श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में सातूं अध्याय (श्लोक सं. ०१-१०)

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवद्गीता अर्थानुवाद् सातूं अध्याय (श्लोक सं. ०१  बटि १० तक) Kumauni interpretation of ShrimadBhagvatGita Adhyay-07 part-01

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

सातूं अध्याय (श्लोक सं. ०१ बटि १० तक)

श्रीभगवानुवाच-
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छ्र्णु।।१।।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोक्षऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।२।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- हे पृथापुत्र! आब् यौ सुणौ कि तुम कसिक् मेरि भावना है पूर् और मी में अपंण मन कैं आसक्त करते हुए मि कैं पूर्णरूपैल् ज्याणि सकंछा। आब मैं तुमूंकैं ऊ व्यवहारिक दिव्यज्ञान कैं बतूंनयू, यकैं ज्याणणक् बाद तुमूंकैं और ज्याणणैकि जर्वत् नि रौवौ।
(अर्थात् भगवान् ज्यु क् वचनू कैं ध्यान लगे बेर् मनन करंण पार् भौत्तै जल्दि यौ बात समज में ऐ सकीं कि हमर् ल्हिजी उपयोगी और अनुपयोगी क्ये छू। तर्क, वितर्क और कुतर्क त् अज्ञानियोंक् काम छू। श्रीमद्भगवद्गीता श्रीभगवान् ज्यु कि प्रतिनिधि रूप हमरि पास छू, यैक् शनैः-शनैः अनुसरण करंण हमर् कर्तव्य है जावो त् सबन् है पैली यस् मनखि समाज में प्रतिष्ठित हूँ ( जो कि हम द्यखनूं लै कि सत्यवादी/सदाचारी मनखि कैं समाज इज्जत द्यूं और वीकि बात कैं सब्बै सुणनी लै )और वीक् ल्हिजी भगवान् ज्यु क् पास जणक् मार्ग लै प्रशस्त होते जां, यौ बात अलग छू कि यौ सब धीरे-धीरे हूँ पर हुंछ जरूर)
हिन्दी= श्रीभगवान् ने कहा- हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करते हुए मुझे पूर्णतया जान सकते हो। अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यवहारिक दिव्यज्ञान को कहूँगा । इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिये और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
तथापि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः।।३।।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।४।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- कत्तू हजार मनखियों में क्वे एक मनखि सिद्धि प्राप्त करणाक् ल्हिजी प्रयास करूँ और सिद्धि प्राप्त करी वलां में लै क्वे विरला ई मिकैं सच्ची में समजि सकौं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यौं आठ प्रकारैकि मेरि भिन्ना (अपरा) प्रकृति छन्।
(अर्थात्- हजारों तपस्वियों में क्वे एक मेरि सिद्धि कैं प्राप्त करौं और उनूं में लै क्वे विरला ई मिकैं समजि सकौं यानि कि सिद्धि प्राप्त करंण वाल् त् मनखि भय, इन्द्रादिक द्याप्त लै भगवान् ज्यु कैं भौत् मुश्किलैल् ज्याणि सकनीं । फिरि भगवान् ज्यु अपणि उपरोक्त आठ अपरा प्रकृति बतूनयी। विद्वान लोग बातूनी कि भगवान् विष्णु क् तीन अलग-अलग रूप छन्। पैलि एक महाविष्णु छन् जो सम्पूर्ण महतत्व (शक्ति) कैं उत्पन्न करनीं, दुहर गर्भोदकशायी विष्णु छन् जो समस्त ब्रह्माण्डों में विविधता उत्पन्न करनीं और तिहर विष्णु क्षीरोदकशायी छन् जो सब्बै ब्रह्माण्डों में सर्वव्यापी छन् और उनूंकैं ई परमात्मा कयी जां जो भगवान् ज्यु क् इन तीनों रूपूं कैं ज्याणि जांछ ऊ भवबन्धन है मुक्त है जां।)
हिन्दी= कई हजार मनुष्यों में कोई एक सिद्धि के लिये प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों मे से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार- ये आठ प्रकार से मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियां हैं।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो येयेदं धार्यते जगत्।।५।।
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभावः प्रलयस्तथा।।६।।

