श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में अट्ठारूं अध्याय (श्लोक ३३ - ४५)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्, interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumauni Language

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

 अट्ठारूं अध्याय - श्लोक (३ बटि ४५ तक)

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रिया। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्विकी ।।३३।। यथा तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन। प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।३४।। यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च । न विमुच्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।३५।। कुमाऊँनी:जो अटूट छू, जैकैं योगाभ्यास द्वारा अचल है बेर् धारण करी जां और जो मन, प्राण और इन्द्रियों क् क्रियाकलापों कैं वश में धरीं ऊ धृति (धैर्य) सात्विकी छू। जो धर्म, अर्थ और कर्मफलौं में मनखि कैं लिप्त धरीं ऊ धृति राजसी बतायी गे। और जो स्वप्न, भय, शोक, विषाद या मोह है आघिल् मनखि कैं सोचणैं नि द्येनि ऊ धृति तामसी छू । (अर्थात् भगवान् ज्यु क् कूणौ मल्लब यौ छू कि जव तक मनखि सात्विक विचार कैं महत्व नि द्यून तब तक ऊ शोक लै करौल्, दुख लै भोगौल् और बार-बार जनम ल्हिनैं रौल्।)

हिन्दी= जो अटूट है, जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन, प्राण तथा इन्द्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है, वह धृति सात्विक है। लेकिन हे अर्जुन! जिस धृति से मनुष्य, धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त रहता हो, वह राजसी है। और जो धृति, स्वप्न, भय, शोक, विषाद तथा मोह से परे जाती ही नहीं, ऐसी दुर्बुद्धि धृति तामसी है।

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्झति।।३६।।
यत्तदग्रे  विषमिव  परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।३७।।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।३८।।
वदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।३९।।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।।४०।।
 
कुमाऊँनी:
भरतश्रेष्ठ! आब् तुम तीन प्रकारक् सुखों क् बार् में सुणौ।  जैक् द्वारा मनखि भोग करूँ और जैक् द्वारा कभ्भीं-कभ्भीं दुखों क् अन्त लै है जां।  जो शुरू में विष (कड़ू) जस् लागूं और अन्त में अमृत (भल) जस् लागूं और जो मनखि कैं आत्मसाक्षात्कार या भल् कामूं ल्हिजी प्रेरित करूँ ऊ सात्विक सुख छू।  जो सुख इन्द्रियों क् संसर्ग द्वारा प्राप्त हूँ,  पैली शुरूआत में अमृत (भल) जस् लागूं और अन्त में जैक् प्रभाव विष समान है जां,  ऊ राजसी छू। जो सुख आत्म-साक्षात्कार है दूर ल्हिजां, जो नींन, आलस्य और लगाव द्वारा पैद् हूं, ऊ तामसी छू। यौ मृत्यु लोक, स्वर्गलोक, या द्याप्तों क् बीच क्वे लै यस जीव न्हां जो प्रकृतिक् तीन गुणों है बची हुनौल्।
(अर्थात्   भगवान् ज्यु कुनई कि- जो सुख मनखिक् मन कैं अध्यात्मिकता तरुब या प्रेरित करूँ ऊ भले ही पैली कड़ू लागूं पर वीक् फल आखिर में अमृत समान मिट्ठ हूँ, यस् सुख सात्विक सुख छू।  तब मनखि कैं यस् काम करण चैं कि वीकि आत्मा हरदम प्रशन्न राओ, और पश्चाताप करणैकि जरवतै नि पड़ौ।  नींन,  आलस्य या क्रोध आदि सब भल् मनखि ल्हिजी नि बतै राय, जो रात-दिन अपंण निर्धारित कर्म करते हुए भगवान् ज्यु क् सुमिरन करते रूँ,  यस्  मनखि गलत काम कभ्भीं नि करौन्।)

हिन्दी= हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो,  जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाता है। जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है,  लेकिन अन्त में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्विक सुख कहलाता है। जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृत तुल्य तथा अन्त में विषतुल्य हो जाता है वह राजसी सुख है। तथा जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो आरम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और निद्रा, आलस्य, तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी सुख कहलाता है। इसलोक में,  स्वर्गलोक में या देवताओं के मध्य कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो।

ब्राह्मणक्षत्रियविशां   शूद्राणां  च   परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।४१।।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।४२।।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।४३।।
कृषि गोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।४४।।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रणु।।४५।।

कुमाऊँनी:
हे अर्जुन! ब्राह्मणों, क्षत्रियों,  वैश्यों तथा शूद्रों में परकितिक् गुणोक् अनुसार उनर् स्वभाव अनुसार भेद करी जां। शान्ति, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता,  सहिष्णुता,  सत्यनिष्ठ,  ज्ञान-विज्ञानैं जानकारी और धार्मिक यौं स्वभाविक  गुण ब्राह्मणों में जरूरी छू, इन गुणों बगैर ब्राह्मण क्ये कामक् न्हां।  वीरता, शक्तिशाली,  संकल्पवान,  अपंण काम में दक्ष, धैर्य पूर्वक आघिल् बणंण, उदार और नेतृत्व यतुक गुण क्षत्रियों ल्हिजी जरूरी छन्।  वैश्यों ल्हिजी गो-पालन, कृषि कार्य,  और व्यौपार स्वभाविक गुण छन् और श्रम और सेवा कार्य शूद्रों ल्हिजी बतै रौ। अपंण -अपंण स्वभाविक  गुणोंक् पालन करते हुए इन चारों वर्णों में हरेक मनखि सिद्ध है सकूँ।  आब यौ सब कसिक् है सकूँ यौ मैं तुमूंकैं बतूनूं। 
(अर्थात्  मनखि चाहे ब्राह्मण,  व क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र  जो लै छू, यदि अपंण ल्हिजी  निर्धारित  कर्म कैं  अपंणि योग्यता अनुसार और निष्ठापूर्वक करूँ  त् हरेक मनखि सिद्ध है सकूँ, सिद्ध हुणां क् वास्ते क्वे वर्णबन्धन न्हां।)

हिन्दी= हे परन्तप! ब्राह्मणों,  क्षत्रियों, वैश्यों  तथा शूद्रों में प्रकृति के गुणों के अनुसार उनके स्वभाव के द्वारा उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद किया जाता है।  शान्तिप्रियता, आत्मसंयमी, तपस्या,  पवित्रता, सहिष्णुता,  सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता- ये सारे स्वाभाविक गुण हैं जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।  वीरता, शक्ति, संकल्प,  दक्षता, युद्ध में धैर्य, उदारता तथा नेत्रत्व-ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।  कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं और श्रम तथा सेवा शूद्रों का स्वाभाविक कर्म कहा गया है।  इस प्रकार अपने-अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए उपर वर्णित चारों वर्णों में से,  प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है। अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार

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