श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में पन्दरूं अध्याय (श्लोक ०१ - १०)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्, interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumauni Language

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

 पन्दरूं अध्याय - श्लोक (०१ बटि १० तक)

श्रीभगवानुवाच -
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।१।।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतातस्यशाखा गुणप्रवर्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबधीनि मनुष्यलोके।।२।।

कुमाऊँनी:भगवान् ज्यु कुनई कि - आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल (जड़) वाल् और ब्रह्म रूप मुखवाल् जो संसार रूप पिपवक् बोट छू वीकैं अविनाशी कै राखौ। वेद वीक् पात छन् - ऊ संसाररूप बोट कैं जो जड़ समेत भलिभाँति ज्याणौं ऊ वेदक् तत्त्व कैं ज्याणण् वाल् कयी गो। यौ बोटक् शाखा मली बटी तली हूं लटकी छीं जो परकितिक् तीन गुणों द्वारा पोषित छन् और यौ बोटकि शाखा इन्द्रिय विषय छन् । यौ बोटक् क्वे-क्वे शाखा तली हूं लै लटकी रूनीं जो मनखि कैं सकाम कर्मन् दगै बांदनी। (अर्थात् मृत्यु लोक कैं हम अपणि सुविधानुसार द्येखनू ,पिपवक् बोट रूप यौ संसार बता रौ, त् हम यौ बोटक् जड़ तली हूं और शाख कैं मली हूं द्येखनू पर भगवान् ज्यु कुनई कि तुम उल्ट द्येखंछा यैक् जड़ मली और शाख तली हूं छन् । जो सइ प्रतीत हूं, किलैकि भगवान् ज्यु क् वास वैकुंण्ठ लोक में मली हूं छू त् जड़ लै मली हूं हुंण चैनीं। तात्पर्य यौ छू कि हम सुख कैं दुःख और दुख कैं सुख समजनू यौ इ हमरि गलती छू, किलैकि हम इन्द्रिय विषय कैं सुखक् साधन मानि बेर् अनैतिक कर्म करि दिनूं, और यौ ई गलतीक् कारण मनखी हर हाल में परेशान छू।)
हिन्दी = भगवान् कहते हैं- आदिपुरुष परमेश्वर स्वरूप और ब्रह्मरूप मुखवाले जिस संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये हैं - उस संसार रूप वृक्ष को जो मूल सहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जाननेवाला है। इस वृक्ष की शाखायें ऊपर से नीचे की ओर फैली हैं और प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा पोषित हैं। इसकी टहनियां इन्द्रिय विषय हैं, इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी हैं जो मानव समाज के सकाम कर्मों से बंधी हुई हैं।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल- मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा।।३।।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भुयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रस्ताव पुराणी।।४।।

कुमाऊँनी:
यौ बोटक् वास्तविक स्वरूप कैं यौ संसार में लिप्त है बेर क्वे लै नि ज्याणि सकन्। क्वे लै यैक् अन्त, आदि और अधार कैं नि समजि सकौन्। यैकैं ज्याणण् क् ल्हिजी यौ विशाल वृक्ष कैं विरक्ति रूपी शस्त्रैल् काटण पडूं। वीक् बाद यस् जगैकि खोज करण चैं जां ऊ भगवानै (जो यौ संसाराक् नियन्ता छू) कि शरण प्राप्त करण करी जाओ, जां बटि प्रत्येक वस्तुक् सूत्रपात और विस्तार हूँ।
(अर्थात् यौ विशाल वृक्ष रूपी संसार कैं साधारण मनखि आज तक नि समजि सक्। यैकैं समजंण क् ल्हिजी विरक्ति (वैराग्य) जरूरी छू। जब तक हम मेरि घरवाइ, म्यर् च्यल् , म्यर् घर या म्यर् शरीर आदि बातूं में उलझी रूंल् तब तक हम खुद आपूं कैं ई नि समजि सकन्, संसार या परमेश्वर कि त् बातै भौत दूर भै। यौ संसार रूपी बोटकि जो जड़ छू वी परमात्मा छू और ऊ जड़ तक पुजणोंक् प्रयास करी बिना परमात्मा तक कसिक् पुजि सकनूं। ज्ञानी, योगी और संत लोग यौ ई प्रयास में लागी रूंनी, उनूंमें लै क्वे विरला ई यस् हूँ जो ऊ जड़ तक पुजि जां।)

हिन्दी= इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता । कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है, अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है ? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ मूलवाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराये । तत्पश्चात उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान् की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है।

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
               अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्दैर्विमुक्ताः सुखदुःखसज्ञै-
               र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।५।।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न  निवर्तन्ते  तद्धाम  परमं मम्।।६।।

कुमाऊँनी:
जो झुटि इज्जत, मोह और कुसंगति है मुक्त छन्,  जो  सदा रूंण वाल्  तत्व कैं समजनीं, जनूल् भौतिक काम (विषय-वासना) कैं नष्ट करी हालौ, जो सुख-दुःखक् द्वंद है मुक्त छन् और जो मोहरहित है परमपुरुषक् शरण में जांण ज्याणनीं यस् लोग ऊ शाश्वत राज्य कैं प्राप्त हुंनी।  ऊ म्यर् परमधाम न त् सूर्य न चन्द्र न अग्नि और न बिजली प्रकाशैल् प्रकाशित हुंन, बल्कि स्वयं प्रकाशित छू।  जो लोग वहां पुजि जनीं ऊं फिरि यौ मृत्यु लोक में कभ्भीं नि ऊन।

