देवभूमि का लोकपर्व फूलदेई

देवभूमि का लोकपर्व फूलदेई,Phooldei festival of indian new year, Phooldei new year celebration in Uttarakhand

देवभूमि का लोकपर्व फूलदेई

लेखक: पं. प्रकाश जोशी

उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम जगविख्यात है। चाहे पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आंदोलन या प्रकृति का । त्योहार हरेला हो। इसी प्रकार प्रकृति के लिए प्रेम प्रकट करने का त्योहार या प्रकृति का आभार प्रकट करने का प्रसिद्ध त्योहार है फूलदेई। फूलदेई .त्योहार मुख्यतः छोटे-छोटे बच्चों द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई चैत्र मास की प्रथम तिथि को मनाया | जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। इस वर्ष २०२२ में फूलदेई 14 मार्च, सोमवार को मनायी जायेगी।
देवभूमि उत्तराखंड का महत्वपूर्ण त्यौहार फूलदेई बच्चों का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है। बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं। बच्चे ही भगवान का रूप होते हैं। जहां बच्चे खुश हैं तो. समझो भगवान खुश हैं। भगवान खुश हैं तो समझो संपूर्ण प्रकृति खुश है। जहां प्रकृति खुश है तो समझो संपूर्ण ब्रहमांड-खुश है। इसीलिए क्यों न इस पारंपरिक त्यौहार को और अधिक हर्षोल्लास से मनाएं। आज' समय अवश्य बदल गया है, परंतु फिर भी यहां परंपरा जीवित है। मेरा उत्तराखंड के प्रत्येक व्यक्ति से विनम्र निवेदन है कि इस पारंपरिक त्यौहार को और अधिक हर्षोल्लास से मनाया जाए। इस त्यौहार में तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं, रहता है। बच्चे एक दिन पूर्व से ही फूलों को संग्रहित करने में जुट नाते हैं और बड़े उत्साहित रहते हैं। रिंगाल की टोकरी में प्योली, बुरांस, बासिंग, आइ, खुबानी, मेहल आदि अनेक प्रकार के फूलों को इकट्ठा कर फूलदेई के दिन सुबह नहा धोकर घर-घर जाकर लोगों की सुख समृद्धि के निए पारंपरिक गीत गाते हुए देहली का पूजन करते हैं। गीत निम्न प्रकार है:- फूलदेई छम्मा देई, रेणी द्वार भर भकार। ये देलिस बारंबार नमस्कार।
पुजै द्वार बारंबार, फुलै द्वार बारंबार।

अर्थात आपकी देहली फूलों से भरी और सब की रक्षा करने वाली और शमा शील हो। घर व समय सफल रहे। भंडार भरे रहें। इस देहली को बारंबार नमस्कार। गीत की पंक्तियों के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। कुमाऊं और गढवाल के ज्यादातर इलाकों में तो यह त्यौहार आठ दिनों तक मनाया जाता है। वहीं टिहरी के अधिकांश क्षेत्रों में एक माह तक यह पर्व मनाया जाता है:- घोघा माता फुल्यां फूल,
दे दे माई दाल चौल, फूल देई छम्मा देई,
देणी द्वार भरी भकार। गीत गाते हुए बच्चों को लोग -इसके बदले दाल, चावल, गुड, घी और दक्षिणा देते हैं। चावलों को धोकर सुखाने के बाद चाक (जतारा) में पीसकर इसका साई बनाते हैं। यहां बताना चाहूंगा कि जतारा ठेठ पहाड़ी शब्द है, जिसे हाथ से चलने वाली चक्की या हस्त चलित चक्की कहते हैं। साई का अभिप्राय चावल के आटे से बने हलवे से है। आधुनिक युग में तो हस्त चलित चक्की लुप्तप्राय हो चुकी है। साई का. प्रसाद बनाकर सबको बांटते हैं। जगह-जगह बच्चों की टोली इकट्ठी देख सभी का मन हर्ष से खिल उठता है। घर-घर में एक नई रौनक देखने को मिलती है। वैसे देखा जाए तो बसंत पूजन की परंपरा इटली के रोम से प्रारंभ हुई मानी जाती है। रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम फ्लोरी था। यह शब्द लैटिन भाषा के फ्लोरिस शब्द से लिया गया है।

बसंत के आगमन में वहां छह दिनों का फलोरिया महोत्सव मनाया जाता है। वहां पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जिंदा है। फ्लोरा को एक देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जिसके हाथों में फूल की टोकरी है, देवी के सिर पर फूल और पत्तों का ताज होता है। वहां जो कुछ भी हो हम उत्तराखंड वासियों को यह परंपरा जीवित रखना चाहिए। साल.दर साल इसे और अधिक बढावा देना चाहिए। इससे हमारी संस्कृति जीवित रहेगी।

दैनिक उत्तर उजाला, मार्च ०८, २०२२ से साभार

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