श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में चौदहऊं अध्याय (श्लोक १९ - २७)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्, interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumauni Language

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

 चौदहऊं अध्याय - श्लोक (१९ बटि २७ तक)

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा दृष्ट्वानुपश्यति। गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।१९।। गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्। जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ।।२०।। अर्जुन उवाच - कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो। किमाचारः कौं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।।२१।। कुमाऊँनी:जब मनखी यौ ज्याणि ल्यूं कि प्रकृतिक् सब कामूं कैं करणीं इन तीन गुणन् है इतर् और क्वे न्हां और जब ऊ परमेश्वर कैं समजि जां, जो इन तीनों गुणन् है परे छू , तब ऊ म्यर् दिव्य स्वभाव कैं प्राप्त है जां । जब देहधारी इन तीनैं गुणन् कैं लांघण में समर्थ है जां त् फिरि ऊ जनम्, मरण और बुढापा आदि कष्टन् है मुक्त है जां और यौ ई जीवन् में अमृत चाखण में लै समर्थ है जां । तब अर्जुन पुछनयी कि, हे भगवान् ज्यु! जो इन तीनैं गुणन् है मुक्त छू , वीकि पच्छ्याण क्ये छू ? वीक् आचार् - व्योहार् कस हूँ? और ऊ प्रकृतिक् यौ गुणन् कैं लांघण में कसिक् समर्थ हूं?
(अर्थात् प्रकृतिक् तीनैं गुण सत, रज और तम जो छन् यौं ई विकारैकि जड़ छन् । इनूं है पार् पाणंक् ल्हिजी जप, तप और ध्यान करणैकि जर्वत् पड़ी, जो मनखी संसारिक कार्य (जो करणैं पड़नी) करते हुए, निरन्तर परमेश्वरक् ध्यान में लागी रूनीं, और प्रत्येक कार्य परमेश्वरक् छूं यस् ध्यान करते हुए अपंण, अपंण परवारक् पालन् शुचितापूर्वक करनीं, उनूकैं यौं गुण नि व्यापन् और मृत्यु लोक में रै बेर् लै स्वर्गलोकक् जस् अनुभव करि सकनीं।)
हिन्दी= जब कोई यह अच्छी तरह जान लेता है कि समस्त कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है और जब वह परमेश्वर को जान लेता है, जो इन तीनों गुणों से परे है, तो वह मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है। जब देहधारी जीव भौतिक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लांघने में समर्थ होता है तो वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा उनके कष्टों से मुक्त होजाता है और इस जीवन में अमृत का भोग कर सकता है। अर्जुन ने पूछा - हे भगवान्! जो इन तीनों गुणों से परे है, वह किन लक्षणों द्वाजाना जा सकता है ? उसका आचरण कैसा होता है? और वह प्रकृति के गुणों को किस प्रकार लांघता है।

श्रीभगवानुवाच -
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि समावृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।२२।।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।२३।।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।२४।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।२५।।

कुमाऊँनी:
यौ भौतिक संसार में जो निर्लिप्त छू, मान अपमान है बेखबर छू, माट् और सुन् जैक् ल्हिजी बराबर छू, उज्याव, आसक्ति और मोहैकि उपस्थिति कैं देखि जो न त् इच्छा करौन् और न घृणा करौन्, जो भौतिक गुणों द्वारा विचलित नि हुंन्, सुख और दुःख कैं समान समजूं, बुराई या भलाई, शत्रु या मित्र सब्बै समान समजों यस् मनखि कैं प्रकृतिक् गुणन् है अतीत यानि निर्लिप्त समजो।
(अर्थात् मनखि जब शरीर धारण करूं त् प्रकृतिक् गुणों क् प्रभाव में आं। पर परमेश्वरैल् मनखि कैं एक दिव्य वस्तु दि राखी जैक् नाम छू विवेक (यानि सोचण- समजणैकि तागत् ) तो मनखि कैं चैं कि क्वे लै मारग अपनूंण है पैली विवेक द्वारा सोचि- समजि लियो तब ऊ मारग पार् पग बढाओ। यौ म्यर् छू, यैल् म्यर् अपमान करौं, यौ सुन् छू यौ माट् छू, यौ ज्ञानी या मूर्ख छू। यस् प्रकारक् भाव छोड़ि बै परमात्मा क् ध्यान में मगन रूंण चैं और अपंणि जून् सुधारणैंकि प्रयास निरत करंण चैं।)

हिन्दी= भगवान् कहते हैं, हे पाण्डुपुत्र! जो प्रकाश, आसक्ति तथा मोह के उपस्थित होने पर न तो उससे घृणा करता है, और न लुप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करता है, जो भौतिक गुणों की इन समस्त प्रतिक्रियाओं से निश्चल तथा अविचल रहता है और यह जानकर कि केवल गुण ही क्रियाशील हैं, उदासीन तथा दिव्य बना रहता है, जो अपने आप में स्थित है और सुख तथा दुःख को एक समान मानता है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर एवं सोने के टुकड़े को समान दृष्टि से देखता है, जो अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्रति समान बना रहता है, जो धीर है और प्रशंसा तथा बुराई, मान तथा अपमान में समान भाव से रहता है, जो शत्रु तथा मित्र के साथ समान व्यवहार करता है और जिसने सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर दिया है, ऐसे व्यक्ति को प्रकृति के गुणों से अतीत कहते हैं।

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।२६।।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शास्वतस्यच धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।२७।।

कुमाऊँनी:
जो सम या विषम परिस्थितियों में लै अविचल भावैल् भक्ति में लागी रूं, ऊ तुरत परकरतीक् तीनैं गुणूं कैं लांघि द्यूं और यौ प्रकारैल् ऊ ब्रह्म तक पुजि जां। और भगवान् ज्यु कुनई कि- मैं ई ऊ निराकार ब्रह्मक् आश्रय छू, जो अमरणशील, अविनाशी या शाश्वत छू और परम सुखक् वास्तविक पद छू।
(अर्थात् अगर ध्यानैल् देखी जाओ त् सब्बै प्राणी स्वभावैल् ब्रह्म ई छन् पर विवेक धारी मनखी अगर परकितिक् गुणन् कैं न द्यखौ या उनर् प्रभाव में न आओ त् वीक् ब्रह्मत्व बणीं रौं और दिनौंदिन परमात्मा क् नजीक् जाते रूं, और यदि वी ब्रह्म स्वरूप मनखि परकितिक् गुणूं क् जाव् में फंसि जाल् त् अधोगति हुंण में लै देर नि लागनि। कलजुग में भजन, कीर्तन और स्मरण यौं तीन विधि परमेश्वर कैं प्राप्त करणाक् ल्हिजी बतै रयीं पर इनूंमेंलै शुद्धता (तनैकि लै और विचरौंकि लै) जरूरी छू महाराज।)

हिन्दी= जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लांघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है। और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और परम सुख का स्वाभाविक पद है। जय श्रीकृष्ण

🌹 दगड़ियो यौ प्रकारैल् आपूं सब्बूं क् सहयोगैल् श्र्रीमद्भगवद्गीता ज्युक् यौ चौदहऊं अध्याय पुरी गो।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार

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