(अर्थात्  संसारी चीजों पर लगाव, वासना, और अपंणि  बड़ाई कि इच्छा जैल् त्यागि है।  जो परमात्मा क् शरणागत हुणाक् ल्हिजी संकल्प रत छू, और सुख-दुःख,  हानि-लाभ आदि भौतिक प्रपंचों है मुक्त छू , वीकैं परमधाम यानि सदा एकजस् रूंणी जाग् मिलि जैं।  ऊ परम धाम कस छू भगवान् ज्यु कुनई कि जो स्वयं प्रकाशित छू , जां प्रकाश क् ल्हिजी न त् सूर्य,  न चन्द्र,  न अग्नि और न बिजलि कि क्वे जरवत् न्हां।  तब यस् धाम कैं छोड़ि यौ भौतिक लोक (जैकैं हम भौत्तै भल् माननूं ऊ ज्ञानियोंक् ल्हिजी अंधकार जस्  छू,) में रूंणैकि क्ये जरवत् छू।)

हिन्दी= जो झूठी प्रतिष्ठा,  मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्व को समझते हैं,  जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है,  जो सुख तथा दुःख के द्वन्द से मुक्त हैं और जो मोह रहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना जानते हैं, वे शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं । वह मेरा परम धाम न सूर्य के और न चन्द्र के द्वारा  प्रकाशित होता है और न अग्नि या विद्युत से। जो लोग वहां पहुंच जाते हैं,  वे फिर इस भौतिक जगत् में लौटकर नहीं आते।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठिनिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। ७।।
शरीरं यदवाप्नोति यश्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धनिवाशयात्।।८।।

कुमाऊँनी:
यौ संसार में जतुक लै जीव छन्, ऊं सब म्यरै शाश्वत (अभिन्न) अंश छन्। बंधी हुई जीवनक् कारण ऊं मन और छै इन्द्रियों सहित संघर्ष करनयीं। और जसिक् हव् क्वे लै गन्ध कैं अपंण दगड़ ल्हिजैं वी प्रकारैल् जीवात्मा जब शरीर त्याग करूँ त् ऊ दुसर् शरीर में मन और इन्द्रियों द्वारा जो चेतना मे रूं वीकै दगड़ प्रवेश करि जां।
(अर्थात् सब्बै जीव कुकूर, बिराउ, गोरु, भैंस, मनखि, किड़-किरमोइ, जलचर या थलचर या फिरि जड़ इन सबन् में भगवान् ज्यु क् अंश छू। और संसार दगड़ बंधी हुई हुणाक् कारण यौं सब जीव मन और इन्द्रियों समेत संघर्ष करण पार् लागि रयीं । जसिक् हव् गन्ध कैं अपंण दगड़ एक जाग् बटि दुहर् जाग् ल्हिजैं वी प्रकारैल् मरण बखत् मनखि जो सोचों वी सोच कैं ल्हि बेर वीकि आत्मा दुहर् शरीर में प्रविष्ट करें।)

हिन्दी= इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे मन और पांचों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं। इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में वैसे ही ले जाता है जैसे वायु गन्ध को ले जाता है। इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है।

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चाय विषयानुपसेवते।। ९।।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यति ज्ञानचक्षुषः।।१०।।

कुमाऊँनी:
यौं जीवात्मा कान, आंख, और त्वचा (ल्वत), जिबड़, सुंगण इन पांच इन्द्री और मनक् सहारैल् विषयूंक् भोग करनी। शरीर कैं छोड़ि बै जाणीं, शरीर में स्थित रूंणी और विषयूंकैं भोगणी जो छू वी कैं अज्ञानी लोग नि ज्याणि सकन् सिर्फ ज्ञानरूपी आंख जैक् पास छन् वीं ज्ञानी लोग यै कैं भलिकै ज्याणि सकनीं।
(अर्थात् जीवात्मा परकितिक् गुणोक् प्रभाव में यतु आसक्त है जां कि ऊ भोग कैं ई जीवनक् लक्ष्य समजूं पर यौ भोग करण को लै रौ यौ बात कैं नि समजोंन्। जसिक् पाणिक् क्वे रंग निहुन् ऊ में लाल रंग मिलै दियो त् ऊ लाल और हरी रंग मिलै दियो त् हरी द्येखियों। पर ज्ञानी ई समजों कि ये में रंग मिलै रौ और वीकि वास्तविक स्थिति ऐसी न्हां, जसि द्येख्यनै और क्वे भ्रम जाल में नि पडौन्।)

हिन्दी= यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु, और त्वचा तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके, इनके सहारे विषयों का सेवन करता है। शरीर को छोड़कर जाते हुए को, अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप चक्षुवाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्व से जानते हैं।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार

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