मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- नटार

पहाड़ में खेती में "नटार" मतलब खेत से चिड़ियों को भगाने के लिए बनाया जाने वाला ढाँचा (Scare Crow) होता है। Natar is Kumaoni version of scare crow

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- "नटार"
लेखक: प्रकाश उप्रेती

पहाड़ में खेती हो न हो लेकिन "नटार" हर खेत में होता था। "नटार" मतलब खेत से चिड़ियों को भगाने के लिए बनाया जाने वाला ढाँचा सा। तब खेतों में जानवरों से ज्यादा चिड़ियाँ आती थीं। एक -दो नहीं बल्कि पूरा दल ही आता था। झुंगर, मंडुवा, तिल, गेहूं, जौ, सरसों और धान सबको सफाचट कर जाते थे। कई बार तो उनके दल को देखकर ईजा हा...हा ऊपर से बोल देती थीं लेकिन तब चिड़ियाँ निडर हुआ करती थीं। दूर भागने की जगह वो निर्भीक होकर दाने चुगती रहती थीं।

खेत में बीज बोने के बाद ईजा की दो प्रमुख चिंताएं होती थीं: एक 'बाड़' करना और दूसरा "नटार" लगाना। बाड़, पशुओं के लिए और नटार, चिड़ियों के लिए। बाड़ के लिए ईजा '"रम्भास" (एक पेड़) और अन्य लकड़ियां लेकर आती थीं। सम्बल से उन्हें 'घेंटने' के बाद लम्बी लकड़ियों को सीधा और छोटी लकड़ियों को आड़ा- तिरछा लगा देती थीं। ईजा जब उन्हें घेंटती थीं तो हमारा काम गड्ढे से मिट्टी निकालने का होता था। यही खेत में जाने का बहाना भी था। ईजा कहती थीं- "पटोपन आर्छे तो के काम ले का, मांटे निकाल दे तू" (खेत में आ रखा है तो कुछ काम कर ले, मिट्टी ही निकाल दे)। ईजा जब तक ऐसा नहीं कहती, तब तक हम खेत में इधर-उधर से पत्थर लाकर घर बना रहे होते थे। ईजा जैसे ही हमें इधर-उधर से खेत में पत्थर लाते देखती तो कहतीं- "मैं पटोपन ढुङ्ग चाणने मर रूंह्न और तुम यो मेसुक पटोपन पे ढुङ्ग ल्या में छा" (मैं खेत से पत्थर हटाते-हटाते मर रही हूं और तुम हो कि दूसरे के खेत से यहाँ पत्थर ला रहे हो?)। ईजा की इस बात को सुना-अनसुना कर हम अपना घर बनाने पर ही लगे रहते थे। ईजा ठीक से बाड़ लगा देती थीं ताकि कोई पालतू या अन्य जानवर न घुस  सके।

बाड़ लगाने के बाद जो काम होता था वो नटार बनाने का होता था। ईजा घर के जितने फटे-पुराने कपड़े होते उन सबको लेकर खेत में ले आती थीं। अब हमारा ध्यान घर बनाने में कम और उन कपड़ों की तरफ ज्यादा होता था। उन कपड़ों में से कुछ-कुछ कपड़े उठा कर पूछते- "ईजा यूँ काक पैंट हेय, यो भोटू बुबुक छै क्या ?, ईजा यो झोल जस काक होय, यो तो म्यर पैंट छु...."( ईजा ये किसकी पैंट है, ये नेहरू जैकिट बुबू की है, ईजा ये झोले की तरह किसका है, ये तो मेरी पैंट है)। ऐसा कहते हुए हम अपनी पैंट को रख लेते थे। ईजा जोर से कहतीं -"अब तिकें ऊ चिरी पैंट भलि लगेलि" (अब तुझे वो फटी पैंट अच्छी लगने लगेगी)। ईजा चट हमारे हाथों से उसे झटक लेती थीं और फिर नटार बनाने लग जाती थीं। 

एक लंबी झाड़ीनुमा लकड़ी लेकर उसे हाथ-पांव के आकार के रूप में तराश देती थीं।फिर उसमें अलग-अलग कपड़े पहनातीं । कुछ घास और सूखी झाड़ियों से उसका सर बना देती थीं। सबसे ज्यादा मेहनत ईजा उसके हाथ बनाने में करती थीं। ईजा जब यह सब कर रही होती थीं तो हम बीच में ही बोल पड़ते थे , "ईजा हमर नटार गिरू कु हैबे भल होंण चहों"( मां हमारा नटार गिरीश लोगों के नटार से अच्छा होना चाहिए)। ईजा कहतीं- "ले तुई बने ले पे" (लो तुम ही बना लो)। यह कहते हुए भी ईजा काम पर लगी रहती थीं।

ईजा जब नटार बना देती थीं तो हम उसमें अपने कपड़े देखकर बड़े खुश होते थे-"ईजा य म्यर पैंटक नटार" (ईजा ये मेरी पैंट का नटार)। वो हो-होई कहतीं और काम करती रहतीं। ईजा जब एक खेत से दूसरे खेत में नटार बनाने जाती थीं तो हम पत्थर से नटार पर निशाना लगाने लग जाते थे। जैसे ही ईजा की नज़र पड़ती, ईजा जोर से डांटती- "के कम छै यो, ख़्वर फोडि ड्यूल त्यर", आँ  छैं नि आने तू मथ" (क्या कर रहा है, सर फोड़ दूँगी तेरा, ऊपर आता है कि नहीं)। ईजा की आवाज सुनते ही हम चट से ऊपर के खेत में चले जाते थे। 

"ख़्वर फोडि ड्यल त्यर" एक तरह से  ईजा की स्वघोषित राष्ट्रीय डांट- फटकार थी। दिन में 10 बार तो इसका प्रयोग हो ही जाता था। हमसे लेकर गाय-भैंस सबका ईजा "ख़्वर ही फोड़" रहीं होती थीं जबकि मारा कभी एक मच्छर भी नहीं था।
नटार को खेत में लहराता देख हम बड़ा खुश होते थे। 
खासकर अँधेरी रात में जब "छिलुक" (आग पकड़ने वाली लकड़ी)  के उजाले से नीचे वाले खेत में नटार हवा में झूलता हुआ दिखाई देता था तो हम ईजा से कहते- "ईजा देख ऊ भिसोंण जस लागो मो" (ईजा देखना वो भूत जैसा लग रहा है)। ईजा भी एक नज़र देखती और कहतीं- 'काव भिसोंण छु'..
पहाड़ में खेती में "नटार" मतलब खेत से चिड़ियों को भगाने के लिए बनाया जाने वाला ढाँचा (Scare Crow) होता है। Natar is Kumaoni version of scare crow

अब आधे से ज्यादा खेत बंजर हैं। चिड़ियों की वैसी आमद भी नहीं रही। अब तो सुअर का ज्यादा आतंक है। वह किसी नटार से डरता नहीं है। ईजा अब भी अपनी तसल्ली के लिए नटार लगा देती हैं लेकिन उससे होता कुछ नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे हम अपनी तसल्ली के लिए पहाड़ को याद भर कर लेते हैं लेकिन उससे बदलता कुछ नहीं है...

"नटार" का किस्सा सुनिए, प्रकाश उप्रेती जी के स्वर में - हैलो हल्द्वानी FM के सौजन्य से:
मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-41

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