
कुमाऊँ के चंदकालीन परगने-सीरा और अस्कोट
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
सीरा
सरहद- पूर्व में हलाबाँज व कंडाली छीना इसे अस्कोट से अलग करते हैं। उत्तर में इसके व जोहार के बीच गोरीगंगा तथा कोटाली सुजान बुंगा हैं। पश्चिम में रामगंगा इसे गंगोली से भिन्न करती है। दक्षिण इसके व सोर के बीच रसलापाटा तथा विछिलका बिरखम नामक पर्वत हैं।
पुराणी पट्टियाँ- आठबीसी, बारबीसी, डिडीहाट, माली, कसाण (यह पट्टी अब नहीं है)।
ऊँचे पर्वत- खांडाधुरा, देवचुला, सीराकोट, सिरथाम, सानदेव, जहां सिंगारपुर, जतियाखान, दरदेव का डाँडा, मसूरदेव का धुरा, गुडिलाकार परीखान।
नदियाँ- डिंडेश्वर, बालआँति, भाड़ीगाड़, रैतिस, ठुलीगाड़, परगाढ़, डोका, पाला, ककडाली आदि । पर सबसे बड़ी नदी रामगंगा है, जो रामेश्वर में सरयू के साथ मिलती है।
देवता- खाड़ाधुरा में घंटेश्वर महादेव हैं। इस जगह रैका राजा के वक्त में डोटी, बंजाग, अछाम तक के आदमी मेले में जमा होते थे। अक्सर इस देवता को घंटे चढ़ाये जाते हैं। चंद राजाओं के समय से यह मेला कम हो गया। अब काली पार के लोग राज्य बदल जाने से नहीं आते। देवचुला पहाड़ में भागालिंग महादेव हैं। हर साल भादों में मेला लगता है। रामगंगा के किनारे बालीश्वर महादेव हैं। कहते हैं कि त्रेतायुग में इस लिंग की स्थापना वानरों के राजा बाली ने की थी।
यहाँ चैत्र महीने की पूर्णमासी को मेला होता था। अब विषुवत् संक्रांति का होता है। यह तिजारती मेला है। भोट व देश का माल यहाँ पर बिक्री को आता है। जोहार, दार्मा, व्यास, चौदांस, दानपुर, सोर, सीरा, अस्कोट, गंगोली काली कुमाऊँ के लोग तथा अल्मोड़ा के महाजन यहाँ जमा होते हैं। सुहागा नमक, पश्मीने, कंबल, पंखियाँ, मुश्क नाभे, चँवर, निरबीसी, कटुकी, माँसी, मूंगा, गंद्रेणी, जंबू, मोती, कपड़े, मिसरी, मेवे, गोले, दाख, बादाम, छुहारे, पान, सुपारी इत्यादि चीजें बेची व खरीदी जाती हैं।
डिंडीहाट यहाँ का मुख्य स्थान है। ऊँची व ठंडी जगह में है। दो पहाड़ों के बीच नदी के किनारे धूप सेकने को रेका राजा जाड़ों में यहाँ आते ये । यहाँ बाजार भी था । पुराना महल टूटा पड़ा है । कई अन्य खंडहर भी है। डिंडीहाट के ऊपर दिगतड़ एक मैदान जगह है । रेका राजा के वक्त यहाँ पर बड़ा मेला लगता था । चंद राजाओं ने इसे बंद कराकर गंगोली में जारी किया था, जो अब फिर बालीश्वर रामगंगा में होने लगा है। बाराबीसी पट्टी में ताँबे की खान बहुत बड़ी है । इसे राजखान कहते हैं । यहाँ ताँबा बहुत अच्छा निकलता था। एक ओर ताँबे की खान बमनगाड़ में है, लेकिन वह पुरानी है। पट्टी माली के मुसमोली गांव में एक पेड़ नागकेशर का बहुत पुराना है । इसके फूल राजदरबार में आते थे । यह हैजे की दवाई भी होनी कही जाती है।
