घुघूती बासूती क्या है, कौन है?

घुघूती बासूती क्या है, कौन है?who is ghguti basuti in kumaoni folk literature,ghuguti basuti ke bare mein jankari

घुघूती बासूती क्या है, कौन है?

घुघूती बासूती

उत्तराखंड का एक भाग है कुमाऊँ! वही कुमाऊँ जिसने हिन्दी को बहुत से कवि, लेखक व लेखिकाएँ दीं, जैसे सुमित्रानंदन पंत,मनोहर श्याम जोशी,शिवानी आदि।

वहाँ की भाषा है कुमाऊँनी।  वहाँ एक चिड़िया पाई जाती है जिसे कहते हैं घुघुति।  एक सुन्दर सौम्य चिड़िया। मेरी स्व दीदी की प्रिय चिड़िया।  जिसे मामाजी रानी बेटी की यानी दीदी की चिड़िया कहते थे।  घुघुति का कुमाऊँ के लोकगीतों में विशेष स्थान है।
कुछ गीत तो तरुण जी ने अपने चिट्ठे में दे रखे हैं । मेरा एक प्रिय गीत है ....
घूर घुघूती घूर घूर
घूर घुघूती घूर,
मैत की नौराई लागी
मैत मेरो दूर ।
मैत =मायका, नौराई =याद आना, होम सिक महसूस करना ।

किन्तु जो गहराई, जो भावना, जो दर्द नौराई शब्द में है वह याद में नहीं है।  नौराई जब लगती है तो मन आत्मा सब भीग जाती है, हृदय में एक कसक उठती है।  शायद नौराई लगती भी केवल अपने मायके, बचपन या पहाड़ की ही है।  जब कोई कहे कि पहाड़ की नौराई लग रही है तो इसका अर्थ है कि यह भावना इतनी प्रबल है कि न जा पाने से हृदय में दर्द हो रहा है । घुघूती बासूती भी नौराई की श्रेणी का शब्द है।
और भी बहुत से गीत हैं । एक की पंक्तियां हैं ...
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती ।
या भै भूक गो, मैं सूती ।
भै = भाई
आलो=आया
भूक गो =भूखा चला गया
सूती=सोई हुई थी

यह एक लोक कथा का अंश है।  जो कुछ ऐसे है, एक विवाहिता से मिलने उसका भाई आया।  बहन सो रही थी सो भाई ने उसे उठाना उचित नहीं समझा।  वह पास बैठा उसके उठने की प्रतीक्षा करता रहा।  जब जाने का समय हुआ तो उसने बहन के चरयो (मंगलसूत्र) को उसके गले में में आगे से पीछे कर दिया और चला गया।  जब वह उठी तो चरयो देखा।  शायद अनुमान लगाया या किसी से पूछा या फिर भाई कुछ बाल मिठाई (अल्मोड़ा, कुमाऊँ की एक प्रसिद्ध मिठाई) आदि छोड़ गया होगा।  उसे बहुत दुख हुआ कि भाई आया और भूखा उससे मिले बिना चला गया, वह सोती ही रह गई।  वह रो रोकर यह पंक्तियाँ गाती हुई मर गई।  उसने ही फिर चिड़िया बन घुघुति के रूप में जन्म लिया।  घुघुति के गले में, चरयो के मोती जैसे पिरो रखे हों, वैसे चिन्ह होते हैं।  ऐसा लगता है कि चरयो पहना हो और आज भी वह यही गीत गाती है:
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती।

किन्तु कहीं घुघुति और कहीं घुघूती क्यों?  जब भी यह शब्द किसी गीत में प्रयुक्त होता है तो घुघूती बन जाता है अर्थात उच्चारण बदल जाता है।

इस शब्द के साथ लगभग प्रत्येक कुमाऊँनी बच्चे की और माँ की यादें भी जुड़ी होती हैं।  हर कुमाऊँनी माँ लेटकर, बच्चे को अपने पैरों पर कुछ इस प्रकार से बैठाकर जिससे उसका शरीर माँ के घुटनों तक चिपका रहता है, बच्चे को झुलाती है और गाती है:
घुघूती बासूती
माम काँ छू =मामा कहाँ है
मालकोटी =मामा के घर
के ल्यालो =क्या लाएँगे
दूध भाती =दूध भात
को खालो = कौन खाएगा
फिर बच्चे का नाम लेकर ........ खालो ,....... खालो कहती है और बच्चा खुशी से किलकारियाँ मारता है।