कुमाऊँनी:
हे अर्जुन! यौं आठ अपरा प्रकृतियों है अलावा मेरि एक परा शक्ति लै छू। जो उन सब्बै जीवन् कैं चेतन करीं जो अपरा (जड़) प्रकृतिक् साधनुंक विदोहन करनई। सब्बै प्राणियूंक् उद्गम यौं ई द्वी शक्तियों में निहित छू। यानि कि यौ संसार में भौतिक या आध्यात्मिक जो लै छू वीकि उत्पत्ति या विनाश मीं ई में समजो।
(अर्थात्- भगवान् ज्यु क् अनुसार आठ अपरा प्रकृति जो छीं ऊं जड़ रूप में छीं, और परा शक्ति जो छु ऊ चेतन छू, परा शक्ति द्वारा ई सब जीव चेतना प्राप्त करनीं, भगवान् ज्यु कि माया जीव कैं भ्रमित करीं , और तब मनखि विवेक छोड़ि बुद्धि द्वारा यौ प्राकृतिक साधनुंक् विदोहन करूँ । जो बुद्धि कैं विवेक द्वारा संतुलित करि राखनीं ऊं सन्मार्ग पार् चलनीं और जो विवेक रूपी लगाम कैं ढिलि करि द्यिनीं ऊं कुमार्ग पार् न्है जनीं , यैकै ल्हिजी योगाभ्यास करंण पडूं और योगाभ्यास क् ल्हिजी संन्यासी ई बणूंण छू यौ लै जरूरी न्हैं, गृहस्थ जीवन जीते हुए लै यौ काम भल् प्रकारैल् है सकूँ बस ध्यान में रूंण चैं कि यौ संसारौक् विलय या उत्पत्ति सिर्फ और सिर्फ भगवान् ज्यु ई करि सकनीं।)
हिन्दी= हे महाबाहु अर्जुन ! इनके अतिरिक्त मेरी एक परा शक्ति है जो उन जीवों जीवों को चेतन करती है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं।  सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों में है इस जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझ ही में जानो।

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।७।।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पुरुषों नृषु।। ८।।

कुमाऊँनी:
आब् भगवान् ज्यु कूंण लागि रयीं कि म्यर् अलावा संसार में क्ये और सत्य न्हैति । जसिक् अनेक मोती धाग् पार् गुंथी हुंनी वी प्रकारैल् सब कुछ मी पारि आश्रित छूं। मी पाणिक् स्वाद् छू, सूरज और जूनोक् उज्याव छूं , वेद मन्त्रूं में ओंकार छूं, अगास में ध्वनि और मनखि में सामर्थ्य लै मैं ई छूं।
( भगवान् ज्युक् कूंणक् मल्लब यौ छू कि यौ जगत् म्यर् अधार पारि टिकी हुई छू अर्थात् एक माव चाहे मोती, हीरा , जवाहरात क्येकि लै हौवौ वीकैं हम द्येखि सकनूं पर ऊ माव एक सूत्र (धाग) में गुंथी हुई रैं, जै पार् हमरि दृष्टि नि जानि, जबकि तौ सूत्र नि हुंन त् माव एकजुट कसिक् हुंनी। वी प्रकारैल् भगवान् ज्यु क् हुंण पारि हमर् अस्तित्व छू। भगवान् ज्यु आघिल् कूनीं कि पाणि में जो स्वाद् छू ऊ लै मैं ई छूं, सूरज और जूनोक् उज्याव लै मिकंणी समजो , ओर मन्त्रूं में जो ओंकार शब्द छू ऊ लै मैं ई छूं, और अगास में ध्वनि रूप तथा मनखि कि सामर्थ्य लै मिकंणी ज्याणो।)
हिन्दी= हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुंथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है। हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि तथा मनुष्य में सामर्थ्य मी मैं ही हूँ।

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसो।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।९।।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तजस्विनामहम्।।१०।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- मैं ई धरतिकि सुगन्ध और आगैकि उष्मा (ताप) छूं। मैं ई सब्बै जीवोंक् परांण और तपस्वियों क् तप छूं। हे पृथापुत्र! तुम यौ ज्याणि लियो कि मैं ई सब्बै जीवों क् आदि बीज छूं। बुद्धिमान लोगों कि बुद्धि और तेजवान् लोगों क् तेज लै मैं ई छूं ।
( अर्थात् यौ संसार में जो देख्यण, सुणण, और करंण योग्य सुकृत छू, ऊ सब्बै भगवान् ज्यु में निहित छू या भगवान् ज्यु द्वारा संचालित छू ।
और भगवान् ज्यु क् कूंण छु कि मैं हरेक जीवधारिक् ल्हिजी हर प्रकारैल् सहायता करंण वास्ते लै तैयार रूंनू फिरि लै जो मनखि दुर्बुद्धिक् वश में ऐ बेर् गलत काम करनीं तो उनार् ल्हिजी दण्ड व्यवस्था लै छु , यस् लोग जन्म-जन्मांतर यौ ई लोक में पापाचार करते हुए भटकते रूंनी।)
हिन्दी= मैं ही पृथ्वी की आद्य सुगन्ध और अग्नि की ऊष्मा हूँ । मैं ही समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ । हे पृथापुत्र! तुम यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वियों का तेज भी मैं ही हूँ।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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