श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में अग्यारूं अध्याय (श्लोक ३५-४६)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता अर्थानुवाद् अग्यारूं अध्याय, श्लोक (३५ बटि ४६ तक)Kumauni Language interpretation of ShrimadBhagvatGita Adhyay-11 part-04

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

 अग्यारूं अध्याय - श्लोक (३५ बटि ४६ तक)

सञ्जय उवाच-
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
               कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
               सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ।।३५।।
अर्जुन उवाच-
स्थाने हृषीकेश  तव प्रकीर्त्या
               जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते   च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
               सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।३६।।

कुमाऊँनी:
सञ्जयैल् धृतराष्ट्र कैं बता कि - हे रजज्यु! भगवान् ज्यु क् मुख बटि इन वचनों कैं सुणिबेर अर्जुनैल् कांपन-कांपनै द्वियै हाथ जोड़िबेर् उनूकैं बार-बार नमस्कार करौं और फिरि वील् डरन्-डरनैं लाट् मैंस चारी यस् कौ।  हे हृषिकेश! तुमर् नाम सुणिबेर सारै संसार हर्षित हूंछ, और सब लोग तुमूं पार् अनुराग करनी, भले ही सिद्ध लोग तुमूंकैं नमस्कार करनयी, पर राकश डरिबेर् यथां-उथां भाजनयी, यौ लै ठीक भौ।
(अर्थात् सञ्जय धृतराष्ट्र कैं बतूंण लै रौ कि- जब भगवान् ज्युल् अपंण बार् में अर्जुन कैं बता तब उनर् वचन सुणिबेर अर्जुन नमस्कार करिबेर् कूंण लागि रौ कि- हे परमेश्वर भले ही सारै संसार तुमर् मात्र नाम सुणिबेर खुशि हों और सिद्ध, ऋषि, मुनि तुमूंकैं नमन करनीं पर राकस स्वभाव वाल् आततायी डरै मारि यथां-उथां भाजण लै रयीं। यौ लै भले भौ।)

हिन्दी= सञ्जय ने धृतराष्ट्र से कहा- हे राजा! भगवान् के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया।  फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर मे श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- हे हृषिकेश! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं।  यद्यपि सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं, यह ठीक ही हुआ।

कस्माश्च ते न नमेरन्महात्मन्
               गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास
               त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।३७।।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
               स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
               त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।।३८।।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः
               प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु  सहस्रकृत्वः
               पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।।३९

कुमाऊँनी:
हे महात्मन्! तुमत् ब्रह्मा ज्यु हैबेर् लै ठुल् छा तुमैं आदिस्रष्टा छा, तब्बै सब तुमूंकैं नमस्कार करनयीं । हे भगवन्! तुम परम स्रोत, अक्षर और कारणों क् कारण छा और भौतिक जगत् है परे छा। तुमैं आदिदेव,  सनातन पुरुष, और यौ दृश्यजगताक् आधार छा। तुम सबकुछ ज्याणछा और तुमूमें ऊ सब छू जो मनखी कैं ज्याणण् चैं,  तुम भौतिक गुणन् है परे परम आश्रय छा। हे प्रभो! यौ सारै संसार तुमरै कारण क्रियाशील छू। तुम हव, आग, पाणि और चन्द्रमा छा और तुमी पितामह और प्रपितामह छा । तुमूंकैं बारबार हजारों बार नमस्कार छू, और नमस्कार छू।

(अर्थात्  अर्जुन यौ समजि गो कि म्यर् दगड़ जो श्रीकृष्ण छन् यौं क्वे साधारण मनखि न्हैति, बल्कि साक्षात भगवान् विष्णु छन् जो सब जगताक् रक्षक लै छीं और भक्षक लै छीं । इनूंकै ल्हीबैर् यौ संसार,  यौ ब्रह्माण्ड और अनेक ब्रह्माण्ड क्रिया करनयीं । सूर्य, चन्द्रमा, आग, पाणि और हवा यानि जीवनक् ल्हिजी ज्ये लै पदार्थ आवश्यक छू ऊ सब भगवान् ज्युकि कृपा पार् निर्भर छू।  सब जीवोंक् जनम-मरण और पालन-पोषण इनरै हात् में छू। तब ऊ भगवान् ज्यु तैं बारंबार, हजार बार नमस्कार करनौ। त् हमलै भगवान् ज्यु कैं नमस्कार करनूं।)

हिन्दी= हे महात्मन्! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्रष्टा हैं, तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त,  हे देवेश, हे जगन्निवास!  आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं।  आप आदिदेव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्य जगत् के परम आश्रय हैं । आप सब कुछ जाननेवाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है। आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत् आपसे व्याप्त है। आप वायु हैं तथा परम नियन्ता भी हैं। आप अग्नि हैं,  जल हैं तथा चन्द्रमा हैं।  आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप ही प्रपितामह हैं अतः आपको बारम्बार,  हजारों बार नमस्कार है और पुनः नमस्कार है।

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
               नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
               सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।४०।।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
               हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं
               मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।४१।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
               विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
               ततक्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।४२।।

