तुम कौंछा याँ विकास है रौ - कुमाऊँनी कविता

तुम कौंछा याँ विकास है रौ - कुमाऊँनी कविता, poem in kumoni language, kumaoni bhasha ki kavita, satiric poem

"तुम कौंछा याँ विकास है रौ"

कुमाऊँनी कविता
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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याँ गाडै-गाड़ रै ग्याय , 
याँ खाड़ै-खाड़ रैे ग्याय।
याँ भाड़ै-भाड़़ रै ग्याय,
याँ हाड़ै-हाड़ रै ग्याय।।
          तुम कौंछा याँ विकास है रौ।

याँ मैंसौंकि मत्ती पुरी गे,
और मैंस्योव हुरी गे।।
याँ रकस्याट है र तौर-तौर,
और मर्ज्यात घुरी गे।।
याँ अकलाक् क्वास् 
आइ नार्-नारै छन,और 
दुनीं छितराट में चुरी गे।।
                  तुम कौंछा याँ विकास है रौ।

याँक् जङोव बुसी गीं,
और बादोव चुसी गीं।
याँ सूरज क् मुख ट्यड़ करि है,
और जूनाँक् कान लुछी गीं।।
                 तुम कौंछा याँ विकास है रौ।

महलौं कैं नैं अरे
झुपाड़ा कैं चाओ।
ल्वेक् आँसु बगौंणई
उ मुखड़ा कैं चाओ।।
दिन-रात पसिंण में नाई,
भुख पेटौंक् चिमड़ा कैं चाओ।।
छाव् लागी हाथ-खुटाँक्
र् यखणां कैं चाओ।
चितै ल्हला सब यारो
मणि मुख धैंणी आओ।।
                 तुम कौंछा याँ विकास है रौ।

याँ लूटा-लूट रै गेइ,
याँ मारा-मार रै गेइ।
याँ फाड़ा-फाड़ रै गेइ,
याँ डाड़ा-डाड़ रै गेइ।।
                 तुम कौंछा याँ विकास है रौ।।

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मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 01-03-2016

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