
😛"घरवाई"😝
रचनाकार: कैलाश सिंह 'चिलवाल'
मेरि 'रधुली इज' कै समर्पित
मेरि कविता "घरवाई"
घरवाई तो घरवाई भै
'अर्द्धागिंनी'- आदू अंग भै
सिधिसाधि मिलि गेई 'सरस्वति'
नतर 'दुर्गा' प्रचंड भै ।
ब्या है पैली 'इच्छा'
ब्या बाद 'मजबूरी' भै
सुलक्षणी भै तो 'मस्त'
वरना, हालत खस्त भै।
प्यार में हंसण वीक
रीस में रिसाण भै
'मैतिया 'लिजी गोर्
सौरासिया लिजी साड़ भै।
नाचड़ में 'माधुरी'
कुटड़ में 'गीता फोगाट' भै
मन् की 'नौड़ि 'जसि
तन् की 'लोहाललाट' भै।
(पै बिन स्यैंणी जीवन चलूण लै मुश्किल हूं)
बिन श्रंगारै बान का
बिन मूछों ज्वान का
बिन राजै दरबार का
बिन घरवाई घरबार का ---??
(दुद्याव गोरु 'क लात लै भलि)
सोचि सोचि हर मैंस
घरवाईक नौ जपते रु
नखार वीक सै सै बेर
बल्द'कि चारी खपते रू।
कैलाश सिंह' चिलवाल'। 18-07-2020

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