
कुमाऊँ के चंदकालीन परगने- तराई
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
राजा रुद्रचंद ने ( स० १५६८-१५९७) पर्वतीयों की सेना एकत्र कर तराई से मुसलमानों को हटा दिया, और सन् १५८८ में वह अकबर बादशाह के पास गये, और तराई के बारे में शिकायत की। राजा ने नागौर की लड़ाई में बहादुरी दिखाई। कुमय्याँ सेना विजयी रही। अतः अकबर ने फिर तराई भावर परगने का फरमान राजा को दे दिया। इन्हीं राजा रुद्रचंद ने तराई भावर का पक्का प्रबंध किया, और सन् १६०० के करीब रुद्रपुर नगर बसाया।
बादशाह अकबर के 'आईने-अकबरी' में सरकार कुमाऊँ भी एक सूबा था। उसमें पहाड़ी इलाका शामिल न था। न-जाने क्ले साहब नेनीताल के इतिहास में यह क्यों कहते हैं कि गरीबी के सबब पहाड का खिराज कुमाऊँ के राजा को माफ था, जब कि खुद बादशाह अकबर के ज़माने के इतिहासज्ञों ने बराबर लिखा है कि कुमाऊँ का राजा काफ़ी धनी था। "आईनेअकबरी" में सरकार कुमाऊँ का वृत्तांत इस प्रकार दिया हुआ है:
"सरकार बदायूँ के बाद सरकार कमायूँ है। फारसी - लेखक इसे कुमाऊँ नहीं, बल्कि कमायूँ लिखते आए हैं।"

३५. सरकार कुमाऊँ
[२१ मुहाल]
मालगुजारी ४,०४,३७,७०० दाम
(एक दाम बराबर १/४० रुपए के होता था, अतः इस समय के हिसाब के कुल मालगुजारी २०,२१,८८५) हुई)
अदौन - ४,००,००० दाम
बुकसी व बुकसा दो मुहाल - ४,००,००० दाम
बसटारा - २,००,००० दाम
पंचोतर - ४,००,००० दाम
भक्ति भूरी - १,१०,००,००० दाम
रटिला - १,००,२५,००० दाम
चटकी - ४,००,००० दाम
अकराय - ५०,००,००० दाम
अरदा - ३०,००,००० दाम
जावन - २,५०,००० दाम
चौली, या चटकी, सेहुजपुर, गुजरपुर,द्वाराकोट,मुलवारे - २,५०,००० दाम
मालाचौर, सिताचौर, कामौस या कामूस - ५०,३७,७०० दाम
इस सूबे को उक्त मालगुजारी के अलावा ३,००० सवार तथा ५०,००० सेवा देनी पड़ती थी।
इससे ज्ञात होता है कि अकबर की सरकार कुमाऊँ का विस्तार तब देहरादून से लेकर शायद काली के उस तरफ़ तक था। इसमें से अन्य मुहाल पीलीभीत, बरेलो, रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर तथा देहरादून में हैं। केवल ये प्रान्त कुमाऊँ में होने कहे जाते हैं:
(१) बुकसी या बुकसा- इसका नाम इस समय भी बुकसाड़ है। इसमें रुद्रपुर व किलपुरी के इलाके शामिल हैं।
(२) सेहूजपुर, सहजगढ़ वर्तमान जसपुर है।
(३) गुजिरपुर अब गदरपुर हो गया है।
(४) सीताहूर, सीताचौर, मालाचौर-यह शायद कोटा हो। संभव है, तब कोटे का नाम सीताचौर या सीताहर हो, जो अब सीतावनी कहलाती है।
(५) छखाता, चोरगल्या व अन्य भावरी इलाके हैं।
(६) भक्ति भूरी-यह बक्सी हो, जो नानकमता का पहला नाम था।
(७) चौली या चटकी - यह चिनकी का नाम हो, जो सरबना भी कहा जाता था।
(८) कामोस या कामूस- डा. डी. पंत लिखते हैं कि अकबर के राज्य की सीमा माउन्ट इमान्स थी, जो हिमाचल या हिमांस का रूपान्तर हो। कुमाऊँ पर्वत इसी नाम से कहा जाता था। कुमाऊँ को कुमाऊनियस कहते थे। [ The limits of Akbar's Empire were, "on the north bounded by Mount Imans (the Kumaon then spelt as cumaunius ) (page 39 of the Commercial policy of Moguls.)]
