
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
अग्यारूं अध्याय - श्लोक (३५ बटि ४६ तक)
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।४७।।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दाने-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रे।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
दृष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।४८।।
माया ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।४९।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- हे अर्जुन! मिल अपंणि विशेष शक्ति द्वारा तुमूंकैं यौ विश्वरूप दिखा, ये है पैली कैल् लै यौ रूप नि द्यौख और म्यर् यौ रूप न त् वेदाध्ययन, न यज्ञ, दान या कठिन तपस्या द्वारा कसिकै लै यौ संसार में क्वे नि देखि सकौन् । म्यर् यौ भयानक और तेजस्वी रूप कैं द्येखि बेर् तुम विचलित और मोहित है गे छा, येक् ल्हिजी मैं अपंण यौ विश्वरूप कैं समेटनूं और आब् तुम शान्त चित्त है बेर् म्यर् ऊ रूप कैं द्यखौ जो तुमूंकैं इच्छित छू।
(अर्थात् अर्जुन त् भगवान् श्रीकृष्ण ज्यु क् अनन्य भक्त और सखा छू जब ऊ भगवान् ज्यु क् विश्वरूप द्येखि विचलित है गो त् आम संसारी कसिक् द्येखि सकल्? यौ लै समजणैकि जर्वत् छू। आब् भगवान् ज्यु कुनई कि - तुम जो चतुर्भुज रूप कैं द्येखण चां छा मी ऊ रूप तुमूंकैं दिखानूं।)
हिन्दी= भगवान् ने कहा-हे अर्जुन! मैने प्रसन्न होकर अपनी अंतरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है। इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा। हे कुरुश्रेष्ठ! क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन द्वारा न यज्ञ, दान, पुण्य, या कठिन तपस्या द्वारा इस विश्वरूप मे देखा जा सकता हूँ और तुम मेरे इस रूप को देखकर मोहित तथा अत्यंत विचलित हो गये हो, अब इसे समाप्त करता हूँ। हे मेरे भक्त! तुम समस्त चिन्ताओं से मुक्त हो जाओ और शान्त चित्त होकर अपने इच्छित रूप को देख सकते हो।
सञ्जय उवाच-
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेन
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।५०।।
अर्जुन उवाच-
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्य जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।५१।।
कुमाऊँनी:
सञ्जय धृतराष्ट्र तैं कुणौ कि अर्जुनैकि विन्ति सुणिबेर भगवान् ज्युल् अपंण चतुर्भुज रूप प्रकट करौं फिरि द्वी भुजाओं वाल् अपंण रूप प्रकट करिबेर् अर्जुन कैं ढाढस बंधा। तब अर्जुन कूंण लागौ हे जनार्दन! तुमर् यौ मानवी रूप ठीक छू और आब् मैं यौ रूप कैं द्येखि बेर् स्थिरचित्त और अपंणि पैलिकैकि अवस्था में ऐ गयूं।
(अर्थात् भगवान् ज्यु क् विराट रूप कैं द्येखि बै भयभीत अर्जुन आब् भगवान् ज्यु क् वास्तविक रूप कैं द्येखि बेर समान्य अवस्था में ऐ गो, और कुणौ कि हे भगवान् ज्यु तुमर् यौ रूप (जैकैं द्येखणाक् ल्हिजी ऋषि, मुनि और ठुल्-ठुल् द्याप्त भौत्तै कठिन तप करनीं और फिरि लै नि द्येखि सकन्) ठीक छू, आब् मैं यैकैं कैं द्येखि बेर् स्थिरचित्त छूं और तुमूंकैं नमस्कार करनूं।)
हिन्दी= सञ्जय ने धृतराष्ट्र से कहा- अर्जुन के इस प्रकार कहने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अन्त में दो भुजाओं वाला रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बंधाया। फिर अर्जुन ने श्रीकृष्ण को मानवी रूप में देखा तो कहा- हे जनार्दन! आपके इस अतीव सुन्दर रूप को देखकर मैं अब स्थिरचित्त हूँ और मैने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है।
श्रीभगवानुवाच-
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।५२।।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेनन चेज्यया।
शक्य एवंविधो दृष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।५३।।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।५४।।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।।५५।।
कुमाऊँनी:
श्रीभगवान् ज्यु कुनई कि हे अर्जुन! तुम मिकैं जो रूप में द्येखनछा, ऊ द्याप्तों ल्हिजी लै दुर्लभ छू। तुम म्यर् द्वारा दियी दिव्य नेत्रों द्वारा म्यर् यौ रूप कैं द्येखनछा ऊ दान, पुण्य, अध्ययन या कठिन तप द्वारा, द्याप्तों या मुनियों ल्हिजी लै सम्भव न्हैति। मात्र भक्ति द्वारा यौ म्यर् विशेष भक्तों कैं सम्भव है सकूँ।
(अर्थात् जप, तप या अन्य साधन मनखि कैं सन्मार्ग पर चलणाक् उपाय छन् पर म्यर् दर्शन और विशेषकर यौ रूपक् दर्शन करणाक् ल्हिजी भक्ति सर्वोपरि साधन छू। बिना भक्ति करिये मी तक पुजंण भौत कठिन छू।)
हिन्दी= श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। तुम अपने दिव्य (मेरे द्वारा प्रदत्त) नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो वह दान, पूजा, अध्ययन, कठिन तप या फिर अन्य साधनों से भी देख पाना कठिन है। हे अर्जुन! अनन्य भक्ति द्वारा ही इस रूप का दर्शन सम्भव है। बिना भक्ति के मेरे रहस्य को जान पाना देवताओं और मुनियों के लिये भी सम्भव नहीं है।
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जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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