कतुक दूर जाला - कुमाऊँनी कविता

कतुक दूर जाला-कुमाऊँनी कविता, kumaoni poem about unforgettable beauty of hills, pahad ke saundary par kumaoni kavita

कतुक दूर जाला

रचनाकार: शंकर मठपाल

तुम अपण  पहाड़ छोड़ बे कतुक दूर जाला 
आला एक दिन लौट बेर जरूर आला,
कसिक भूलला अपणी जमीन अपण गौं कें,
ठंडी हवा और मीठो पाणी नहो कें,
कहीं न कहीं त लौट बे घर जरूर आला
तुम.....

कसिक भुलाला इज क हाथक मनुवक रवट,
जाड़ो दिनम आग द्ओ में भुटि भट्ट,
पीनाउक गडेरी साग, रैत म जाखियक तूडुक
बरातिम ,नंगर रौटी ,ओर जगरिम हुडुक
चौमास म झुणमुणी दयो, ओर डानेक हौल,
हरी भरी सार और पाणी भरी रौल,
काखेड़ी चिरम घर पीसी लूण जरूर याद कला,
आला एक दिन लौट बे जरूर आला
तुम....

रूड़ी क दिनम ठंड पौन याद आल,
स्यरुक धान साणम हुड़की बोल याद आल,
कौणी झुंगर क लटकी बालड़ याद आल,
इजक दगड मास गहत गाडण याद आल
ग्यूक दें , मरचूक मानिर याद आल,
घर क कुण पन धरि जनर याद आल
कतुक जे बतू तुमके घरक के के जे भुलाला
आला लौट बे एक बार जरूर घर आला
तुम......आपण पहाड़ छोड़ बे कतुक दूर जाला            

शंकर मठपाल 17-08-2021

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