वर्तमान कुमाऊँ के जो प्रान्त अकबर की सरकार कुमाऊँ में शामिल थे, उनकी मालगुज़ारी करीबन १,७३,४४५) थी।

राजा रुद्रचंद के समय तराई भावर का नाम चौरासीमाल या 'नौलखियामाल' कहलाता था, क्योंकि शारदा से पीलीभीत तक यह ८४ कोस का टुकड़ा माना गया है और इसकी मालगुजारी उस समय नौ लाख रुपए थी। पाटिया के नौलखिया पांडे यहाँ के खजांची थे। इसी से नौलखिया कहलाए। उस समय के परगने ये थे:-
तब अब
सहजगिर या सहजगढ़ जसपुर
किलपुरी रुद्रपुर
बुकसाड़ रुद्रपुर
गदरपुर गदरपुर
चिनकी बिलारी
बक्सी नानकमता
मुंडिया बाजपुर
कोटा जिसमें काशीपुर प्रांत भी शामिल था।
राजा बाजबहादुरचंद के समय तराई भावर प्रांत बहुत आबाद था। दरअसल नौ लाख रुपये उस समय मालगुजारी में वसूल होते थे, ऐसा अंगरेज लेखक भी मानते हैं।
सन् १६३६ में काशीनाथ अधिकारी ने काशीपुर बसाया। १६५१-५२ में कठेड़ियों ने तराई के गाँव दबाये। १६५४ में राजा बानबहादुरचंद दिल्ली में शाहजहाँ के यहाँ गये। १६५४-५५ में वह गढ़वाल की लड़ाई में भेजे गये। बहादुरी दिखाने से बहादुर का तथा महाराजाधिराज का पद पाया। चौरासी माल की सनद मिली। पर फरमानों में वह तराई के जमींदार कहे गये हैं, यद्यपि कुमाऊँ के राजा कहे जाते थे। उस समय बड़े-बड़े राजा-महाराजा जमींदार कहे जाते थे। राजा बाजबहादुरचंद ने रुस्तमखाँ (जिसने मुरादाबाद बसाया) की सहायता से कठेड़ियो को तराई से हटाकर अपना अधिकार जमाया, और बाजपुर नामक नगर भी बसाया, जो अब तक विद्यमान है। बाद को वहाँ अस्पताल बनने से वह शफाखाना भी कहा जाता है। बाज़बहादुर के समय तराई भावर के शासक जाड़ों में रुद्रपुर व बाजपुर में और गर्मियों में कोटा व बाढ़ाखेड़ी में चले आते थे। पर बड़े शासक की राजधानी कोटा में थी। पुलिस का प्रबंध हेड़ी व मेवाती लोगों के हाथ था। ये मुस्लमान थे। राजपूताना से आये थे। (मेवाती वर्तमान मेवों के वंशज होंगे, जिन्होंने सन् १९३४ में अलवर में गदर मचाया था।) राजा उद्योतचंद ने तराई में ठोर-ठौर पर आमों के बगीचे लगवाये। वह वहाँ बहुत दिलचस्पी लेते थे। राजा जगतचंद के समय भी आमदनी नौ लाख थी।
राजा देवीचंद ने १७२३ में कोटे में देवीपुरा नगर बसाया। यहाँ महल भी बनवाया। इसके बाद कुमाऊँ में गैड़ा गदी व जोशी गर्दियाँ प्रारंभ हुई, जिससे देश बरबाद हुआ। १७३१ में अवध के नवाब मंसूर अलीखाँ ने सरबना व बिलारी परगनों पर अपना अधिकार कर लिया। सरबना अब पीलीभीत है। शिवदेव जोशीजी भावर के लाट बनाये गये। पं० रामदत्त अधिकारी कोटा भाबर के लाट हुए। रोहिलो ने १७४३ में कुमाऊँ व भावर में ७ माह तक कब्जा किया। तीन लाख राजा से दंड में लिये, मंदिरों व मनुस्यों को लूटकर चले गये। दूसरी बार सन् १७४५ में फिर आये, पर बाड़ाखेड़ा के किले के पास राजीबखाँ रोहिला नेता को शिवदेवजी ने मार भगाया। राजा कल्यायचंद शिवदेवजी को लेकर दिल्ली के बादशाह के पास गये, जिस पर फिर तराई भावर की बहाली की सनद मिली।
अवध के नवाब सफदरजंग ने फिर सरबना इलाका छीन लिया। तेजू गौड़ चकलेदार से लड़ाई में घायल होकर शिवदेव जोशीजी एक साल तक बंगला (फैजाबाद) में कैद रहे। राजा कल्याणचंद ने बादशाह को लिखा, तब शिवदेवजी छूटे और उन्होंने तराई में रुद्रपुर व काशीपुर में किले बनवाये। सब जगह शासक नियुक्त किये । सरबना, बिलारी व धनेर प्रान्त बड़वायक (थांडू) खानदान को जमींदारी में दिये गये । तल्ला देश भावर लूलों को दिया गया।

