
मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- तीलू पिन(तिल के लड्डू)
लेखक: प्रकाश उप्रेती
आज बात-'तीलू पिन' (तिल के लड्डू) की। हमारे यहाँ यह सर्दियों की ख़ुराक थी। पहाड़ के जिन इलाकों में तिल ज्यादा होते हैं, वहाँ 'पिन' बनता ही था। हमारे यहाँ तिल ठीक-ठीक मात्रा में होते थे। बाकायदा कुछ खेत तिल के लिए ही जाने जाते हैं। उनको तिल के लिए ही तैयार किया जाता था।
ईजा उन खेतों की पहचान करती थीं जहाँ तिल हो सकते थे। हर खेत की प्रवृति उसकी मिट्टी पर निर्भर करती थी। मौसम तो अधिकांशतः पूरे क्षेत्र का एक जैसा ही होता था मगर कौन से खेत में कौन सी फसल अच्छी होगी इसके लिए बहुत कुछ देखना पड़ता था। अक्सर ईजा कुछ खेतों में अनाज के साथ "ढीका-निसा" (खेत के इधर-उधर) तिल भी बो देती थीं। अगर उसमें तिल ठीक हुए तो फिर अगले वर्ष से वह तिल वाला खेत हो जाता था। इस तरीके से 2-3 खेत तय हो जाते और अदल-बदल कर उनमें तिल बोए जाते थे।
हमारे यहाँ काले तिल होते हैं। एक बार ईजा कहीं से सफेद तिल लाई थीं लेकिन वो नहीं हुए। तिल का उपयोग तो ईजा चटनी बनाने, 'खज'(चावल-तिल और गुड़) में मिलाने, तेल निकालने और पिन बनाने के लिए करती थीं। हम भी तिल कभी-कभी चुरा कर खा लेते थे। बाकी तिल पूजा में भी प्रयोग होते थे। किसी भी शुभ-कार्य के पहले व बाद में गुड़-तिल ही बांटे जाते थे। ईजा बोलती थीं कि- "गुड़ तिल खा बे जया हाँ, हमेरी यई मिठ्ठे छु" (गुड़-तिल, खाकर जाना, हमारी तो यही मिठाई है)।
तिल रखने के लिए 'तुम्हड़' होता था। 'तुम्हड़' लंबी या गोल लॉकी के खोखले को कहते थे। कम और बारीक अनाज उसी में रखा जाता था। ईजा तिल को अच्छे से सुखाकर उसमें रख देती थीं। उसके बाद उनको ऐसी जगह संभाला जाता था, जहाँ हमारी नज़र और हाथ न पहुँचे।
तिल जब भी कटते थे उसके बाद सबसे पहले मंदिर के लिए तेल निकाला जाता था। पहले मंदिर के लिए तेल निकालने की सामूहिक प्रथा थी। धीरे-धीरे लोग अपने-अपने घर से निकाल कर देने लगे थे। जब तक 'देवी थान' के लिए तेल नहीं निकलता था तब तक तिल कोई नहीं खा सकता था। ईजा कहती थीं-"गिच पन झन डालिए हां, आजि देवी थान हें नि निकाल रहय"(अभी मत खाना, देवी मंदिर के लिए अभी नहीं निकाले हैं)। देवता हर चीज से ऊपर और हर चीज में थे और ये बात हम बचपन से ही समझ गए थे। हम खुशी-खुशी इंतजार कर लेते थे कि जब मंदिर में चढ़ा दिए जाएंगे तब खा लेंगे।
जाड़ों के दिनों में ईजा 'तीलू पिन' बनाती थीं। ईजा तिल को पहले अच्छे से सुखाकर उन्हें भुन लेती थीं। उसके बाद धूप में रख देती थीं। धूप में ही उन्हें गर्म पानी से आटे की तरह गूंथती थी। तीन उंगलियों से "मस्साक" (जोर) लगाकर तिल का तेल निकाला जाता था। ईजा की उंगलियां एकदम लाल हो जाया करती थीं। ईजा कहती थीं- "बिना मस्साक लगाइए तेल जे के निकलूं" (बिना जोर लगाए तेल थोड़ी निकलता है)।
तेल निकालने के बाद जो बच जाता था उसे कहा जाता था 'पिन' और उसी में गुड़ मिलाकर तीलू पिन बनता था। पहले 'अम्मा' (दादी) बहुत बनाती थीं। गोल-गोल लड्डू जैसे बनाकर कमण्डली में रख देती थीं। फिर एक-एक हमारे हिस्से भी आता था। हमारी कोशिश रहती कि कुछ हम चोरी करके भी डकार जाएं। परन्तु कम ही ऐसे मौके बन पाते थे।
तीलू पिन सर्दी और ताकत के हिसाब से पौष्टिक माने जाते थे। एक बार बनाकर रख दो तो कई महीनों तक चल सकते थे। इसलिए ईजा एक बार में काफी सारे बनाकर किसी डिब्बे में रख देती थीं। कुछ गांव वाले तो कुछ हम खाते रहते थे। कभी ईजा से मांगकर तो कभी चोरी करके।
ईजा आज भी हर साल मंदिर के लिए तेल निकालती हैं। उसके बाद पिन बनाकर हमारे लिए भेजती जरूर हैं । कहती हैं- "य समणी बजारेक मिठ्ठे फेल छु" (इसके सामने बाजार की मिठाई फेल है)। कहती तो ईजा सही ही हैं।
पहले बाजार से हमने खाया, अब बाजार हमें खा रहा है। ईजा की दुनिया इस बाजार के बरक्स अलग से खड़ी है। उनका 'तीलू पिन' बाजार की 'काजू कतली' के सामने आज भी मजबूती से खड़ा है जबकि हम बाजार के सामने घुटने टेक चुके हैं..
मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-04
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