सज-समाव - कुमाऊँनी कविता

सज-समाव - कुमाऊँनी कविता,kumaoni poem about how to protect our natural resources,prakrutik sansadhno ko kaise bachaye

"सज-समाव"

रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
भलीक्यै करिया यारो ! आपणी सज-समाव।। कैं द्दलबल छकल हैरेै, कैकी गावा-गाव।। चुँङनि पुरॉणि कुड़ि हैगे, निझुत्त हैगे सुर्याव। पाल छिरी गोठ ल्हैगे, घुन-घुन पाँणिक खाव।। रटघट सागर लहर का, छन अगास छुङन उल्याव। दूर ढीक ओझल भया, चुँङनीं हैगे नाव।। उ पाँणी जब पतेल जस, बगै द्यों उ बणि काव। गार्-माँट् और मनखी, उँ बगनीं एक्कै भाव।। विरहिन की आँखि जसि, य चाल-खाल का खाव। सोलुँ साल चौमास कैं, उमवन हिया का भाव।।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