श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में नौऊं अध्याय (श्लोक ०१-०८)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता अर्थानुवाद् नौऊं अध्याय (श्लोक सं. ०१  बटि ०९ तक) interpretation of ShrimadBhagvatGita Adhyay-0९ part-01 in Kumauni Language , Kumaoni Bhasha

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

 नौऊं अध्याय - श्लोक (०१ बटि ० तक)

श्रीभगवानुवाच-
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१।।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।२।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- हे अर्जुन! तुम म्यर् दगड़ कभ्भीं इर्ष्या नि करनैं येक् ल्हिजी मैं तुमूंकैं यौ ज्ञान और अनुभूति बतानूं,  जैकैं ज्याणि बेर् तुम संसाराक् सार्रै दुःखन् है मुक्त है जाला।  यौ ज्ञान सब्बै विद्याओंक् रज छू, जो सब्बै रहस्यों में सबन् है ज्यादे गोपनीय छू । यौ परम शुद्ध लै छू , और आत्माकि प्रत्यक्ष अनुभूति करांण वाल् छू, यौ ई धर्मक् सिद्धांत छू। यौ अविनाशी छु और भौतै सुख पूर्वक सम्पन्न करी जां ।
( अर्थात्  , जस् कि आपूं ज्याणछा कि आजक् समय में हमरि वैदिक शिक्षा लुप्तप्राय है गे , भौत कम लोग यस् छन जो समय मिलि गोय त् यदा-कदा रामायण,  गीता , महाभारत आदि ग्रन्थों क् अध्ययन करनीं । यस्  लोग लै फिरि ऊ ज्ञान कैं आपूं तक सीमित धरि ल्हिनी । जबकि आजक् समय में यौ भौतै आवश्यक छू कि हम अपुंण नान्तिनन् कैं अपंण संस्कार और संस्कृति क् बार् में जागरूक करूँ,  और भौतिकतावादी या पाश्चात्यीकरणैं कि मानसिकता है भ्यार् निकालू। दूरदर्शनक् चैनलों में जो लै धार्मिक सीरियल दिखाई जानीं उनूं में पूर्ण सत्यताक् अभाव (ज्याणि - बूझि बै या अज्याण में) रूँ।  उदाहरणार्थ नारदज्यु कि शिखा कैं ठाड़ि एरियर जस् दिखांण या स्त्री पात्रों क् अर्धनग्न वस्त्र- परिधान और बीच-बीचम् कामुक विज्ञापनों कि भरमार आदि आदि)

हिन्दी= श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! चूंकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या  नहीं करते,  इसलिए मैं तुम्हें  यह परम गुह्य ज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊंगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे । यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूंकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति करानेवाला है, अतः यह धर्म का सिद्धांत है। यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।३।।
मयासुर ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।।

कुमाऊँनी:
हे अर्जुन! जो लोग भक्ति में  श्रद्धा नि धरन ऊं मिकैं प्राप्त नि करि सकन् और ऊं यौ भौतिक संसार में जन्म-मृत्यु क् मार्ग पार् वापस ऊनैं रूनीं । यौ सम्पूर्ण जगत् मीं में जी व्याप्त छू , सब्बै जीव मिमैं ई छन् और मीं उनूं में नि छूं।
(अर्थात्  जो मनखी श्रद्धा विहीन छु , ऊ भगवान् ज्यु कैं प्राप्त करी नि सकून्।  यैक् ल्हिजी सबन् है पैली परमात्मा में श्रद्धा हुंण आवश्यक छू, फिरि भक्ति मे दृढता हुंण चैं । भगवान् ज्यु पार् श्रद्धा हुणाक् कारण सब्बै द्याप्त आशीर्वाद दिनीं, किलैकि सब्बै इन्द्रादिक द्याप्त, यक्ष, गन्धर्व आदि भगवान् ज्यु क् अधीन छीं)

हिन्दी= हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते , वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म- मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं । यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं,  किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भुतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।५।।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारयः।।६।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि,  म्यर् द्वारा उत्पन्न सब्बै वस्तु मिमैं जि  स्थित नि रूंन।  जरा म्यर् योग-एश्वर्य कैं द्येखो ! भले ही मैं सब जीवों क् पालक छूं और सब जाग् व्याप्त लै छूं परन्तु मैं इन सब में नि छूं।  किलैकि मैं सृष्टि क् कारण छू । जै प्रकारैल् वायु सदा आकाश में स्थित छू, वी प्रकारैल् उत्पन्न प्राणियों में मिकैं लै स्थित ज्याणौ।
(अर्थात् , जै प्रकारैल् वायु हमेशा आकाश में स्थित रैं परन्तु आकाश वायु में नि रूंन् वी प्रकारैल् भगवान् ज्यु सब जाग् रूनीं पर हमन् कैं भगवान् ज्युक् संगत प्राप्त करणांक् ल्हिजी साधन करंण पडूं जो कि दया, योग, भक्ति, जप-तप, पूजा, नियम- संयम और परोपकार आदि द्वारा प्राप्त है सकूँ)

हिन्दी= तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएं मुझमें स्थित नहीं  रहती। जरा, मेरे योग-एश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं सब जीवों का पालक हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ,  किन्तु मैं इस विराट अभिव्यक्ति का भाग नहीं हूँ,  क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ । जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार  समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो।

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।७।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भुतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।८।।

कुमाऊँनी:
हे कुन्तीपुत्र! कल्पक् अन्त हूंण पार् सब्बै जीव मेरि प्रकृति में समै जनीं और दुहर् नयीं कल्पक् आरम्भ में, मैं उनूकैं अपणि शक्ति द्वारा फिरि उत्पन्न करि दिनूं । यौ सम्पूर्ण विराट जगत् म्यर् अधीन छू, येक् ल्हिजी  मेरि इच्छाल् बार-बार प्रगट हूँ और बार-बार विनष्ट लै है जां।
( अर्थात् भगवान् ज्यु सर्वोपरि , सर्वशक्तिमान,  अनादि और अजन्मा छन्। यौ बात हमन् कैं समजि ल्हीण चैं जगत् क् आरम्भ करंण हौवो या विनाश करंण यौ सब भगवान् ज्यु क् हाथ में छू। हमर् काम छू भगवान् ज्यु कि भक्ति करंण और उनूं पार् श्रद्धा पूर्वक विश्वास करंण। तब जे लै हौल् भलै हौल् । जय श्रीहरिः)

हिन्दी= हे कुन्तीपुत्र! कल्प का अन्त होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और दूसरे नये कल्प के प्रारम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ । सम्पूर्ण विराट जगत् मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी इच्छा से अन्त में विनष्ट हो जाता है।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
 
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार

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