मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- हिसाऊ, क़िलमोड और करूँझ

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-हिसाऊ, क़िलमोड़ और करूँझ का किस्सा-Kumauni kissa, Memoir about about some Himalayan Berries

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- ''हिसाऊ, क़िलमोड और करूँझ"

लेखक: प्रकाश उप्रेती

आज बात हिसाऊ, क़िलमोड और करूँझ की। ये हैं, कांटेदार झाड़ियों में उगने वाले पहाड़ी फल। इनके बिना बचपन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। देश के अन्य राज्यों में ये होते भी हैं या नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है। बचपन में कभी बाजार से खरीदा हुआ कोई फल खाया हो ऐसा याद नहीं। दिल्ली वाले रिश्तेदार मिठाई, चने और मिश्री लाते थे तो पहाड़ में रहने वाले एक बिस्किट का पैकेट, सब्जी, दूध, दही, छाँछ, उनके घर में लगी ककड़ी, गठेरी, दाल, बड़ी, घर से बनाकर पूरी और चार टॉफी में से जो हो, वो लाते थे। आता इन्हीं में से कुछ था। कभी- कभी एक सेठ बुआ जी केले जरूर ले आती थीं।

तब यही अपने फल थे। करूँझ तोड़ते हुए तो अक्सर हाथों पर कांटे चुभ जाते थे लेकिन जान हथेली पर लेकर तोड़ते जरूर थे। तोड़ने को लेकर लड़ाई भी खूब होती थी। पहले मैंने देखे, इस पर ज्यादा हो रहे हैं, इस पेड़ के ज्यादा मीठे हैं, इन्हीं बातों को लेकर झगड़ा होता था। करूँझ के कांटे तो भयंकर चुभते थे लेकिन हिसाऊ और क़िलमोड के कांटे चुभने के बजाय 'चिरोड़' देते थे। कांटे चुभने पर हम, कांटे से ही कांटा निकाल लेते थे...

बचपन में ईजा के साथ घास-लकड़ी लेने जाते थे तो वह खुद एक किलमोड की टहनी काटकर देते हुए कहती थीं- "ले खा अब... उन्हें झन जाए नतर भ्यो (पहाड़) घुरि रहले"। ईजा घास काटने लग जाती थीं लेकिन हमारी नीयत इन्हीं में डोली रहती थी। हमारा ध्यान घास-लकड़ी पर कम करूँझ और क़िलमोड पर ज्यादा रहता था। ईजा भी बीच-बीच में टोकती रहती थीं। धमकी देती थीं- "भो बे नि ल्यूंल तिकें"। इस धमकी के बाद ईजा के आस-पास से थोड़ा अच्छी-अच्छी घास काटते और साथ में घर आ जाते थे।

घस्यारियों की घास की दास्तान इनके बिना अधूरी ही रहती थी।  घास लेने जाओ और करूँझ, क़िलमोड, हिसाऊ न खाओ ऐसा हो नहीं सकता था। ईजा कई बार हमको अकेले भी घा (घास) काटने भेज देती थीं।  हमारी अपनी-अपनी छोटी दाथुल (दरांती) होती थी।  बचपन से ही ईजा ने बताया था कि घास काटने के लिए अपना ही दाथुल प्रयोग करना चाहिए।  अगर दूसरे का करोगे तो हाथ कट जाएगा।  यह बात हमेशा दिमाग में रहती थी।  ईजा ने एक छोटी दाथुल जिस के पीछे छोटी सी घंटी होती थी मेरे लिए बनवाई । वही लेकर घास काटने चल देता था।  जब हम भ्यो जाते तो घर से ईजा की नज़र हम पर रहती थी। ईजा बीच- बीच में आवाज लगाकर कहती थीं- "हिसाऊक बुज पने झन बैठि रहे हां"।  हम हो...हो कहते लेकिन फिर 'हिसाऊक बुजपन'  बैठकर हिसाऊ खाने लगते थे।

गर्मी के दिन की भरी दुपहरी में जब सब लोग सोए रहते थे तो हम 'हिसाऊ टीपने' चले जाते थे। हमारे 'गढ्यर' में हिसाऊ की बहुत झाड़ियाँ थीं। पानी लेने के बहाने जाते और फिर गिलास या लोटे में हिसाऊ भर लाते थे। कभी-कभी भरी दुपहरी में गढ्यर जाने के कारण ईजा गुस्सा भी होती थीं लेकिन हिसाऊ का स्वाद उनका गुस्सा शांत कर देता था।  हिसाऊ जो टीप कर लाते थे वो ईजा को देते फिर ईजा थोड़ा-थोड़ा सबको बांट देती थीं।

करूँझ तो सबसे ज्यादा स्कूल आते-जाते हुए खाते थे।  स्कूल जाते हुए पैंट की जेब में भी करूँझ भर लेते थे। करूँझ और क़िलमोड से होंठ काले हो जाते और पैंट पर भी काला सा दाग लग जाता था।  तब आज की तरह 'दाग अच्छे नहीं थे'। दाग लगने के कारण इस्कूल में मासाब और घर में ईजा के हाथों पिटाई होती थी।

हिसाऊ, क़िलमोड, करूँझ आज भी अपनी जगह पर हैं।  ईजा कहती हैं कि 'अब पकते हैं और झड़ जाते हैं, कोई खाने वाला नहीं है।  'च्यला अब पैली जस बात नि रैगे।  आज भी जो हिसाऊ, क़िलमोड, करूँझ ईजा की दुनिया में हैं वह अपनी बस स्मृतियों में है... समझना मुश्किल है कि कौन आगे चला गया और कौन पीछे छूट गया है...

नोट- किलमोड का वैज्ञानिक नाम Barberis Aristata है। इसको Indian Barberry या Tree Turmeric भी कहा जाता है। जड़ और तना पीला होने के कारण Tree Turmeric कहते हैं। इसी परिवार का एक फल, Oregon Grapes नॉर्थ अमेरिका के देश Oregon का 'राष्ट्रीय फल' भी है।

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-17

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