
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
अट्ठारूं अध्याय - श्लोक (४६ बटि ५६ तक)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।। श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितित्। स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४७।। सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्। सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।। कुमाऊँनी:जो सब्बै जीवोंक् उद्गम छू और सब जाग् व्याप्त छू ऊ भगवानैकि उपासना करते हुए मनखि अपंण कर्मूं कैं करते राओ त् ऊ हर हाल् में पूर्णता प्राप्त करि सकूँ। अपंण ल्हिजी जो काम निर्धारित छू, ऊ भले ही दोषपूर्ण लागनौ वी काम कैं करण, दुहर् काम करंण है श्रेष्ठ छू। प्रत्येक काम में क्वे न क्वे दोष लै है सकूं, जस् कि आग में धूं जरूर होल् त् धुवैं कि डरैल् आग जलाण छोड़ी नि जै सकून्। यौ ई आधार पर् अपंण काम चाहे कतुकै दोषपूर्ण छू वी कैं त्यागण नि चैन्। (अर्थात् चाहे पठन-पाठन छू, देस और समाजैकि रक्षा करंण छू, गो-पालन या व्यवसाय छू या फिरि श्रम- सेवा छू सबनैंकि अपंणि-अपंणि जाग् पार् महत्ता छू, क्वे काम छ्वट् या ठुल न्हां। मनखि कैं चैं कि जो लै वीक् हिस्सौक् काम छू वीकैं तत्परता पूर्वक परमात्मा क् निर्देशूं समजिबेर् पुर करंण चैं, किलैकि भगवान् ज्यु हमेशा हमर् दगड़ छीं, आस-पास छीं।)
हिन्दी= जो सभी प्राणियों का उद्गम हैऔर सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है। अपने वृत्ति परक कार्य को करना, चाहे कितना ही त्रुटिपूर्ण ही क्यों न हो, अन्य के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार करने से अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म पाप से प्रभावित नहीं होते। प्रत्येक उद्योग या प्रयास किसी न किसी दोष से आवृत्त होता है, जिस प्रकार अग्नि धुएं से आवृत्त होती है, इसलिए हे अर्जुन! मनुष्य को चाहिए कि जो उसके स्वभाव हेतु निर्दिष्ट कर्म है, भले ही वह दोषपूर्ण है फिर भी उसे नहीं त्यागना चाहिए।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।४९।।
साद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांसात्यक्त्वा रागद्वेषो व्युदस्य च।।५१।।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।५२।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।५३।।
कुमाऊँनी:
जो आत्म-संयमी छू, अनासक्त छू, और जो सब्बै भौतिक भोगों की परवा नि करौन् ऊ मनखि संन्यास क् अभ्यास द्वारा कर्मफल है मुक्ति कि सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त करि सकूँ । यौ प्रकारैल् सिद्धि पाई हुई मनखि परब्रह्म कैं कसिक् प्राप्त हूँ, संक्षेप में सुणौ । अपणि बुद्धि कैं शुद्ध करि बेर् धैर्य पूर्वक मन कैं वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति क् विषयों कैं त्यागते हुए, राग-द्वेष है मुक्त हैबेर्, एकान्त जाग् पार् वाश करते हुए, नाम मात्रक् भोजन, शरीर, मन और वाणी कै वश में करिबेर् जो सदैव समाधिस्थ रूं और विरक्त रें, झुट अहंकार, झुटि ताकत, झुटि शान, काम, क्रोध, और भौतिक चीजों क् संग्रह है मुक्त रूं और मी स्वामी छूं यौ भावना लै नि धरून् और सब प्रकारैल् शान्त रूं यस् मनखि निश्चित रूपैल् आत्म-साक्षात्कार पद कैं प्राप्त करूँ।
(अर्थात् बुद्धि कैं विवेक द्वारा शुद्ध करंण जरूरी छू, जब बुद्धि हर प्रकारैल् शुद्ध है जालि त् हर काम जो परमात्मा निमित्त करी जां ऊ में सफलता निश्चित छू, एकान्त वाश आत्म-साक्षात्कार क् ल्हिजी भौतै भल् बतै रौ किलैकि एकान्त में बुद्धि और मन यथां उथां भटकंण है बची रूं और ध्यान एकमात्र अपंण लक्ष्य तरफ्यां लागि जां। और मनखिक् लक्ष्य सिर्फ आत्म-साक्षात्कार करि बै भगवान् ज्यु क् परमधाम प्राप्त करंण छु। इन्द्रियतृप्ति आदि भोग मनखि ल्हिजी कतई न्हां इन भोगों कैं भोगते-भोगते त् चौरासी लाख जीवन बिति गयीं आब् प्रभु कृपाल् मनखि जून मिलि रै त् येकैं भल् मारग पार् बितांण चैं।)
हिन्दी= जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्म फल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है। हे कुन्तीपुत्र! जिस तरह इस सिद्धि को प्राप्त किया हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात ब्रह्म को, (जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है) प्राप्त करता है, उसे संक्षेप में जानो। अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्य पूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों को त्याग कर, तथा राग द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वाश करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर, मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है, तथा पूर्ण विरक्त रहता है, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व,काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त हे, जो स्वामित्व की भावना से रहित है तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।
ब्रह्मभूतः प्रशन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।५४।।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चामि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विवशता तदनन्तरम्।।५५।।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शास्वतं पदमव्ययम्।।५६।।
कुमाऊँनी:
यौ प्रकारैल् जो दिव्यता प्राप्त करि ल्यूं, ऊ तुरंत परब्रह्म कैं अनुभव करि ल्यूं। और हमेशा प्रशन्न रूं। ऊ न कभ्भीं शोक करौन् और क्वे वस्तुकि अभिलाषा करौन्, सब जीवों पार् समभाव धरूँ ऐसि अवस्था में ऊ मेरि शुद्ध भक्ति कैं प्राप्त करूँ। केवल भक्ति द्वारा ई भगवान् कैं यथारूप में ज्याणी जै सकूँ। जब मनखि ऐसि भक्ति में दृढ़ है जां, तब्बै वैकुण्ठ धाम में पुजि सकूँ । म्यर् शुद्ध भक्त, म्यर् संरक्षण में, सब्बै प्रकारक् काम करते हुए लै, मेरि कृपाल् सदा स्थिर और अविनाशी धाम कैं प्राप्त है जां।
(अर्थात् शुद्ध चित्त मनखि (चाहे ऊ कसाई छू, पर भक्ति में दृढ़ छू) जब बिना कामना करियै अपुंण निर्धारित काम भगवान् ज्यु कैं हृदय में स्थित करि बेर् करूँ , त् भगवान् ज्यु कुनई कि मी सदैव वीक् संरक्षण करनूं, और जैक् संरक्षण भगवान् ज्यु क् हात् में छू त् वीक् ल्हिजी वैकुण्ठ नजिकै छू। कलि काल में जप,तप, पूजा आदि भौतै कठिन छू यैक् ल्हिजी भगवान् ज्यु एक सरल बाट् बतूनी, ऊ छू भक्ति मार्ग। तुम अपंण काम करते हुए, सितनैं, जागनैं या यात्रा करनैं भक्ति करि सकंछा, भक्ति करंण ल्हिजी दिन, बार या स्थानैकि जर्वतै न्हां। तब करौ भक्ति और प्राप्त करौ वैकुण्ठ।)
हिन्दी= इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रशन्न हो जाता है। वह न कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करते है , वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है। केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ में प्रवेश कर सकता है। मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रहकर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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