बातें पहाड़ की - सराद

कुमाऊँनी-जन-जीवन, रीति-रिवाज, सराद (श्राद्ध), Pitra Paksh ya shradh paksh, kumaon mein pitra-paksh, shardh karm

बातें पहाड़ की - सराद (श्राद्ध)

लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'

पहले श्राद्ध का गांव में विशेष इन्तजार रहता था, सोलह सरादों मेॆ सभी घरों में सराद होता है और गांव में लगभग हर घर में एक समान भोजन बनता है।  चातुर्मास का समय हो तो गांव घरों में साग सब्जी आदि प्रचुर मात्रा में होता है तो घर की चीजों की सब्जी वगैरह बनती है।  लोग अपने पितरों का श्राद्ध उनकी तिथि को ही करते हैं पर किसी के मां पिताजी दोनो गुजर गये होॆ तो वो फिर अष्टमी-नवमी तिथि को श्राद्ध करते हैं।  अष्टमी को पिताजी का, नवमी को माता का   श्राद्ध के बारे में अनेक लोग अपने विचार देते  हैं।  पर मेरा मानना है कि ये हमारे पित्रों को याद करने का एक माध्यम है, उनके निमित्त भोजन बनाकर जब हम स्वयं उसको ग्रहण करते हैं तो वो पित्र प्रसाद कहलाता है।  आप किसी भी प्रकार बनाओ या कुछ भी बनाओ वो जब प्रसाद का रूप ले ले तो स्वाद तो हो ही जाता है।
 
वैसे तो श्राद्धों में बामण व्यस्त हो जाते हैं और अष्टमी नवमी को तो मिलने भी मुश्किल फिर भी मैने देखा है कि कुछ आगे पीछे करके समय निकाल सभी के यहां कर ही देते हैं।  हमारे गांव में हरीश जोशी जी जिन्हें ठुल हरदा कहा जाता था नियत समय पर पहुंच कर सारी तैयारियां कर देते थे।  हरदा को ठुल हरदा इसलिए कहते थे कि उनके एक ममेरे भाई भी हरदा हैं जिन्हें हम हरदा उप्रेती कहते हैं।  ये हमारे सारे  कुल पुरोहित हुए, गांव के कुछ परिवारों के एक अन्य जोशी जी भी पुरोहित हैं।
 
ठुल हरदा जब आते थे हम बच्चे कौतूहलवश उनके पास बैठकर उनकी कलाकारी देखने लग जाते।  ठुल हरदा आते ही कहते जा भुली तिमुला पात लि आ गाज्यो क सिणुक लि आ।  हम तुरन्त भागकर ले आते, तब हरदा तिमूल के पत्तों को गाज्यों के सिणुक से गंछाकर विभिन्न प्रकार के  पूडे (दोने) तैयार कर लेते।   फिर कुशा मगाते और कुशा से पवित्री बगैरह बना कर तैयार कर देते, दो चार बडे बडे पत्तों से थाली जैसी बना देते।  तिमूल के पत्तो से तैयार इन्ही चीजों से श्राद्ध सम्पन्न होता था।  साथ ही हरदा एक पूडे  में तिल एक में जौं एक में चावल, एक में तुलसी के पत्ते, एक में आवले के पत्ते, एक पूडे में चन्दन और कुशा के तिनके पवित्री वगैरह करीने से लगाकर रख देते।  

ठुल हरदा मन्त्र नही पढ पाते थे और श्राद्ध कराने नान् हरदा या कोई और आता या गांव का कोई विरादर भी करा देता।  ठुल हरदा मन्त्र पढना या बोलना नही जानते थे पर उनकी एक खास बात थी कि कोई भी कर्मकाण्ड हो उसकी सामग्री लगाना और मन्त्र पढने वाले बामण के साथ सार पतार में माहिर थे।  कभी कोई अनाडी पंडित टकरा गया और कुछ आगे पीछे कर गया तो हरदा तुरन्त सही करवा देते।  कभी किसी ने शार्टकट मारने की कोशिस की तो तब भी ठुल हरदा टोक देते और हरदा टोकते भी इस अंदाज में थे कि सामने वाले पंडित को बात चुभे नही, भुली पन्न पलटी गो कि या भुली पैली यस हूंछी क्याप।  कई बार तो मैने बडे बडे कर्मकाण्डी ब्राह्मणो को ठुल हरदा से सलाह लेते भी देखा है।

