
"धाव्"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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बागुड़ै बागुड़ य कुड़ बटि उ कुड़ रत्तै बटि ब्याव तक एक क् बाद एक. पैली पुजणक् छेक सुद्दै न्यौंत्याई जास् बाखइ-बाखई हैं धिरकण रईं बानर। बानर छाव् गुसैं कि गाव्-गाव् चुहैड़ी बोट-डाव् स्यारीपन खाल्ली धाव् न सुख न गाव् के खाँ बाव्? के खानीं बुड़-घ्याव्? कसिक भैटीं खुटकौंण? कसिक सुकाईं बिसौंण? कसिक तताईं बिछौंण? कसिक कुड़ि बचौंण? कसिक बचुँ खवाँणि? कसिक पीणीं पाँणि? बाड़-ख्वड़ा में साग-पात हराँण नैं चाखण फव क् एक लै दाँण् न सुकौट, न कहाँण् बताओ धैं आब् के खाँण्? काँहुँ जाँण्?
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