मैं अपने प्रिय पहाड़, कुमाऊँ से बहुत दूर हूँ । पहाड़ की हूँ और समुद्र के पास रहती हूँ।  कुमाऊँ से मेरा नाता टूट गया है । लम्बे समय से वहाँ नहीं गई हूँ । शायद कभी जाना भी न हो।  किन्तु भावनात्मक रूप से वहाँ से जुड़ी हूँ। आज भी यदि बाल मिठाई मिल जाए तो ........

वहाँ का घर का बनाया चूड़ा (पोहा जो मशीनों से नहीं बनता, धान को पूरा पकने से पहले ही तोड़ लिया जाता है ,फिर आग में थोड़ा भूनकर ऊखल में कूट कर बनाया जाता है।) अखरोट के साथ खाने को जी ललचाता है।  आज भी उस चूड़े की, गाँव की मिट्टी की महक मेरे मन में बसी है।  मुझे याद है उसकी कुछ ऐसी सुगन्ध होती थी कभी विद्यालय से घर लौटने पर वह सुगन्ध आती थी तो मैं पूछती थी कि माँ कोई गाँव से आया है क्या?  मैं कभी भी गलत नहीं होती थी।  यदि कोई आता तो साथ में चूड़ा, अखरोट, जम्बू (एक तरह की सूखी पत्तियाँ जो छौंका लगाने के काम आती हैं और जिन्हें नमक के सा पीसकर मसालेदार नमक बनाया जाता है।), भट्ट (एक तरह की साबुत दाल), आदि लाता था और साथ में लाता था पहाड़ की मिट्टी की महक।

वहाँ के फल, फूल, सीढ़ीनुमा खेत, धरती, छोटे दरवाजे व खिड़कियों वाले दुमंजला मकान, गोबर से लिपे फर्श, उस फर्श व घर की चौखट पर दिये एँपण, ये सब कहीं और नहीं मिलेंगे।  एँपण एक तरह की रंगोली है जो कुछ कुछ बंगाल की अल्पना जैसी है।  यह फर्श को गेरू से लेप कर भीगे पिसे चावल के घोल से तीन या चार उँगलियों से बनी रेखाओं से बने चित्र होते हैं।  किसी भी कुमाऊँनी घर की चौखट को इस एँपण से पहचाना जा सकता है।  दिवाली के दिन हाथ की मुट्ठियों से बने लक्ष्मी के पाँव, जो मेरे घर में भी हैं बनते हैं। 

वे जंगलों में फलों से लदे काफल, किलमोड़े, व हिसालू के वृक्ष । जहाँ पहाड़ों में दिन भर घूम फिर कर अपनी भूख प्यास मिटाने के लिए घर नहीं जाना पड़ता, बस फल तोड़ो और खाओ और किसी स्रोत या नौले से पानी पियो और वापिस मस्ती में लग जाओ। वे ठंडी हवाएँ ,वह बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियाँ, चीड़ व देवदार के वृक्ष!

बस इन्हीं यादों को, अपने छूटे कुमाऊँ को, अपनी स्व दीदी की याद को श्रद्धा व स्नेह के सुमन अर्पण करने के लिए मैंने स्वयं को नाम दिया है घुघूती बासूती!  है न काव्यात्मक व संगीतमय, मेरे कुमाऊँ की तरह!

पुनश्च: यह पढ़ने के बाद यदि अब आप मेरी कविता उड़ने की चाहत पढ़ें तो आपको उसके भाव सुगमता से समझ आएँगें।

घुघूती बासूती, 25-02-2007
इस पोस्ट की एक विशेषता यह है कि शायद वर्तमान में इंटरनेट पर उपलब्ध यह किसी कुमाऊँनी ब्लॉगर की सबसे पुरानी ब्लॉग पोस्ट है।

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