
अपड़ कहानि बतौंनू
रचनाकार: घनश्याम पाठक
आज मि तुमिन क॔णि अपड़ कहानि बतौंनू,
तब मि नानू नान छी, दश ग्यार साल तकक।
मिले गयों हो लखनऊ, ददा दगाड पहाड़ बेटि,
गयों त सही, पर दिल दिमाग घरै धरि गयों।
घरैकि याद जब आ जैछी, डाण ले मारैंछि मि,
खुली बे डाड़ मारण ले मुश्किल होंछी, ददा डरैलि।
उन दिनों ईज, बाबुक याद ले भौतै ओंछी मिकैणि,
इनत्यान ले कौंछा, अप्रैल मई मेंकै उन दिनान होंछी।
तब जैबेर द्वि महैंणैतै मि अपण घर पहाड़ न्है जैछी,
द्वि महैंण उन दिनान कौछां भौतै जल्दी न्है जैछी।
साल भरि बारीश और ठंडी, बाद गर्मी औंछी,
तब जैबेर इनत्यान दी बेर फिर दुबार घर औंछी।
यसिकै दशक, फिर बारक इनत्यान ले देछी मैली,
समय कै ले हो पाँखै लागि रौंनि फुर्र उड़ि जाँ याँ भेर।
कब हमि नौकरी पर लाग, कब घर आ गाय पत्त नि चल,
आज त याद रैगे, हमि ले जल्दी जल्दी बुड है गाय।
हमैरि भाषा में लेखणक पैल प्रयास मिले करणैयों,
गलती भौत ह्वाल हाँ मिकैणि क्षमा ले अपों करि दिया।
घनश्याम पाठक, 01-07-2021
घनश्याम पाठक जी की फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पर पोस्ट से साभार
फोटो सोर्स: गूगल
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