मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- अछ्यणाट

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- अछ्यणाट,pahad ke janjivan mein chhote chhote auzar, memoir about usefulness of a piece of log

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- "अछ्यणाट"

लेखक: प्रकाश उप्रेती

आज बात- "अछ्यणाट" की।
पहाड़ की संरचना में लकड़ी कई रूपों में उपस्थित है। वहाँ लकड़ी सिर्फ लकड़ी नहीं रहती। उसके कई रूप, नाम और प्रयोग हो जाते हैं। इसलिए जंगलों पर निर्भरता पर्यावरण के कारण नहीं बल्कि जीवन के कारण होती है। जंगल, जमीन, जल, सबका संबंध जीवन से है। जीवन, जीव और जंगलातों के बीच अन्योश्रित संबंध होता है। इन्हें अलग-अलग करके पहाड़ को नहीं समझा जा सकता। इन सबसे ही पहाड़ और वहाँ का जीवन बनता है।

आज बात उस लकड़ी की जो लकड़ी को ही 'फोड़ने' (फाड़ने) में सहारा देती थी। इसके बिना घर पर आप लकड़ी फोड़ ही नहीं सकते थे। इसका मसला वैसे ही था जैसा कबीर कहते हैं न- "अंदर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट"। ईजा तो इसे कभी 'गोठ' (घर के नीचे वाला हिस्सा) तो कभी "छन" (जहां गाय-भैंस बाँधी जाती) के अंदर संभाल कर रखती थीं। इसका काम सिर्फ लकड़ी को सहारा देने का नहीं बल्कि जरूरत पड़ने पर 'शिकार' (मटन) काटने में सहायक के तौर पर भी होता था। इसकी और "बोह्नल" (छोटी लकड़ी फाड़ने का यंत्र) की जोड़ी होती थी। आगे-आगे बोह्नल तो पीछे-पीछे ये रहता था। बीच में जो लकड़ी फोड़नी होती वो रहती थी।

इसे हम "अछ्यणाट" कहते थे। किसी भी मजबूत लकड़ी के एक छोटे हिस्से से अछ्यणाट बनाया जाता था। बनाया भी क्या जो लकड़ी का हिस्सा फूटता नहीं था, उसे अक्सर अछ्यणाट के लिए छोड़ दिया जाता है। उसके बाद उसको थोड़ा तराश कर एक आकार दे दिया जाता था। हमारे घर में "गीठी" (एक पेड़) का अछ्यणाट था। गीठी की लकड़ी को बड़ा मजबूत माना जाता था। नमक रखने वाली 'पाई' (लकड़ी का बर्तननुमा) से लेकर दही की 'ठेकी'(लकड़ी का गोल डिब्बा जैसा) तक गीठी की लकड़ी से बनते थे।

  हमारा गीठी का एक पेड़ सूख गया था। ईजा कब से उस पेड़ को काटने के लिए कह रही थीं। एक दिन भाई को "चमुक चढ़ी" (धुन लगी) और वह अकेले ही कुल्हाड़ी लेकर गीठी के पेड़ को गिराने चल दिया। तकरीबन 5-6 घण्टे की कड़ी मेहनत के बाद उसने अकेले ही उस पेड़ को नीचे गिरा दिया था। गीठी के पेड़ को काटना और उसकी लकड़ी फोड़ना सबके बस की बात भी नहीं होती थी। उसके पेड़ में कुल्हाड़ी मारो तो वो वापस मुँह की तरफ उछल कर आती थी। साथ में बहुत तेज "कट" की आवाज भी करती थी।

पहले घर में "चीड़" (पेड़) और "तूणी"(पेड़) की लकड़ी के दो अछ्यणाट थे। बहुत दिन चलने के बाद उनमें से एक टूटने लगा था। दूसरा थोड़ा भारी था। इसलिए ईजा ने गीठी के उस पेड़ की एक लकड़ी को अछ्यणाट के लिए निकाल दिया था। अछ्यणाट, बारिश में न भीगे या उसे कोई उठा न ले जाए इसका ईजा विशेष ध्यान रखती थीं। तभी तो बोह्नल के साथ कभी-कभी अछ्यणाट को भी 'गोठ' में संभाल देती थीं।

गाँव में शाम का समय लकड़ी और "छिलुक" (आग पकड़ने वाली लकड़ी) फोड़ने का होता था। सुबह- सुबह लकड़ी फोड़ना अपशगुन माना जाता था। ईजा कहती थीं कि - "राति-राति पर कट-कट आवाज भेल जै के सुणिछ" (सुबह-सुबह लकड़ी काटने की आवाज अच्छी थोड़ी न सुनाई देती है)। तभी शाम को लकड़ी फोड़ने का काम होता था। ईजा जब भी शाम को 'भ्योव'(जंगल) या 'पटोपन' (खेत) जाती तो हमें कहती थीं- "चूल हन आज एक सिट लकड़क निछो ब्या हैं एक लाकड़ फोड़ दिये हां" (चूल्हे में आज एक भी लकड़ी नहीं बची है, शाम को एक लकड़ी फाड़ देना)। हम हाँ... हां.. कहते थे क्योंकि उस दिन वही हमारा शाम का एक "हलाम" होता था।