इधर हरदा तैयारी करते तो अन्दर सराद के लिए भोजन तैयार हो रहा होता था।  एक तांबे की तौली में जमाई का भात पक रहा होता और भात की महक भूक बढाने का काम कर रही होती।  एक भड्डू में मास, चना, सुट राजमा, रैंस की मिक्स खडी दाल पक रही होती, उपर स्वाड  की लुटिया में पानी गरम हो रहा होता था।  एक बडे से जाम में टपकिया साग बनता था, पिनालू के नौले, गदुवे के टूके और फुल्यूड, फ्रासबीन और सुट की फलियां, मीठे करेले, गीठी (गेठी), तुरई आदि का टपकिया उसमें आलण डाला जाता उसके साथ जमाई का भात क्या ही स्वाद होता।

खजिया के चावलों की लसपसी खीर, दाडिम, भांग, पुदीने की खटाई, दाडिम न होने पर काले चूख को मिलाकर खटाई बनती।  करडी (पीले) ककडी का राई वाला रायता, उडद की दाल का सिल पिसा हुवा बिलकुल करारा कुरकुरा बड़ा बनता।   बड़ा इतना कुरकुरा होता कि थाली में डालने पर टन्न की आवाज आती,   कुछ पूडिया भी बनती।  खाने की थाली में थोडा दही भी मिलता था, मूली का सलाद होता, तब बरतन कम पडने पर केले के पत्तों मे भी परोसा जाता था।
  
इधर पंडित जी त्रिबद्धम त्रिबद्धम करा रहे होते कभी जनेऊ सब्य अपसब्य या मालाकार कराते, हाथ में जौ तिल कुशा देकर पितरों के नाम का सकल्प करा रहे होते और हमारे नाक में रसोई से आ रही महक हमें बेचेन कर रही होती और हम ठुल हरदा से पूछते कि आजि कतु देर छ।  ठुळ हरदा हमारी मंसा समझकर आखें मिचकाकर कहते हैगो, थ्वाड रैगो पर ये हैगो थ्वाड रैगो बहुत लम्बा होता।  गाय और कौवे का निकालने के बाद जब भोजन का नम्बर आता तो लगता कि सब मुझे ही मिल जाता।  थाली में कहां से शुरु करूं हो जाती, जो चखो वही स्वादिस्ट, पेट भर जाता पर मन और आखें न अघाती थी।  भात खाकर जो फौस्यैन लगती उसका भी अलग ही आनन्द था।

सराद के बाद केले में पत्तों में भोजन परोसकर एक परात में रखकर मोहल्ले के बच्चों के लिए जरूर भेजा जाता था।  जिस दिन किसी के घर सराद होता तो हम भी आशा लगे रहते कि भात आएगा, केले के पत्तों में लगभग उपरोक्त व्यंजन ही होते लेकिन वो हमारे घर आने तक मिक्स हो जाते बस उसमें से बडे का टुकडा, पूरी का टुकडा और खीर खाकर बाकी रैत खटाई दाल साग भात ओलकर बहिन भाई साथ ही खाने लग जाते।  हां खीर के गास, बडे के टुकडे के लिए अक्सर भै बैणियों में काटा-काट भी हो जाती और ईजा बाबू तक घात भी कही जाती, ओ ई यैल बड एकलै खै है, खीर बाकि खैहै मेके कम दे, वगैरह। 

आज दुनिया भर का खाना खा लिया, तरह तरह के पकवान खा लिये पर वो सराद की थाली ..!!! 
अब क्या लिखा जाय ..  अनोखा ही स्वाद होता था।

विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 23-09-2021
M-9411371839
विनोद पंत 'खन्तोली' जी के  फ़ेसबुक वॉल से साभार
फोटो-ठाकुर सिंह

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