
जिम कार्बेट पार्काक् शेर......
रचनाकार: ज्ञान पंत
पहाड़ भये त
खाल्ली ढुँङ-पाथर
नि हुँन ....
बोट - डाव
ढोर - ङँगर और
मुँणिं में पाँण ले
हुनेर भये .....
मैं
जिन्दी'की बात करणयूँ ....
पहाड़ है सकैं मगर
आँखन में
"पाँणि" भये त
मनखी
कभै मरन न्हाँ।
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बाड़न में न सही
गमल' न मैयी
फूल त खिलनेर भये .....
चहारदीवारी भतेर बैठी
मैंस कि जाँणौं कि
सबनहै पैलीं
घाम
काँ पुजों .......
शहरन में
उल्ट सिस्टम छ
भ्यार घाम ऐ जाँ
भतेर
अन्या्रै रुँछ ...
जब जाँणै
खिड़की नि खोलो
पत्त नि लागन ......
शैद योयी कारण छ
कि पहाड़ में
खिड़की कैं नि हुँन ......
घाम
सिद मोवै थैं पुजौ
उज्याव ल्ही बेरि।
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तु
बादवै देखण मे रये
चौमासन् में
न्यारै जि हो्ल कै हरौछै
ह्यूँन में
रौन छैं बैठि रये
रुढिन में
त्योर बरमान चड़कौं
रिङाई लागैं
तु हड़ी रये .....
मुनि टोपि बेरि
लुकि रये
आपणैं घोल भतेर ......
आब्बै बर्ख लागैलि
द्यो तौड़ाट सुँण
बन्धा्र देख ....
पाँणि बुज्ज 'न चा धै
बर्यात जसि लागि रै .....
" अगाश " में
बादव लागी भै त
यो सब
देखणैं कोशिश करी कर ......
"बर्ख"
आफि है जनेर छ
तेरि जिन्दगी में ले।
शब्दार्थ:
मुँणि --- नीचे
बादवै -- बादलों को
न्यारै --- अनोखा
ह्यूँन ---- जाड़ौं में
रुढिन ---- गर्मी में
बर्ख --- वर्षा
बन्धा्र --- छत से टपकती पानी की धारा
बुज्ज ---- बुलबुले
June 03, 06, 2017

...... ज्ञान पंत
ज्ञान पंत जी द्वारा फ़ेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी से साभार
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