मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- वड़

        प्रकाश उप्रेती का कुमाऊँ के जन-जीवन सम्बन्धी लेख वढ़ का किस्सा, article about kumaoni lifestyle and demarkation of land

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- "वड़"

लेखक: प्रकाश उप्रेती

आज बात "वड" की।
एक सामान्य सा पत्थर जब दो खेतों की सीमा निर्धारित करता है तो विशिष्ट हो जाता है। 'सीमा' का पत्थर हर भूगोल में खास होता है। ईजा तो पहले से कहती थीं कि- "वड झगडै जड़"( वड झगड़े का कारण)।  'वड' उस पत्थर को कहते हैं जो हमारे यहाँ दो अलग-अलग लोगों के खेतों की सीमा तय करता है।  सीमा विवाद हर जगह है लेकिन अपने यहाँ 'वड' विवाद होता है।  पहाड़ में वाद-विवाद और 'घता- मघता' ( देवता को साक्षी मानकर किसी का बुरा चाहना) का एक कारण 'वड' भी होता था।  ईजा के जीवन में भी वड का पत्थर किसी न किसी रूप में दख़ल देता था।

जब भी परिवार में भाई लोग "न्यार"( भाइयों के बीच बंटवारा) होते थे तो जमीन के बंटवारे में, वड से ही तय होता था कि इधर को तेरा, उधर को मेरा।  'पंच', खेत को नापकर बीच में वड रख देते थे।  यहीं से तय हो जाता था कि यह खेत किस तरफ, कितना, किसका है। इसी तर्ज पर 'भ्योव" का भी बंटवारा होता था। उसके बाद वड ही सीमा हो जाती थी।

'बुबू' (दादा जी) को खेतों से अथाह लगाव था।  उसका कारण भी था कि उन्होंने खेतों को बनाने में खून-पसीने के अलावा जीवन भी लगा दिया था।  कई बार तो उन्हें रोज 10-10 घण्टे कई महीनों तक एक खेत से पत्थर निकालने में लग जाते थे।  बैल और खेत उनके लिए शान थी।  ईजा ने तो खेतों को सँवारा था।  कई बार कहती थीं- "पटोक मेहनत कण पणि, यसिके जै के हजाँ नाज" (खेतों में मेहनत करनी पड़ती है, ऐसे ही थोड़ा न अनाज हो जाता है)। बुबू के नहीं रहने के बाद हर खेत सिर्फ ईजा को जानता था और ईजा उनको..

एक बार 'बुबू हल चलाने के लिए गए हुए थे।  ईजा और हम भी खेत में साथ-साथ जाते थे।  जब खेत में पहुँचे तो देखते हैं कि बगल वाला खेत जिनका था उन्होंने अपने खेत में हल चलाते हुए वड निकाल कर एक हाथ इधर कर दिया है। मतलब हमारे खेत में एक हाथ कब्जा। एक "सी" (हल चलाते हुए पहले ही चक्कर में) में ही बुबू को दिखाई दे गया। बुबू ने तुरंत बैल रोके और ईजा को कहा- "ब्वारी देख ढैय् यो रंकेल, एक हाथ वड स्यार है" (बहू देखना इसने एक हाथ वड इधर कर दिया है)।  ईजा ने देखा, हम भी पीछे-पीछे गए। देखकर ईजा बोलीं-"होय, येति छि यो" (हां, यहाँ था ये)। इतना सुनते ही बुबू ने गुस्से में तमतमाते हुए वड निकाला और लगभग आधे खेत अंदर रख दिया। उसके बाद ही पूरे खेत में हल चलाया।

हल चलाने के बाद घर जाते हुए बुबू, जिनका वो खेत था उनके घर गए और गुस्से में कहा- "अरे फलणिया तूल वेति हमर वड स्यारि दिए,  जाधेके जोभन चड़ गो छै तिकें" (उनका नाम लेते हुए- तूने हमारा वड इधर कर दिया, ज्यादा ही ताकत आ गई है)। बुबू की आवाज सुनकर वो बाहर निकले थोड़ा बहस हुई लेकिन अंततः वो बोले- "पंडित ज्यू देखणु मैं" (पंडित जी, मैं देखता हूँ)। बुबू इतना कहकर घर को आ गए।  शाम को ईजा जब उस खेत में मंडुवा बोने गईं तो देखा कि वड अब सही जगह पर रख दिया गया था।

