
-:भागी धन शाबैसि:-
रचनाकार: अरुण प्रभा पंत
आ बैठ बगल में भागी आब
हाय के भौ? तस आज किलै
समझ गेयूं मैं तुकं धना आज
तेरि हस्ती आज है पैल्ली कां
जाणि मैंल सांचि कुणयुं आब
जब म्यार तणिन बै न्हैंगो तराण
क्वे न्हां दगाड़ आब सिवाय त्यार
जै लिजि तु उज्याण चायनै मैंल
कभै तेरि बुति धाणि निसमझ्यूं
निसमझ्यूं मैं त्यार बूंद बूंद श्रम
त्यार तार तार कै रिश्तन कं जोड़न
हर बखत भोलाक सोच बिचार में
राय रत्तिकै करि संचय निसमझ्यूं
आपणै में रयूं त्यार हाथ खुटपीड़
त्यार चुप्प कं समझौ त्योर संतोष
ठीकै हुनैलि भागी तू सोचि भै मैंल
जब सब लागीं आपण आपण ठौर
यौ कौल जौ चिता मैल तबै तु भैछै
ठाड़ सामुणि लै "के छु, के भौ, के हौ,"
चहा बणै ल्यूं कस चितूणौं छा हो
,मैं ठीकै भयूं तुकं नि दि सक्यूं संच
जैक छी तु हकदार आय लै छु टैम
मिल बेर करुंल सब आपण काम
नतु नानि नमैं ठुल भयां हम बरोबरि
मौलिक
अरुण प्रभा पंत, 08-03-2021
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