कुमाऊँनी:
हे भगवान् ज्यु! तुमूंकैं आघिल, पछिल और चारूं ओर बटि नमस्कार छू, तुम असीम शक्ति और अनन्त पराक्रमुक् स्वामी छा, सर्वव्यापी छा और सबकुछ छा। मिल् तुमूंकैं अपंण मित्र समझते हुए हठपूर्वक हे कृष्ण, यादव, सखा जस् सम्बोधन करी, किलैकि मैं तुमरि महिमा कैं नि ज्याणछी, मिल मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ लै करौ वीक् ल्हिजी मिकैं क्षमा करौ।  यौ ई नै मिल् कयी बार विश्राम करन् तक्, एकदगड़ै भोजन करन् तक्, इकलै या दगड़ियों सामणि तुमर् अनादर या उपहास करौ त् हे अच्युत! मिकैं उन अपराधों क् ल्हिजी क्षमा करिया।
(अर्थात् भगवान् ज्यु यौ बखत् विराटरूप में अर्जुनाक् समणि छन्  पर अर्जुन कैं उनर् कृष्ण रूप और मित्रता याद ऊनै और एक सामान्य मित्र जस् व्योहार करंण लै याद ऊण लै रौ।  तब ऊ अपंण करी हुई व्योहारक् ल्हिजी लज्जित है रौ और भगवान् ज्यु तैं कुणौ कि हे प्रभु! मिकैं हर हाल में क्षमा करिया।)

हिन्दी= आपको आगे, पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति! आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं,  आप सर्वव्यापी हैं और  आप ही सबकुछ है अतः प्रसन्न हों।  आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने आपको हे कृष्ण,  हे याव, हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था। मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो भी किया है, कृपया उसके लिये मुझे क्षमा कर दें।  यही नहीं मैंने कई बार विश्राम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ भोजन करते हुए,  बैठे हुए,  कभी अकेले तो कभी मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया हो तो हे अच्युत! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

पितासि लोकस्य चराचरस्य
               त्वमस्य पूज्यस्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोन्यो
               लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव  ।।४३।।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
               प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः 
               प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।४४

कुमाऊँनी:
तुम यौ चर अचर जगताक् या सब्बै दृश्यजगताक् जनक छा। तुम परमपूज्य महान् और आध्यात्मिक गुरु लै छा।  तुमूं जस् क्वे न्हैति और न है सकौन्।  हे शक्तिवान् प्रभु! तीनों लोकूं में तुमूहै ठुल् क्वे कसिक् है सकूँ।  तुमत् प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय छा।  मैं तुमूंकैं प्रणाम करनूं और तुमरि कृपा कि याचना करनूं।  जस्सै बाप अपंण च्यलैकि ढिठाई,  मित्र अपंण मित्रैकि धृष्टता और प्रेमी अपणि प्रियैकि अपराधन् कैं सहन करनीं उस्सै तुम लै मेरि गल्तियों कैं क्षमा करिया।
(अर्थात्  अर्जुन भगवान् ज्यु कि महिमा और प्रभाव कैं समजिबेर् विन्ति करनौ कि म्यर् दोषन् कैं क्षमा करिया।  उसीक् लोकाचार में लै जो सबन् कैं दोषरहित करि दियो वी भगवान् कयी जां।  निर्बल कैं बल, असमान कैं समान, मूर्ख कैं बुद्धि दिणीं लै वी भगवान् छन्।  शास्तरूंक लै मत यौ ई छू कि भगवान् ज्यु पार् कभ्भीं शंका नि करंण चैन् हमर् कर्मूंक् अनुसार दुगुण, चौगुण और हजार गुण करिबेर् लौटणी भगवान् ज्यु ई छन्। 

हिन्दी= आप इस चर अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं।  आप परमपूज्य,  महान आध्यात्मिक गुरु हैं।  न तो कोई आपके तुल्य है, न कोई आपके समान हो सकता है।  हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है।  आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय हैं।  अतः मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ।  जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की धृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहलेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा 
               भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
               प्रसीद देवेश जगन्निवास ।।४५।।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
               मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
               सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।४६।।

कुमाऊँनी:
मिल् तुमर् यौ विराट रूप पैली कभ्भीं नि द्यौख यैक् ल्हिजी मैं हर्षित लै छूं और मिकैं डर लै लागनै।  तुम मिकैं अपंण पुरुषोत्तम भगवत् रूप फिरि दिखाओ,  मैं तुमर् मुकुटधारी चतुर्भुज रूप द्येखण चानूं, जे में तुम अपंण चारों हातन् में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करंछा, मिकैं तुमर् वी रूप भल् लागूं।
(अर्थात् विराट रूप त् विराटै भौय अर्जुन विराटरूप कैं देखिबेर् खुशि लै छू और डरंण लै लै रौ, तब भगवान् ज्यु तैं विन्ति करनौ कि ना ना तुमर् चतुर्भुज रूप भल् छू हे भगवान् ज्यु!  मिकैं तुम वी रूप दिखाओ जैक एक हात् में शंख, एक हात् में चक्र, एक हात् में गदा और एक हात् में कमल फूल छू।)

हिन्दी= पहले कभी न देखे गये आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ,  किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है।  अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश! हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखायें।   हे विराट रूप! हे सहस्रभुज भगवान्!  मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र,  गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों, मैं उसी रूप को देखना चाहता हूँ।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार

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