यह परगना रेका राजा हरमल्ल के समय तक डोटी में शामिल था। बाद को कुमाऊँ में शामिल हो गया । दिगतड़ पाटा के ऊपर पश्चिम तरफ़ पहाड़ की चोटी पर सिराकोट अब तक विद्यमान है। इसमें रैका राजा रहते थे। इसके भीतर देवी व भैरव के मंदिर भी थे, जो टूटे पड़े हैं । इस किले से नीचे नदी के भीतर-ही-भीतर दो मील की सुरंग है, जो अब टूटी पड़ी है । इस किले को सेनापति पुरुषपंत ने जीता था। जब से चंद-राजाओं के हाथ अाया, यह बड़ा कसूर करनेवाले लोगों के लिये कारागार नियुक्त किया गया । इसी के पास एक नया किला भी है । पर अब दोनों टूटे पड़े हैं । नया किला बनाने की बाबत यह कहावत है कि एक दिन जब राजा शिकार को गये थे, तो चोटी के ऊपर हिरन ( कांकड़) ने राजा पर हमला किया । राजा ने कहा, हिरन की हिम्मत हमला करने की कैसे हो सकती है। यह भूमि का गुण है । अतः वहाँ पर किला बनाया गया । इसी सीराकोट किले में राजा दीपचंद मय दो पुत्रों के कैद किये गये थे । बाद को राजा मोहनचंद के हुक्म से मारे गये।
इस प्रान्त में पहले केले बहुत होते थे । लोग केले की फलियाँ तोड़ने का ढोल, नक्कारे बजाते तथा बंदूक्त छोड़ते जाते थे, इसलिये कि कहीं केले के वृक्षों में बाघ न घसा हो । बालीश्वर के ऊपर एक सुन्दर मंदिर है, जिसे कहते ६ कि एक हाथवाले कारीगर ने बनाया था । इकरार यह था कि मंदिर रात। ही में बनेगा, रात ही में प्रतिष्ठा होगी । पर मंदिर बनाते-बनाते सुबह हो गई, इससे प्रतिष्ठा रह गई।
यहाँ पर तड़ शब्द से विभूषित बहुत सी जगहें विद्यमान है। यथा दिगतह, लिखतह, धिंगतड़, पीपलतड़, दुबतड़, श्रमतड़, बलतड़ आदि। रामगंगा के किनारे थल तथा लगभग ८००० फ़ीट की ऊँचाई पर डिंडीहाट, ये ही दो स्थान इस पट्टी में प्रधान हैं। डिंडीहाट में इस समय एक मिडिल स्कूल है।
डिंडीहाट यहाँ का मुख्य स्थान है। ऊँची व ठंडी जगह में है। दो पहाड़ों के बीच नदी के किनारे धूप सेकने को रैका राजा जाड़ों में यहाँ आते थे। यहाँ बाजार भी था। पुराना महल टूटा पड़ा है। कई अन्य खंडहर भी हैं। डिंडीहाट के ऊपर दिगतड़ एक मैदान जगह है। रैका राजा के वक्त यहाँ पर बड़ा मेला लगता था। चंद राजाओं ने इसे बंद कराकर गंगोली में जारी किया था, जो अब फिर बालीश्वर रामगंगा में होने लगा है। बाराबीसी पट्टी में ताँबे की खान बहुत बड़ी है। इसे राजखान कहते हैं। यहाँ ताँबा बहुत अच्छा निकलता था। एक ओर ताँबे की खान बमनगाड़ में है, लेकिन वह पुरानी है। पट्टी माली के मुसमोली गांव में एक पेड़ नागकेशर का बहुत पुराना है। इसके फूल राजदरबार में आते थे। यह हैजे की दवाई भी होनी कही जाती है।
यह परगना रैका राजा हरमल्ल के समय तक डोटी में शामिल था। बाद को कुमाऊँ में शामिल हो गया। दिगतड़ पाटा के ऊपर पश्चिम तरफ़ पहाड़ की चोटी पर सिराकोट अब तक विद्यमान है। इसमें रैका राजा रहते थे। इसके भीतर देवी व भैरव के मंदिर भी थे, जो टूटे पड़े हैं। इस किले से नीचे नदी के भीतर-ही-भीतर दो मील की सुरंग है, जो अब टूटी पड़ी है। इस किले को सेनापति पुरुषपंत ने जीता था। जब से चंद-राजाओं के हाथ आया, यह बड़ा कसूर करनेवाले लोगों के लिये कारागार नियुक्त किया गया। इसी के पास एक नया किला भी है। पर अब दोनों टूटे पड़े हैं। नया किला बनाने की बाबत यह कहावत है कि एक दिन जब राजा शिकार को गये थे, तो चोटी के ऊपर हिरन ( कांकड़) ने राजा पर हमला किया। राजा ने कहा, हिरन की हिम्मत हमला करने की कैसे हो सकती है। यह भूमि का गुण है। अतः वहाँ पर किला बनाया गया। इसी सीराकोट किले में राजा दीपचंद मय दो पुत्रों के कैद किये गये थे। बाद को राजा मोहनचंद के हुक्म से मारे गये।
