्मियों में बर्फ गलती है। बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जाती हैं। चलनेवाले उनमें गिर पड़ते हैं। इससे कमर में एक लकड़ी तिरछी करके बाँध लेते हैं, ताकि गिर पड़े तो लकड़ी के सहारे अटक जावें। बर्फ की चकाचौंध से आँखों को बचाने के लिये चंवरगाय के बालों के चश्मे बनाते हैं, जिनको 'मुंगरा' कहते हैं। ऐसा बड़ा हिम का पर्वत होने तथा तमाम उत्तरीय भारत का पानी का खजाना होने पर भी यहाँ एक पर्वत है, जिसमें पानी का नामोनिशान नहीं। इसे 'निरपनियाँ धुरा' कहते है। इसे पार करने में मारवाड़ की तरह पानी लेकर चलना पड़ता है। यहाँ की सड़कें बड़ी दुर्गम हैं। कहीं-कहीं पहाड़ों को खोद कर रास्ता बनाया गया है। ये लोग धन्य हैं, जो ऐसे कठिन मागों में जाकर तिजारत करते हैं।
इस परगने की नदियों के किनारे की मिट्टी को धोने से कहीं-कहीं सोना निकलता है।
इस परगने में मांसी, कटुकी, अतीस, जहर, गाँठवाला डोलू उर्फ़ खेतचीनी, जंबू, गंद्रायणी बहुत होती हैं। कस्तूरी, मृग, चवरगाय, झूपू, भेड़, बकरियाँ भी जंगली व पालतू दोनों पाये जाते हैं। डफिया, मुनाला, लुंगी वगैरह चिड़ियाँ देखने में बड़ी सुन्दर होती हैं।

यहाँ से कैलास व मानसरोवर का रास्ता है। लोग अक्सर इन्हीं भोटियों के साथ वहाँ जाते हैं। ये लोग यात्रियों की अच्छी खातिर करते हैं। गरब्यांग इस दर्रे में अँगरेज़ी राज्य की आखिरी बस्ती है।
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
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