मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- नाई और तामी

  नाई और तामी दोनों पीतल और तांबे के बने कुमाऊँ में अनाज मापक यंत्र होते हैं।Nai & Tami or Mana are measuring vessels in Kumaun Hills

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-'नाई' और 'तामी'
लेखक: प्रकाश उप्रेती

ये हैं- 'नाई' और 'तामी'. परिष्कृत बोलने वाले बड़े को 'नाली' कहते हैं। ईजा और गाँव के निजी तथा सामाजिक जीवन में इनकी बड़ी भूमिका है। नाई और तामी दोनों पीतल और तांबे के बने होते हैं। गाँव भर में ये अनाज मापक यंत्र का काम करते हैं। घर या गाँव में कोई अनाज मापना हो तो नाई और तामी से ही मापा जाता था। हमारे यहां तो जमीन भी नाई के हिसाब से होती है। लोग यही पूछते हैं- अरे कतू नाई जमीन छु तूमेर...बुबू आठ नाई छु। मेरे गांव में तो 8 से 12-13 नाई जमीन ही लोगों के पास है। नाई घरेलू अर्थव्यवस्था का केंद्रीय मापक था। आज की विधि के अनुसार एक नाई को दो किलो और एक तामी को आधा किलो माना जाता है।  नाई का नियम भी होता था कि उसे 'छलछलान' (एकदम ऊपर तक) भरना है। कम नाई भरना अपशकुन माना जाता था।

नाई हमेशा भतेर और तामी गोठ रखी जाती थी।  जब भी गाँव में कोई बड़ा काम होता तो नाई तभी निकाली जाती थी। गाँव में शादी से लेकर जागरी तक में आटा, चावल , दाल सब नाई से ही मापकर दिया जाता था। हमको पता होता था कि हमारे गाँव में 7 नाई का भात बनता है, 5 नाई पीसी (आटा) लगता है और 3 नाई, 2 तामी दाल लगती है। इतना ही गोठ से 'भनारी' मापकर देता था। 'भनारी' वह व्यक्ति होता था जो किसी भी आयोजन में गोठ में रखे खाने के समान की देख रेख करता था। भनारी ही खाना बनाने वालों को माप कर समान देता था।  गाँव में भनारी बाकायदा एक पोस्ट जैसा था। हर कोई भनारी नहीं हो सकता था।  उनको जाना भी भनारी के नाम से जाता था। हमारे गाँव में कोई भनारी नहीं था तो दूसरे गाँव से भनारी बुबू आते थे। हर आयोजन में उन्हें दो निमंत्रण दिए जाते थे-एक सामूहिक वाला और दूसरा भनारी वाला। निमंत्रण देने वाला उनसे कहता था- बुबू भनारी न्यौत ले छू तुमु हैं, भनार देखणु हाँ...

तब हमारे खेत में 4-5 बोरी मर्च (मिर्च) होती थी।  ईजा 'मरचोड़'(मिर्च वाला खेत) में बहुत मेहनत करती थीं। हम मरचोड़ के एक- एक ढुङ्ग चाढ़ देते थे। ईजा बुज- बाजी (झाड़ियाँ) काट के साफ कर देती थीं। तब खेत में मिर्च बोई जाती थी। मिर्च बोन के बाद उसकी चारों तरफ से 'बाड़''( चारों ओर से लकड़ियों से घेरना) कर देते थे ताकि कोई 'उज्याड़ी ब्लद या गोरू' (कहीं भी चराने भेजो लेकिन आँखों में धूल झोंक कर खेत में ही चरने आन जाने वाला बैल और गाय) न आ जाए।

मर्च जब पक जाती थी तो शाम को हमारा और अम्मा का काम मरचोड़ से मर्च टिप कर लाने का होता था। खेत में हम आधा- आधा हिस्सा बांट लेते और 'गांति' लगाकर मर्च टिप लाते थे। लोगों को देने, घर में इस्तेमाल करने और अगले साल के लिए बीज की मर्च रखकर बाकी हम बेच देते थे। मर्च ले जाने वाला उस इलाके भर में एक आदमी था- सेठु मोहन। मर्च सूखते हुए देखकर वे कहीं न कहीं से आ ही जाते थे। उनका एक रटारटाया डायलॉग होता था- ये साल तो मर्चक भो बिल्कुल नि छु। चलो तुमु कैं 12 रुपए नाई दी ड्यूल। इससे ज्यादा कभी वो बताते ही नहीं थे। मर्च भी नाई से ही मापी जाती थी।...

तामी घर में इस्तेमाल होती थी। भात बनाने के लिए ईजा तामी से ही चावल निकालती थीं। ऐसा ही आटा भी तामी से निकाला जाता था। माई जी, बाबा या पंडित जिनको भी आटा, चावल, गेहूँ, मंडुवा देना हो तामी से ही दिया जाता था। ईजा कहती थीं कि तामी से दिया अनाज फलता है। उसमें देने और लेने दोनों की बरकत होती है।

अब नाई और तामी, दोनों में जंग लग रहा है। उनकी जगह मग, जग आ गए हैं। आटा, चावल और दाल किलो के थैलों में आ रहे हैं। उसी हिसाब से बंट रहे हैं। अब न गाँव में को नाई भरकर देता और न घर में तामी से मापा जाता है। कटोरी मुखिया हो गई है। माँ कितनी कटोरी चावल रख दूँ...

ईजा ने अब भी पीसी और चांगो (चावल) के कंटर में तामी रखी हुई है। वह अब भी कहतीं हैं- अरे चेल्या एक तामी चांगों निकाली बे चाहे दिए हाँ, मैं भैंस- गोरू कैं पाणी खोवे ल्यानु..ईजा की यही धरोहर है।

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-13

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