
बातें पहाड़ की - नौर्त (नवरात्री)
लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'
सरादों के बाद नवरात्र शुरु हो जाते हैं। इन दिनो असोज का काम यानि फसल समेटने का काम कुछ कम हो जाता है, लोग उत्सव के मूड में आ जाते हैं। नई फसल भी हुई रहती है और नवरात्र के बहाने अपने ईष्टदेव को ये फसल पानी फल फूल अर्पण भी कर लेते हैं। क्या ही रौनक हो जाती है इन दिनो पहाड के देवी देवताओ के मन्दिर बडे ही सुरम्य स्थानो पर बने हैं। कही पर पर्वत की चोटी में कही पर नदी यानि गधेरे के किनारे किसी जंगल में एकान्त स्थानो पर, कहीं पर घने पेडों के झुरमुट के बीच। लगभग हर स्थान जहां पर मन्दिर बना होता है वो स्थान अपने आप में अनूठा होता है और अपना कुछ न कुछ महत्व लिये होता है।
मुझे आश्चर्य हुवा कि दो तीन साल पहले हमारे इलाके में दुर्गा जी का मण्डप लगाया था बल कुछ पश्चिम बंगाल या मैदानो की तर्ज पर। आश्चर्य इसलिए हुवा कि इस समय तो हमारे यहां नौर्ते (नवरात्र ) चल रहे होते हैं तो इस आयोजन का औचित्य क्या होगा? नवरात्रो मेॆं हमारे यहां गांव के लोग अपने नजदीकी इष्ट देवता, ग्राम देवताओ के यहां नोरत बैठते हैं। मन्दिर के पुजारी और बामण के नेतृत्व में कुछ लोग मन्दिर जाते हैं और विधि विधान से पूजा अर्चना कर हरेला बोते हैं और नौ दिन तक मन्दिर में ही निवास करते हैं। सुबह, दोपहर, शाम की पूजा होती है और नोर्त बैठे लोग मन्दिर के प्रांगण में बने मन्या (धर्मशाला जैसी एक कमरा ) में रहते हैं। नौर्त बैठा व्यक्ति नौ दिन तक घर नही जाता, भले ही घर में कितना ही जरूरी काम आ जाय। मान्यता है कि नौर्त बैठे व्यक्ति को गांव में हुवा नातक सूतक भी नही लगता।
मन्दिर में ही भोजन बनाकर महाप्रसाद बनाकर ये लोग भगवान को भोग भी लगाते हैं और स्वयं भी ग्रहण करते हैं। ये लोग नौ दिन एक छाक् खाते हैं यानि एक टाइम। नौर्त बैठे लोगों के की सहायता के लिए गांव के कुछ लोग रोज मन्दिर जाकर खाना बनाने पूजा पाठ आदि में सहायता भी करते है और वापस घर आ जाते हैं। ये वो लोग हैं जिनको नोर्त बैठने का समय न हो घर में अपटन हो, रोज जाने की बाध्यता भी नही हुई। जो नौर्त बैठे होते हैॆ अपना राशन पानी ले जाते हैं और जो रोज आने जाने वाले होते हैं अपने घर से चावल, दाल, मसाले, तेल, साग-पात, लेकर चलते हैं। मतलब अपने खाने का बैकर जैसा मन्दिर जाकर सब सामग्री मिलाई जाती है जैसे नैनाग-भुकार में करते हैं और सामूहिक भोज तैयार हो जाता है। यहां पर बना हुवा भोजन क्या कहने, खाने वाला ही बता सकता है।
जब मन्दिर में नौर्त चल रहे होते हैं तब वहां ढोली भी रहते हैं जो सुबह शाम नौबत बजाते हैं। दोपहर भोग आरती और शायंकालीन आरती पर जब ढोल पर बाईस प्रकार की ताल के साथ ढोल बजते हैं तो पूरा वातावरण मानो अलोकिक हो जाता है। ढोल के साथ भुकर, मजीरे, झाझर, (ताव ), रणसिंह भी बजते हैं। यहीं पर वीर रस के बाजे के साथ पुजारी बरमो करते हैं और डंगरिये के शरीर में देवता अवतरित होने लगते हैॆ। घ्यान चम घ्यान घ्यान चम के साथ भुकर में ह्वा तु तु चु तू ..बीच जब पुजारी . हे नारायण .. परमेश्वरौ .. गुरु ग्यानी छै अन्तर्ध्यानी है रूप निरन्तर छ हो भगवान नारायण तेर कहकर बरमौ करता है। तो एक कम्पन तो साधारण आदमी के शरीर में भी छूट ही जाती है। आज के युग में कुछ लोग इस पर सवाल उठा सकते हैं पर देवभूमि की यह अनोखी चीज को सिरे से नकारा भी नही जा सकता। कुछ साक्षात घटने वाली चीजें नास्तिक आदमी को भी सोचने को विवश कर देती हैं।