राजा दीपचंद के समय में भी तराई में खूब आबादी थी। सन् १७७७ में राजा दीपचंद मारे गये। राजा मोहनचंद ने काशीपुर के लाट नंदराम से संधि की। तराई में उसका अधिकार हो गया। नंदराम ने नवाब अवध से मित्रता कर, तराई का मालिक उनको बना, कुमाऊँ के छत्र को ठुकरा दिया। सन् १८०२ तक नंदराम के भतीजे तराई के अधिकार में थे। बाद को अँगरेजों ने इस पर कब्जा कर लिया। भावरी इलाका सदेव कुमय्यों के अधीन रहा।
अँगरेजी राज्य कायम होने पर चंदों के खानदानवालों को गद्दी न मिली। पश्चात् उन्होंने यह दावा किया कि तराई-भावर चंदों की खानदानी जमींदारी याने उनकी निजी सम्पत्ति है। सरकार ने इस बात को भी न माना। राजा लालसिंह के खानदान को १७ गाँव चांचट में मिले थे, और उनकी कुछ जमींदारी रुद्रपुर व किलपुरी इलाके में थी, पर उनका प्रबंध ठीक न होने वा मालगुजारी अदा न होने से सरकार ने उनको इलाका बदल लेने का हुक्मा दे दिया। गोरखों ने तराई भावर में ज्यादा शासन नहीं किया। यद्यपि भावर में उनका अधिकार था, पर तराई में उनका अधिकार न रहा।
अंगरेजों के अधिकार में आने पर तराई भावर का पका-पका प्रबंध किया गया। भावर का जीर्णोद्धार तो रामजी साहब ने किया। प्रायः सब नहरें, सड़क व नगर उन्हीं के समय में बने। भावर का कुल प्रबंध उनके हाथ में था। अपने निजी बगीचे की तरह वह इसका प्रबंध करते थे। आमदनी-खर्च हिसाब कुल कहा जाता था कि उनके अपने हाथ में था, अलग कुछ नहीं था। जो बचत देखी, वह खज़ाने में जमा कर दी। जो मन में आया, खर्च किया। पुलिस, जंगलात, सफाई, शिक्षा, नहर, काष, सब उनके अधीन था। बिना उनके पूछे कुछ काम न होता था, साल में तीन-चार महीने वह भावर में रहते थे।
तराई का प्रबंध सबसे पहले श्रीमैकडानल साहब ने, जो वहाँ के पहले सुपरिन्टेन्डेन्ट थे, किया। उनको भी पूरे-पूरे अधिकार थे। वह रामजी साइब के भांजे बताये जाते हैं। बाद को रामजी साहब का उनसे झगड़ा हो गया। मैकडालन साहब का नाम अब भी तराई में आदर से लिया जाता है। काश्तकारों, विशेषकर थारुओं, बोक्सों से वह बड़ी सहानुभूति रखते थे।
नहर के पहले इंजीनियर श्री ट्रेल थे। उस समय तराई प्रान्त बरेली में शामिल था। तराई भावर के पहले इंजीनियर श्रीडबल्यू० क्रोसवेल थे।
चंदों के समय यह एक जिला था, जो कभी मध्यदेश माल या 'मठै की माल' कहलाता था।
अंगरेजों के समय भी एक बार तराई जिला अलग रहा, पर नैनीताल जिला सन् १८९१ में बनने से तराई उस जिले का एक परगना या सबडिवीजन हो गया।
पहले तराई के पूर्वीय परगने खटोमा, बिलारी आदि पीलीभीत में शामिल थे, मध्य के परगने किछहा, किलपुरी बरेली में शामिल थे, पश्चिम के परगने काशीपुर, जसपुर आदि मुरादाबाद के अन्तर्गत थे।
१८३१ तक अँगरेजों ने इस भाग पर ज्यादा ध्यान न दिया। १८३१ बोल्डरसन ने बंदोबस्त किया। तब से इसकी आबादी पर ध्यान दिया जाने लगा। सन् १८५१ में कप्तान जोन्स ने यहाँ नहर-संबंधी सुधार किये। सन १८६१ में तराई जिला बनाया गया। बाद को सन् १८७० में यह प्रान्त कुमाऊँ के भीतर शामिल किया गया।
३६. पैंठ (बाजारें)
भावर में कई ठौरों में बाजार या पैंठ लगती हैं । यथा-
भावर में
स्थान बार
हल्द्वानी मंगल
चोरगल्या शुक्र
रामनगर शुक्र व बुध
कालाढूगी शुक्रवार
बैल पड़ाव बृहस्पति
आँवलाकोट शनिवार
तराई में
स्थान बार
किछहा सोमवार व शुक्र
बढ़ा रविवार व बुध
दरावो बुध
चकोटी मंगल
बाढ़ाखेड़ा रविवार
सकेनियाँ बुध
शफ़ाखाना सोमवार
सुल्तानपुर बुध
सितारगंज इतवार व बृहस्पति
नानकमता सोमवार व शुक्र
हल्दुवा मंगल व शुक्र
विजटी बुध व शनि
खटीमा मंगल व शुक्र
मझौला सोमवार व बृहस्पति
काशीपुर मंगल वशनिश्चर
रायपुर कोटारी शनिवार
मेवाखेड़ा रविवार
भावरा बृहस्पति
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
0 टिप्पणियाँ