इस प्रान्त में पहले केले बहुत होते थे। लोग केले की फलियाँ तोड़ने को ढोल, नक्कारे बजाते तथा बंदूक्त छोड़ते जाते थे, इसलिये कि कहीं केले के वृक्षों में बाघ न घुसा हो। बालीश्वर के ऊपर एक सुन्दर मंदिर है, जिसे कहते हैं कि एक हाथवाले कारीगर ने बनाया था। इकरार यह था कि मंदिर रात ही में बनेगा, रात ही में प्रतिष्ठा होगी। पर मंदिर बनाते-बनाते सुबह हो गई, इससे प्रतिष्ठा रह गई।
यहाँ पर तड़ शब्द से विभूषित बहुत सी जगहें विद्यमान है। यथा दिगतड़, लिखतड़, धिंगतड़, पीपलतड़, दुबतड़, श्रमतड़, बलतड़ आदि। रामगंगा के किनारे थल तथा लगभग ८००० फ़ीट की ऊँचाई पर डिंडीहाट, ये ही दो स्थान इस पट्टी में प्रधान हैं। डिंडीहाट में इस समय एक मिडिल स्कूल है।
अस्कोट
अस्कोट प्राचीन कत्यूरी राजाओं के राजवंश की एक छोटी सी पर प्रतिष्ठित राजधानी है। विराट कत्यूरी साम्राज्य का अब यही एक स्मारक है।
ऊँचे पर्वतों के नाम- धज, साज, गोबरस, लेख, सिंहालीखान, नाकोट, चंफाचल, जमतड़ी, हैड़ीखान, छिपलाधुरा, दारचुला, पयांपौड़ी। इन सबमें छिपला व धज पर्वत सबसे ऊँचे हैं।
नदियाँ- सांगकी नदी गोबरस पहाड़ से, चर्मा नदी डिंडीहाट से, गोमती अस्कोट से, गोरी जोहार से और सैतिस सीराखेत गाँव से निकलकर काली में मिल जाती हैं । गलांती खेती, फुला, रेलागाड़ छोटी-छोटी नदियां हैं। काली व गोरी इस इलाके की बड़ी नदियाँ हैं। इनका संगम जौलजीवी में होता है। यहाँ पर सन् १९१३ से कार्तिक संक्रान्ति को एक तिजारती मेला होने लगा है।
छिपुला (१३०००) उर्फ नाजुरकोट के पहाड़ में एक बहुत बड़ी गुफा है । तीसरे साल जाड़ों के मौसम में वहाँ मेला होता है । पूजा के समय पुजारी लोग शंख, घंट और भेरी वगैरह बाजे बजाते हुए उस गुफा में घुसते हैं। वहाँ पत्थर में से एक लोटा पानी निकलता है, फिर बंद हो जाता है। इसमें देवता की बड़ी करामात मानकर पूजा करते हैं। यहाँ एक तालाब भी है। भी तीसरे साल वर्षा-ऋतु में मेला लगता है। छिपुला देवता की पूजा होती है। उस ओर के जमीदार अपने लड़कों का जनेऊ भी करते हैं। इसी तालाब में एक छोटा-सा मकान पत्थरों का बना है। इसमें वही जा सकता है, जिसके ऊपर देवता नाचता है। यह तालाब सिर्फ़ बरसात में भरा रहता है। गरमी और जाड़ों में सूख जाता है।
चंपाचल पहाड़ में मल्लिकार्जुन महादेव हैं। यहाँ साल में दो बार मेला लगता है। इस मेलेवालों को खाना रजवार देते थे। कारण यह है कि पहले इस महादेव की पूजा डोटी के इलाके में होती थी। सौ वर्ष से ज्यादा हुए, जब रजबार अस्कोट को स्वप्न हुआ था कि अब से पूजा चंफाचल पर्वत में होगी। तब से वहीं मंदिर बनाया गया।
लखनपुर कोट- यह कोट चंफाचल पहाड़ अस्कोट के पूर्व तरफ काली किनारे है। अस्कोट बसने से पहले अस्कोट के राजा इस कोट में रहते थे। इसी कोट के पास बगड़ीहाट नामक बाज़ार था, पर अब यहाँ पर खंडहर-मात्र हैं। काली के किनारे की भूमि खूब उपजाऊ है। घी, शहद केला, बासमती, आम और अमरूद यहाँ खूब होते हैं।