ईजा खेत में वड की "छित"(निशानदेही) कर लेती थीं।  यह निशानदेही किसी बड़े पत्थर या पेड़ से करती थीं। उनको अंदाजा होता था कि हमारा खेत कहाँ से कहाँ तक था। अगर कोई वड को इधर-उधर खिसका दे तो तुरंत ही ईजा को पता चल जाता था।खेतों और वड को इतने सालों तक देखते-देखते उनकी आँखों में वह दृश्य बन चुके थे। इसलिए अगर कोई हल्का सा भी वड खिसका दे तो ईजा कहती थीं- "इनुले हमर वड स्यारि है"( इन्होंने हमारा वड खिसका दिया है)।  उसके बाद ईजा वड निकाल कर सही जगह पर रख देती थीं।

ईजा के साथ जब हम खेत में जाते थे तो वड में बैठ जाते थे।  ईजा हमेशा वड में बैठने के लिए मना करती थी लेकिन हमको "सज" (आराम) वड में ही आती थी।  कई बार तो खेलते-खेलते हम वड के आस-पास की मिट्टी निकालने लग जाते थे। ईजा दूर से देखकर ही लगभग चिल्लाने के अंदाज में कहती थीं- "वड़क माट किले निकाल में छै, सारे पटोपन छोड़ि बे तिकें वति खेल कणि, उठ छै नि उठने वति बे" (वड के आस-पास से मिट्टी क्यों निकाल रहा है, सारा खेत छोड़कर तुझे वही जगह मिली खेलने को, उठता है कि नहीं वहाँ से)।  ईजा की फटकार सुनते ही हम चट से उठ जाते थे।

जब भी हम खेत में जाते थे तो ईजा हमको वड दिखाती थीं। कहती थीं- "च्यला यो हमर वड छु, इथां हमर होंछ"   (बेटा ये हमारा वड है, इधर को हमारा होता है)।  हम बहुत ध्यान से देखते थे। कभी पता नहीं होता तो, पूछते थे- "ईजा य पंहाँ पाटो काक छु" (माँ, ये उधर वाला खेत किसका है)। ईजा तुरंत उस खेत और उसके पूरे इतिहास के बारे में बताती थीं। अगर उससे जुड़ा कोई किस्सा हो तो वह भी बता देती थीं। बताते हुए कहतीं- "अपण पटोउक बारे में पोत हण चहों" (अपने खेतों के बारे में पता होना चाहिए)। हम ईजा को बड़े ध्यान से सुनते और उसकी "छित" लगाते थे।

'भ्योव' जाते हुए भी ईजा कहतीं-"च्यला यो हमर होंछ" (बेटा ये हमारा होता है)। अगर कोई भी थोड़ी हमारी तरफ की घास काट लेता था तो ईजा कहती थीं- "देखि ढैय् यो एक आंठ, एक पू, या एक गुढो घा काटि रहो हमर" (देख हमारी घास काट दी है)। हम उत्सुकता से देखते थे। ईजा फिर छित लगाकर बताती थीं कि- "ऊ डाव बति गध्यर तक हमर हुंछ" (उस पेड़ से गधेरे तक हमारा होता है)। हम अच्छे से उसको दिमाग में बैठाते थे ताकि याद रहे। ईजा  फिर भ्योव की कहानी बताने लग जाती थीं।

खेत और भ्योव आज भी वहीं हैं। वड पहले से ज्यादा जमीन में धंस गए हैं लेकिन उनके लिए लड़ने-झगड़ने वाले लोग कम हो गए हैं। ईजा दूर से देखकर ही बता देती हैं कि कहाँ तक हमारा होता है। हम पास जाकर भी वड को खोजते हैं। ईजा ने जो कमाया हमने वही तो खो दिया...

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-44

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