
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
आठूं अध्याय (श्लोक सं. १० बटि १९ तक)
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।१०।।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।११।।
कुमाऊँनी:
मरण बखत् जो मनखी अपुंण प्राणों कैं भौहोंक् मध्य (आज्ञाचक्र) में स्थिर करि ल्यूं और योगबल द्वारा अविचलित मनैल् भक्ति पूर्वक परमेश्वरक् स्मरण करूँ ऊ निश्चित रूपैल् भगवान् ज्यु कैं प्राप्त हूंछ । जो वेदों क् ज्ञाता छीं, जो निरंतर ओंकार उच्चारण करनीं और जो संन्यासधारी ठुल-ठुल ऋषि-मुनि छन्, ऊं ब्रहमचर्य क् अभ्यास करनीं । आब मैं तुमूंकैं ऊ सरल विधि बतूनूं जैल् क्वे लै साधारण मनखी मुक्ति-लाभ करि सकूँ ।
( अर्थात् मुक्ति प्राप्त करणाक् ल्हिजी ब्रह्मचर्य और योगाभ्यास जरूरी बतै रौ)
हिन्दी= मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राणों को भोंहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित ही भगवान् को प्राप्त होता है। जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ऊंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। ऐसी सिद्धि की इच्छा रखनेवाले ब्रह्मचर्य व्रत का अभ्यास करते हैं अब मैं तुम्हें ऐसी विधि बताऊंगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमस्थितो योगधारणाम्।।१२।।
कुमाऊँनी:
जब सब्बै इन्द्रियों है विरक्ति है जैं ऊ स्थिति कैं योगधारणा कयी जां । इन्द्रियों क् सब द्वारों कैं बन्द करि बै , मन कैं हृदय में और प्राणवायु कैं कपाव में स्थापित करिबेर् मनखी आपूं कैं योग में स्थापित करि सकूँ । हे अर्जुन! जो अनन्य भावैल् निरन्तर म्यर् स्मरण करूँ वीक् ल्हिजी मैं सुलभ छूं किलैकि ऊ मेरि भक्ति में हमेशा-हमेशा लागी रूं।
(अर्थात् इन्द्रियों क् द्वार बन्द करणक् अर्थ यौ छू कि जिबड़क् स्वाद, नाकैकि गन्ध, कानूंक् सुणंण , आखौंक् द्यखण और त्वचा स्पर्श अपंण वश में हुंण चैं, तब मन हृदय में स्थित परमात्मा क् ध्यान में मगन है जां । तब मनखी कैं अपंण ज्ञानक् या अपंण द्वारा करी हुई भल् कर्मूंक् अभिमान नि हुंन और जो हमेशा भगवान् ज्यु क् चिन्तन में लागी रूं वीक् ल्हिजी भगवान् सर्व सुलभ हुंनी।)
हिन्दी= समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरन्ति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।१४।।
कुमाऊँनी:
यौ प्रकारैल् योगाभ्यास में स्थिर हैबेर् और अक्षरों क् दुर्लभ संयोग ओंकार क् उच्चारण करते हुए जो म्यर् चिन्तन करूँ और देह त्याग करूँ ऊ निश्चित रूपैल् अध्यात्मिक लोकों कै जां । हे अर्जुन! जो अनन्य भावैल् निरन्तर म्यर् स्मरण करूँ वीक् ल्हिजी मैं सुलभ छूं किलैकि ऊ मेरि भक्ति में हमेशा-हमेशा लागी रूं।
(अर्थात् ओम्, ब्रह्म या भगवान् एकै छन् ओम् शब्द सबन् है सरल छू , जो हर बखत ओम् उच्चारण करते रूँ और उच्चारण करते हुए शरीर त्यागूं ऊ त् निश्चित रूपैल् अध्यात्मिक लोकों कै प्राप्त करूँ । और "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" यौ मन्त्र क् जाप लै कलियुग में लाभदायक छू, यस् गुणी लोग कूनीं)
हिन्दी= इस योगाभ्यास में स्थिर होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानि ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान् का चिन्तन करता हैऔर अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से अध्यात्मिक लोकों को जाता है। हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से मेरा स्मरण करता है, उसके लिये मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशास्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।१५।।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।
कुमाऊँनी:
मिकैं प्राप्त है बेर महापुरुष, जो भक्तियोगी छीं ऊं कभ्भीं लै दुखों है भरपूर यौ अनित्य जगत् में नि लौटन्, किलैकि उनूकैं परम सिद्धि प्राप्त हैई छन् । यौ जगत् में सर्वोच्च लोक है ल्हिबेर् निम्नतम सार्रै लोक दुखोंक् घर छनां, जति जन्म और मरणक् चक्र चलते रौं। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मनखी म्यर् परम धाम कैं प्राप्त करि ल्यूं ऊ फिरि कभ्भीं जन्म नि ल्यून्।
(अर्थात् यौ संसार और देवलोक या अधोलोक सब्बै दुखन् है भरपूर छनां, जो महापुरुष छीं, योगी छीं या धर्मात्मा छीं और अपुंण भल् कर्मूंक् कारण भगवान् ज्यु क् धाम कैं प्राप्त है जनीं ऊं फिरि कभ्भीं लै यौ जगत् में दुःख भोगणक् ल्हिजी जन्म नि ल्हीन । मित्रो! भगवान् ज्यु अर्जुनाक् माध्यमैल् हम सबन् कैं बतूणई कि धर्मक् अनुसार, शास्त्रोंक् अनुसार या फिरि हमर् समाजक् धर्मात्मा लोगूंक् दिशानिर्देशन् में अपुंण जीवन परमेश्वरक् ध्यान् में लगूंण चैं और यौ नश्वर संसार दगै मोह नि करंण चैन्।)
हिन्दी= मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्र लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।१७।।
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।१८।।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।१९।।
कुमाऊँनी:
मनखिक् गणना अनुसार एक हजार युगों कैं मिलैबेर् ब्रह्मा ज्युक् एक दिन और यतुकै ठुलि रात बताई जैं । ब्रह्मा ज्युक् दिनैंकि शुरुआत में सब्बै जीव व्यक्त है जनीं और रात हुंण पार अव्यक्त में विलीन है जनीं । जब-जब ब्रह्मा ज्युक् दिन हूँ तब सब जीव प्रकट हुंण लागनीं और जब ब्रह्मा ज्युकि रात हैंछ त् ऊं सब जीव असहाय जस विलीन (खत्म) है जनीं ।
(अर्थात् , सारांश यौ छू कि यौ संसार अनित्य, भ्रम और कल्पना मात्र छू , जरा देर दिन छू त् जरा देरम् रात लै हुणैछु येक् ल्हिजी मनखी जतुक् लै पुण्य (भल् काम) करि सकूँ करंण चैं और यौ नश्वर संसार दगै मोह बंधन नि बादंण चैन्। "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" जपते हुए भगवान् ज्यु कि आराधना करते रूंण लाभप्रद छू)
हिन्दी= मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है, और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है । ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और जब रात्रि होती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं । जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं।
जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

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