किसी चोटी पर या जंगल के बीच शायंकालीन आरती पर बजने वाला ढोल जब आस पास की पहाडियों से टकराकर एक गूंज पैदा करता है और ये ध्वनि आस पास के गांवों में दूर तक सुनाई पडती है। तो सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है, मेरे गांव खन्तोली में श्री धौलीनाग मन्दिर, धपोलासेरा हरज्यू मन्दिर, काण्डा कासिण के ढोल सुनाई पडते हैं तो घर बैठे बैठे हाथ जुड जाते हैं। नवरात्र के दौरान अष्टमी या नवमी, दसमी को अलग अलग तिथियों को कुछ मन्दिरों में परम्परानुसार मेले भी लगते हैं। हमारे गांव में पंचमी को रात का मेला लगता है ज्समें बाईस हात की मशाल मुख्य आकर्षण का केन्द्र होती है (जिसके बारे में फिर कभी विस्तार से लिखूंगा वैसे पिछले साल हिन्दुस्तान समाचार पत्र के काण्डा कमस्यार पेज पर एक लेख लिख भी चुका हूं )।
अब आपको बताता हूं कि हम गांव में व्यक्तिगत तौर पर नवरात्र कैसे मनाया करते थे। नवरात्र मनाने का ये काम बच्चे ही करते थे इसमेॆ बडों की कोई भूमिका नही होती थी और पता नही जिस परम्पारा का उल्लेख में कर रहा हूं वह कुमाऊ में और कहां कहां होती है (किसी जगह हो तो बताऐ) । पहले नवरात्र के दिन हम बच्चे अपने घर के आंगन में या तुलसी के वृदावन के पास एस मन्दिर बनाते थे। जिसे कुडमाई या कुलमाई कहते थे, कुड यानि मकान की माई (देवी ) या कुल की देबी ( कुलमाई )। मन्दिर बनाकर उसमें एक पत्थर रखकर कुलदेवी स्थापित करते थे। अक्सर परिवार के हिसाब से ये अन्यारि देबी और उज्याई देबी में एक होती थी।
अपने वंश परम्परानुसार इसके अन्दर एक कटोरी में हरेला भी बोया जाता था। रोज शाम को हम बच्चे ही इसके अन्दर दिया जलाकर आरती भी करते थे और एक मिनी धूनी भी जलाते थे। गांव के बडे मन्दिर की तर्ज पर शंख से भुकर की आवाज भी निकाला करते थे। दसमी के दिन एक ककडी गाज्यो के तिनकों से पैर सींग पूंछ बनाकर बकरी का आकार देकर बलि भी कुछ बच्चे लोग ग देते थे। ये भी अपने परिवार की देवी के अनुसार था, कुछ में ये नही हेता था।
मुझे तो बडा शौक था ये कुडमाई का मन्दिर बनाने का. पन्द्रह बीस दिन पहले थे छोटे छोटे पत्थर जमा करता था। जंगल से माटखाणि से चिकनी मिट्टी लाता था जिसे हरे पिरूल को काटकर मिलाकर गारा बनाता और मन्दिर तैयार कपता बकायदा गुम्बद भी कमेट से उछीटता भी था। हरेला काटने के बाद पत्थर की मूर्ति विसर्जित करते थे (किसी काटेदार झाडी में) और मन्दिर हटा दिया जाता और इन्तजार करने लग जाते अगले नौरतोॆ का।
विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 08-10-2021
M-9411371839
फोटो-ठाकुर सिंह
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