मुख्य स्थान- अस्कोट खास को, जहाँ रजबार साहब रहते हैं, देवल भी कहते हैं। यहाँ रजबार तथा उनके भाइयों के भवनों के अतिरिक्त कुछ दुकानें, डाकखाना और फोरेस्ट बँगला हैं। गर्खा, सिंहाली, मलाना, कनालीछीना, धारचूला और बलुवाकोट अस्कोट के मुख्य स्थान हैं। यहाँ पाठशालाएँ भी हैं। धारचूला में जाड़ों के दिनों में भोटियों के नीचे आने से काफ़ी चहल-पहल रहती है।

लोग- तल्ला अस्कोट में चारों वर्ण के हिंदू विद्यमान हैं। मल्ला अस्कोट में अधिकतर डोटी के लोग बसे हैं। ऊँचे-ऊँचे पर्वतों में राची, जुमा, कनार श्रादि गाँवों में प्राचीन निवासी रहते हैं, जो बड़े सीधे-सादे हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ के आदि निवासी भी, जिनको रावत, राजी या किरात कहते हैं, कहीं-कहीं पाये जाते हैं। ये अब बहुत कम रह गए हैं।
पेशा- मुख्यतः कृषि-कर्म और पशु-पालन है। बहुत-से लोग नौकरी भी करते हैं । सेना में सिपाही हैं। मल्ला अस्कोट के लोग ऊन कातते तथा बकरियाँ पालते हैं। ऊन, नमक और सुहागे का ब्यापार भी करते हैं। यहाँ चटाइयाँ भी अच्छी बनती हैं। रावत लोग काठ के वर्तन सुन्दर बनाते हैं।
प्रबंध- तल्ला व मल्ला अस्कोट में करीब १४२ गाँव हैं। तल्ला अस्कोट में केवल ४-५ गाँव हिस्सेदारी के हैं, शेष खायकर हैं। मल्ला अस्कोट में ५-६ ग्राम खायकरों के हैं, शेष में सिरतान हैं।
यह परगना पहले डोटी में शामिल था। बाद को कत्यूरी राजाओं की एक शाख यहाँ आई। पहले उनको डोटी के अधीन रहना पड़ा, बाद को वे चंदों के नीचे मांडलीक राजा हो गये। अँगरेज़ी राज्य में वे रजबार कहलाते हैं। काशीपर को छोड़कर कुमाऊँ के सब ज़मींदारों में प्रतिष्ठित समझे जाते है। क्योंकि यहाँ पर बड़े भाई को गद्दी मिलने का नियम है । रियासत के बटवारे का नियम नहीं है। छोटे भाई के वंशवालों को गुजारा मिलने का नियम है।
रजबार या राजबार की दो उत्पत्तियाँ हमारे सुनने में आई हैं- (१) राज+ वर = राजवर, गजात्रों में श्रेष्ठ। (२) राज + बारह याने १२ राजाओं में से एक। उस समय १२ राजा थे, यथा कत्यूरी, चंद, खस, शाई, मल्ल, बम, मणकोटी, बशेड़ा श्रादि। अतः १२ राजाओं में से एक राजा रजबार कहलाये। कह नहीं सकते, इनमें से कौन उक्ति ठीक है।
बिंकेट साहब के बंदोबस्त के समय जितने हिस्सेदार अस्कोट के थे, वे प्रायः खायकर बनाये गये, और खायकर सिरतान बनाये गये। रजबार साहब एक छोटे से ताल्लुक्केदार करार दिये गये। यहाँ सिरतनों को अनेक तथा बायकरों को भी कई कष्ट कृषि और लगान-संबंधी हैं। सिरतानों को रजबार साहब जब चाहें निकाल सकते हैं, जितना लगान चाहें लगा सकते हैं। दीन प्रजा से एक प्रकार की बेगार ली जाती है, जिसे 'विसौंदी' कहते हैं। इस बेगार द्वारा इन असामियों से बाजार भाव से चौथाई मूल्य पर ग़ल्ला लिया जाता है। इस समय विसौंदी में घी एक रुपये का तीन सेर, चावल एक रुपये के २४ सेर, गेहूँ ४० सेर, जौ ६० सेर के भाव लिये जाते हैं। इनके अलावा नज़राना, बेलीबासा, बिसासो, झगुली, टीका, सिरती श्रादि टैक्स दिये जाते हैं। बेगार ली जाती है। मछलियाँ मारनी होती हैं। जौलजीवी के मेले में भी बेगार ली जाती है तथा रजबार साहय ३०-४० आदमियों को लेकर गाँव-गाँव में दौरा करते हैं। उनका खर्च उठाना पड़ता है। इस प्रकार प्रजा को अनेक कष्ट हैं। किंतु जब तक कृषक कानून ठीक-ठीक तौर से तरमीम न किया जाय, तब तक प्रजा को सुख नहीं मिल सकता। रजबार अच्छी प्रकृति के हुए, तो वे प्रजा को प्रसन्न रखते हैं, अन्यथा यदि सख्त मिज़ाज के हुए, तो प्रजा असंतुष्ट रहती है।