जिस लकड़ी को फोड़ना होता, उसे अछ्यणाट के ऊपर रखते थे। नीचे से अछ्यणाट और उसके ऊपर लकड़ी तब कुल्हाड़ी या बोह्नल से उस पर चोट करते थे। अछ्यणाट रखने का एक बड़ा कारण तो यही होता था कि कुल्हाड़ी और बोह्नल नीचे पत्थरों में न लगे। पत्थरों में लगने से उनका पैनापन खत्म हो जाता था। टूट भी जाते थे। साथ ही अछ्यणाट में लकड़ी को रखने से फोड़ने में थोड़ी सुविधा हो जाती थी।

एक बार ईजा ने कहा- "च्यला ब्या हैं छिलुक नि छै, छिलुक फोड़ दे दैय्" (बेटा शाम के लिए आग जलाने वाली लकड़ी नहीं हैं, उन्हें फाड़ दे)। मैं तुरंत तैयार हो गया। अंदर से छिलुक वाली लकड़ी और बोह्नल लेकर आ गया। ईजा वहीं 'खो' (आँगन) में 'उखोव' (ओखली) कूट रही थीं। बोह्नल को कुछ दिन पहले ईजा "कार" (धार लगाकर) लाई थीं।

मैंने छिलुक की लकड़ी को अछ्यणाट में रखा और बोह्नल से उसे फोड़ने लगा। ईजा मुझे छिलुक फोड़ते हुए देख रही थीं और बीच-बीच में आगाह कर रहीं थीं- "भलि हाँ, बोह्नल पैन छु, हाथ-खूटु में लगेलि" (अच्छे से, बोह्नल पैना है, हाथ-पांव में चोट लगेगी)। मैं छिलुक फोड़ते हुए हो..होय कह रहा था और अपनी धुन में लगा हुआ था। लगभग उस लकड़ी को फोड़ चुका था। तभी दिमाग में आया कि मंदिर वाले छिलुक को पतला कर दिया जाय। जलने में आसानी रहती है।

अछ्यणाट के बीचों-बीच में छिलुक को रखकर पतला करने लगा। एक हाथ से छिलुक पकड़ा और दूसरे में बोह्नल से उस पर प्रहार कर रहा था। निशान तब इतना सटीक बन चुका था कि देखा कहीं भी रहूं पर बोह्नल की चोट लगती सीधे छिलुक में ही थी। ईजा कूटा हुआ अनाज समेट रही थीं। मैं अंतिम कुछ छिलुक को पतला करने में लगा हुआ था। तभी बोह्नल की एक चोट छिलुक के बिल्कुल किनारे और अछ्यणाट के बीचों-बीच लगी। छिलुक के किनारे का हिस्सा उछल कर सीधे मेरी आँख में लगा। उसके लगते ही मुँह से "ओज्या" (ओ मम्मी) की आवाज निकली। आवाज सुनते ही ईजा तुरंत दौड़ कर आई और पूछने लगीं-"के हैगो, आँखम लगि गे छै" (क्या हुआ, आँख में लग गई क्या)। मेरी दोनों आँखे बंद थी, सिर्फ सर हिला दिया।

ईजा ने तुरंत मेरी आँख को खोलने की कोशिश की लेकिन मुझे भयंकर दर्द हो रहा था। दोनों आंखों से पानी बह रहा था। ईजा ने अपनी धोती का किनारे लिया और उसे मेरी आँख के ऊपर रखकर फूंक मारने लगीं। साथ में बोल रही थीं-"आंख खोल हां"। मैं धीरे-धीरे आँख खोलने की कोशिश कर रहा था। ईजा तकरीबन 2-3 मिनट तक फूंक मारती रहीं। मैंने फिर धीरे-धीरे आँख खोली तो ईजा ने देखा कि पूरी आँख लाल हो चुकी थी। ईजा फिर कुछ देर वैसे ही फूंक मारती रहीं और कहने लगीं- "काक छिलुक, आंख फोड़ी हाचि तूल आपण" (किसका छिलुक, तूने अपनी आँख फोड़ दी थी)। ईजा जब-जब समय मिलता "दिखा आँख" करके दिन में कई बार आँख देखती थीं। फिर धीरे- धीरे आँख ठीक हो गई।

अब लाइट और टॉर्च के दिन आ गए हैं। छिलुक कोई फोड़ता नहीं है। लकड़ी फोड़ना भी कम हो गया है। अछ्यणाट खुद को बचाए रखने की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। अब कोई सिर्फ, अछ्यणाट नहीं बनाता है। किसी भी लकड़ी से काम चला लेते हैं। इन वर्षों में विकास, 'के' और 'ने' रूपी दो "मसाणों" ने पहाड़ों से इंसान ही नहीं बल्कि वह भी छीन लिए जिसके लौटने की उम्मीद कम ही है। शायद ही अछ्यणाट लौटे...

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-57

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