शराद, श्राद्धपक्ष या पितृपक्ष

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बिरखांत–404: शराद-श्रद्धा-पितृपक्ष

लेखक: पूरन चन्द्र काण्डपाल

हम अक्सर सुनते हैं, “अरे यार आजकल शराद लगे हैं, कामधंधा ठंडा चल रहा है।  शरादों में लोग शुभ काम नहीं करते,” आदि-आदि। उधर एक वर्ग कहता है, “आजकल पितर स्वर्ग से जमीन पर आए हैं और सोलह दिन तक यहां विचरण करेंगे तथा खा-पीकर पितृ-विसर्जन के दिन वापस चले जायेंगे।  ”यह खाना -पीना शराद के माध्यम से होता है।  शराद में एक व्यक्ति विशेष के कथनानुसार सभी खाद्य-अखाद्य वस्तुएं रखी जाएंगी।  पिंड भी रखे जाएंगे, शराद समाप्ति पर वहां रखी हुई सभी वस्तुएं, धन-द्रव्य आदि उस व्यक्ति की पोटली में चला जाएगा और पिंड- पत्तल वहीं पड़े रहेंगे।  भोजन -दक्षिणा प्राप्त कर उस व्यक्ति का प्रस्थान यह कहते हुए होता है –“ये पिंड- पत्तल को किसी जल स्रोत में डाल देना।  ”ये पिंड वह व्यक्ति क्यों नहीं ले गया, यह आज तक किसी ने नहीं पूछा। वहां पर बैठे-बैठे यह मान लिया गया कि पिंड पितरों ने खा लिए हैं | हमारे पितर कभी पिंड तो नहीं खाते थे । वे तो रूखी - सूखी साग - रोटी खाते थे फिर शराद में हम उनके लिए पिंड क्यों बटते हैं?

एक बार काशी में कुछ पण्डे लोगों को तर्पण के नाम पर ठग रहे थे।  गुरुनानक देव इस पाखण्ड को देख कर अपनी अंजुली से गंगा का पानी किनारे की तरफ उलीचने लगे।  पण्डे के पूछने पर उन्होंने बताया “मैं पंजाब में अपने खेत की सिचाई कर रहा हूं।” जब पण्डे ने पूछा कि यह वहां इस तरह कैसे पहुंचेगा तो नानक जी ने उत्तर दिया, “जब तुम्हारे तर्पण कराने से यह आकाश में न जाने स्वर्ग कहां है वहां पहुँच जाता है तो मेरा खेत तो इस धरती पर ही है।  ”पण्डे का मुंह बंद हो गया। 

पितरों को हम भगवान मानते हैं | जब भगवान पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं तो पितृपक्ष अशुभ क्यों?  वैदिक काल से कर्मकांड की परम्परा चल रही है तब एक विशेष वर्ग के सिवाय किसी को मुंह खोलने अथवा शंका जताने की इजाजत ही नहीं थी।  शराद या किसी भी कर्मकांड में उस व्यक्ति ने क्या कहा यह आजतक किसी के समझ में नहीं आया।  शराद शब्द ‘श्रधा’ से उपजा है, पितरों को श्रधांजलि जरूर दें।  उनकी स्मृति हमारे दिल में बसी है, उनका रक्त हमारे तन में संचार कर रहा है।  उनकी जयन्ती मनाएं, पुण्य तिथि मनाएं तथा सामर्थानुसार दान भी दें।  पितृ पक्ष में हम सभी पितरों को विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं।

दान किसी सुपात्र को दें, जो भोजन से तृप्त है फिर उसे ही भोजन क्यों?  हम अपने पितरों की स्मृति में गरीब बच्चों को पठन सामग्री या वस्त्र दे सकते हैं, अपने गांव में स्कूल के बच्चों को पारितोषक दे सकते हैं।  उनके स्कूल में इस अवसर पर एक पेयजल का ड्रम या अलमारी या चटाई दे सकते हैं, पुस्तकालय में पुस्तकें भेंट कर सकते हैं, पितरों के नाम पर स्कूल में एक छोटी सी पुरस्कार योजना चला सकते हैं।  अनाथालय या किसी जनहित में काम करने वाली संस्था को भी हम दान कर सकते हैं।  ऐसा करने से पितरों का स्मरण भी हो जाएगा और पिंड भी नहीं फैंकने पड़ेंगे।

हमने अपने हिसाब से परम्पराएं बदली हैं।  पूरी रात होने वाली शादी अब दिन में मात्र आधे घंटे में हो रही है।  देवभूमि में शराब की परम्परा हमने ही बनाई है। शराब देकर ही वहां नल में पानी, तार में बिजली आती है और पंडित- पुजारी, बाबू, चपरासी, अध्यापक, जगरिये, डंगरिये, रस्यारों ने शराब को अपना हक़ बना लिया है (अपवाद को नमस्कार)।  दिखावा-आडम्बर-अंधविश्वास ग्रसित परंपराओं को एक न एक दिन हमें बदलना ही पड़ेगा।  श्रधा और अंधविश्वास के बीच में एक पतली रेखा है।  हमें देखना है कि हम कहां खड़े है? 

यदि हम नहीं बदले तो फिर इक्कीसवीं सदी हमारी नहीं हो सकती भलेही हमारे शीर्ष नेता कितना ही कह लें।  आज पूरा देश कोरोना संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।  भलेही इसकी लहर थमी है फिर भी चौकन्ना रहने और वैक्सीन लगाने की जरूरत है।  अपना बचाव स्वयं करने हेतु जन-जागृति बहुत जरूरी है।  इसे हल्के में नहीं लें।  एक समाचार के अनुसार मार्च 2020 से आजतक विगत 18 महीनों में एक करीब डेढ़ हजार से अधिक डाक्टर एक कर्मवीर की तरह कोरोना रोगियों का उपचार करते हुए इस रोग के ग्रास बन गए हैं तथा कई फ्रंट लाइन वर्कर भी चल बसे, इन सबको विनम्र श्रद्धांजलि।  इसी कोरोना काल में देश में करीब 4.45 लाख लोग कोराेना संक्रमण से अकाल मृत्यु  के ग्रास बन गए, उन्हें भी विनम्र श्रद्धांजलि।

- पूरन चन्द्र काण्डपाल, 22-09-2021, रोहिणी, दिल्ली

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