इतिहास- पहले यहाँ किरात और नाग पूजक लोग रहते थे। पीछे खसजाति के अभ्युदय के समय यहाँ उनका प्रभुत्व रहा। उनमें कोई बड़ा शासक न था, बल्कि छोटे-छोटे राजा थे। अस्कोट के अस्सीकोट उसी समय के हैं, यद्यपि इस समय कुछ अस्कोट के बाहर भी हैं।
जब सोमचंद द्वारा स्थापित चंद-राज्य कालीकुमाऊँ में वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, गंगोली में मणक टी राजा अपनी अंतिम साँसें ले रहे थे, और पड़ोस कसोराकोट में मल्ल राजा सिहासनासीन थे। उस समय अस्कोट में अस्सी खसराजा राज्य करते थे। कोई शक्तिशाली शासक वहाँ न था। उस समय कत्यूर का राज्य भी छिन्न-भिन्न हो गया और वहाँ के अन्तिम सूर्यवंशी महाराजा बिरदेव या ब्रह्मदेव के वंशज यत्र-तत्र राज्य के हिस्से करने लगे थे। इन्हीं में से ब्रह्मदेव के पोते तथा त्रिलोकपाल के पुत्र राजा अभयपाल सन् १२७६ में यहाँ आये। खस-राजाओं से अस्सीकोट लेकर अस्कोट राज्य कायम किया। सन् १२७६ से १५८८ तक अभयपाल के वंशज यहाँ के शासक रहे। इस बीच का इतिहास अलभ्य है। सन् १५८८ में राजा रायपाल श्री गोपी ओझा द्वारा मारे गये। केवल एक छोटे बालक महेन्द्रपाल 'वाल'-जाति की एक स्त्री के द्वारा सुरक्षित होने से किसी प्रकार बच निकले। यह छोटे राजकुमार राजा रुद्रचंद के पास भेजे गये। इन्होंने ३०० रु० वार्षिक कर पर कुं० महेन्द्रपाल को अपना करद राजा बनाया। राजबार महेन्द्रपाल से अभयपाल (२) तक का इतिहास भी अप्राप्य है। सन् १७४२ में राजबार उच्छवपाल गद्दी पर बैठे। सन् १७७८ में जब कुमाऊँ में गोरखा राज्य स्थापित था, तो गोरखों ने मालगुजारी ३००) से २०००) कर दी। राजबार रुद्रपाल और महेन्द्रपाल में युद्ध हुआ। ये दोनो गोरखा सरकार से अपनी प्रभुता स्थारित कराना चाहते थे। हिस्सा राजबार रुद्रपाल के पास था। अँगरेजी सरकार के समय भी मुकद्दमेबाजी हुई। सन् १८४३ में वह तीसरा हिस्सा भी बिक गया। १८५५ में इसको राजबार पुष्करपाल ने लाला तुलाराम साह खजांचीनी से खरीदा। राजबार रुद्रपालजी के वंशज अब गंगोली के रौलखेत नामक गाँव में रहते हैं।
१८४० में राजबारी के लिये झगड़ा हुआ। अन्त में बहादुरपाल राजवार बनाये गये। तभी से यह फैसला हुआ कि गद्दी का बटवारा नहीं होगा। सन् १८७१ में राजबार बहादुरपाल के मरने पर राजबार पुष्करपाल गद्दी पर बैठे। यह अच्छी प्रकृति के पुरुप बताये जाते हैं। यह ऑनरेरी मजिस्टेट भी बनाये गये। इनके बाद राजवार गजेन्द्रपाल गद्दी पर बैठे। इनके बड़े पुत्र कुँ. भूपेन्द्रपाल का १९२४ में देहान्त होने से इनके द्वितीय पुत्र कुं० विक्रमबहादुरपाल सन् १९२९ में गद्दी पर बैठे।
(इस खानदान में कुं० खड़कसिंहपाल साहब ने भी अच्छा नाम कमाया। आप तिब्बत के पोलिटिकल पेशकार थे। बाद को डिप्टी कलेक्टर हो गये।)
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
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वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
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