
लुप्ति के कगार पर अपना स्थान खोजती कुमाऊँनी लोक संस्कृति
लेखिका: प्रेमा पांडे
पढ़ें लेख का पिछला भाग-1
लोक कला में भित्ति-चित्रो का बड़ा महत्व रहा है। जिसमें बिन्दुओ का विशेष महत्व रहा है। सृष्टि का केन्द्र बिन्दु माना गया है जब तीनो शक्तियाँ (ब्रम्हा-विष्णु-महेश) का विलय एक दूसरे में हो जाता है तभी बिन्दु अर्थात बूँद का जन्म होता है।
बर-बूँद:-
बर-बूँद का अर्थ होता है रेखा और बिन्दू। इसे फैलाऐ जाने पर विभिन्न रुपो में भद्रो की रचना होती है। बिन्दुओ को दोनो दिशाओ में (आमने सामने और नीचे की ओर) निंश्चित सँख्या में बढ़ाने और सीधी रेखाओं से जोड़ने पर अनेक आकृतियो की रचना की जाती है। ये आकृतियां भद्र कहलाती है। देखने में यह ज्यामितीय आलेख की भाँति लगती है। इन आकृतियो में रँग भर दिये जाते है। इन आकृतियो को उन बिन्दुओ की संख्या के आधार पर जाना जाता है। जिसे मैं भाग-१ मे बता चुकी हूँ
१२ बारह बिन्दु, १९ बिन्दु व २४ बिन्दु के भद्र:
भद्रो को बनाने में लोक कला से जुडे मूलत: कुमाऊंँनी परिवार भित्ती-सज्जा, भूमि सज्जा, पटचित्र, डिकारे पूजा, पर आस्था तथा विश्वास रखते है, किसी भी शुभकार्य के लिये घर को सजाना मुख्य कार्य होता है।
रँगोली बनाने से पहले घर को लीपना पोतना व सफाई का विशेष ध्यान रखते हुऐ ऐपड़ दिये जातेे है। दीवार पर रँगीन चित्र बनाना (भित्ती-सज्जा ), बर-बूंद विशिष्ठ संस्कारो में पूजा गृह में बनाये जाते है। जहां सँस्कार का कर्म-काण्ड पूरा होता है। यह एक पवित्र कार्य है इस लिये इसका कार्य का शुभारम्भ करने से पहले शगुन आंखरों( मँगल-गीतों ) के साथ होता है।
इन भद्रो को बनाने में कई महिलाऐ सामुहिक रुप से पूरा करती है। यह अधिकतर दीवार पर बनाया जाता है जिसे सफेद खड़िया या सफेद मिट्टी से पोतकर सतह बनाई जाती है इस पर दो महिलाऐ निर्धारित स्थान पर रँगो द्वारा बिन्दु बनाती चलती है। और दो महिलाऐ वांछित रुप से रेखाऐ मिलाती चलती है, इसके साथ ही दो स्त्रीयां लाल रँग, दो पीला तथा दो हरा रँग लेकर अपनी अपनी तीलियां में रुई लपेट कर रँग मे डुबोकर वांछित स्थान में भरती चलती है। यह कार्य श्रीगणेश पूजा से शुरु होता है , इस कार्य को बीच में रोका नही जाता है देर रात्रि तक पूरा किया जाता है।
गौरी तिलक बर-बूंद:-
यह ३५ बिन्दुओ से बनाया जाता है इसमे पीला लाल और बैगनी रँगो का प्रयोग होता है।
१९ बूदो का स्वस्तिक फूल:-
इसमे पीला लाल और बैगनी ऱँगो का प्रयोग होता है।
इसी तरह से भिन्न- भिन्न भद्रो में ऱंगो का ताल-मेेल बैठाया जाता है।
कुमाऊँ की लोक कला में एक विशेषता यह दिखाई देती है कि यहाँ देवताओ के विशेष आसन सँस्कारो तथा विभिन्न पर्वो के लिये एक विशिष्ठ ऐपड़ निर्धारित होता है जिसके आधार पर ही कलाकार उस ऐपड़ की रचना करता है, उसी को बनाने में वह अपने कौशल का प्रदर्शन करता है। उसके मूल आकार को वह परिवर्तित नही कर सकता है। उसे उभारने तथा और सुन्दर बनाने के लिये अवश्य ही वह पारंम्परिक बेल बूंटो तथा चिन्हो से अलंकृत कर सकता है।
दु:ख होता है ....कि यह सँस्कृति अब लुप्त हो चुकी है। इस कला को फिर से लाना लोगो का कोई रुझान नही दिखाई देता है।
आज मै आप लोगो को इस लुप्त होती कला को दिखाना चाह रही हूँ, कि इन धार्मिक कलाकृतियो की सुन्दरता कितना महत्व रखती है। इनके द्वारा विनाशकारी शक्तियां प्रवेश नही करती घर मे सुख सम्पति बनी रहती है, परिवार में एकता रहती है। वास्तु शास्त्र में भी इन का प्रयोग किया जा सकता हैं। आज मैं आप लोगो को इस सँस्कृति की चित्र समेत जानकारी दे रही हूँ हो सकता है बहुत सी गलतियाँ भी हो।
प्रदर्शित चित्रों में से कुछ चित्र मेरे द्वारा निर्मित हैंं व कुछ चित्र मैंने बहुत खोज व मित्रों के सहयोग से प्राप्त किये हैं। ये सभी चित्र बहुत दुर्लब हैं व बहुत खोजने पर मिले है, लेकिन बताती चलूँ कि कुछ घर अभी भी ऐसे है जो शौकिया तौर इसे जीवंत रखे हुवे है। यदि भविष्य में मुझे कोई घर ऐसा मिल जाये जहाँ ये चित्र बने हों तो मैं उन की फोटो शेयर कर और जानकारी दे पाऊँगी।
जो घर इस कला को सजोये हुवे हैं मैं उन्है कोटि कोटि प्रणाम करती हूँ🙏
>मेरे द्वारा बनाये गऐ निर्मित चित्र।👇























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