बाकर - कुमाऊँनी कविता

कुमाऊँनी कविता-पर्यटक कू कब्मै देव नि जानो, उकू तो बाकर जै मानो Kumauni Kavita, Tourist in Uttarakhand should not be looted

बाकर

(रचनाकार: उमेश चंद्र त्रिपाठी "काका गुमनाम")

नमस्कार दगड़ियो लियो प्रस्तुत छू आजैकि कविता " बाकर"

पहाड़ पन मौसम ठीक हरौ,
तलि गर्मी हरै घनघोर।
सैलानी पहाड़ हूँ ऊंण भगईं,
मचिगे लूट हर ओर।

मचिगे लूट हर ओर,
टैक्सिक किराय मनमानी।
खांड़ पिंणांक मुखछुटी दाम,
तिगुणं दाम में मिलणों पानी।

कह काका गुमनाम,
पर्यटक कू कब्मै देव नि जानो।
कर लियो उंकू मिलबेर हलाल,
उकू तो बाकर जै मानो।

जै जै हमार पहाड़! जै जै उत्तरांचल!
उमेश त्रिपाठी (काका गुमनाम) द्वारा रचित एंव प्रसारित
उमेश चंद्र त्रिपाठी "काका गुमनाम" 08-06-2019
श्री उमेश चंद्र त्रिपाठी "काका गुमनाम" जी की फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पोस्ट से साभार

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