सुन्दरकाण्ड कुमाऊँनी भाषा में - भाग-०६

कुमाऊँनी भाषा में सुन्दरकाण्ड पाठ - Kumauni Bhasha mein Sunderkand path

कुमाऊँनी भाषा में "सुन्दरकाण्ड" भाग-०५ (Sunderkand-06)
कुमाऊँनी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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आज रामलीला मंच के तालीम कक्ष में 
कुमाउनी सुन्दरकाण्ड के पाठ में 
प्रतिभागी सभी सज्जनों, एवं आदर्श रामलीला कमेटी गरूड़ 
को साभार हार्दिक धन्यवाद।

श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा सुन्दरकाण्ड का पाठ

श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते

कुमाउनी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड

दोहा-
सब चरित उनूँलै देखीं धरी कपट कपि देह। 
प्रभु गुण हृदय सराहनीं शरणागत पर स्नेह।।51।।

प्रकट बखानणीं राम स्वभाव। अति सप्रेम भुलि गींनां दुराव।। 
शतुरादूत वानरों ल् जाँणिं। सबै बादि कपीस पास ल्हौंनिं।।
कौंछ सुग्रीव सुणो सब बानर। अंगभंग करि भेजो निशाचर।।
सुणीं सुग्रीव वचन कपि दौड़ा। बादि दूत सेनाक् फ्यर फिराया।।
भौत विधि कपि मारण लागा। दीन पुकारा तदपि नि त्यागा।।
जो काटला कान नाक हमरि। कसम उकैं कौशलाधीशैकि।।
सुनि लक्ष्मण सब ढीक बुलाया। दया आइ हँसि तुरन्त छुड़ाया।।
रावण कैं दिया तुम य पाती। लछिमन वचन बाँच कुल घाती।।

दोहा-
कया मुखागर मूढ़ हुँणीं म्यौर संदेश उदार। 
सीता दि उनुँहैं मिल नैं ऐगो काल तुमार।।52।।

तुरन्त न्याडि़ लछिमन पद माथा। हिटा दूत वर्णनैं गुणगाथा।। 
कौंनैं राम यश लंका आया। रावण चरण ख्वर न्यौड़ाया।।
हँसिबे दशानन पुछँछ बाता। क नैं षुक आपणि कुशोबाता।।
फिर के छु खबर उ विभीषण की। नजीकै ऐगेछ मृत्यु जैकी।। 
करनैं राज लंका सठ त्यागी। हल जौंनूँ क् किड़ अभागी।।
फिर कओ भालु बानर कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।। 
जनर जीवनक् रख्वारा। भय कोमल हिय सिंधु बिचारा।।
कओ तपस्वियों की बात फिरी। जानवर हि में डर भौत मेरी।।

दोहा-
भेट भैछ या कि लौटि कानोंल् सुयश सुनि म्यर। 
क छ न शतुर दल तेज बल भौत चकित हिय म्यर।।53।।

नाथ कृपा करी पुछँछा जसी। मानो कई रीस छोडि़ तसी।।
मिलैछे जैबे नानभै तुमर। जाते ही राम तिलक वी कर।। 
रावण दूत हम सुणीं काना। बानरों ल् बादि दिं दुख नाना।।
कान नाक जब काटण लागा। राम सपथ दिबेर हम त्यागा।।
पुछछा नाथ राम कटकाई। सौ कोटि मुखौं लै वर्णन निहनिं।। 
उ नाना वर्ण भालु कपि धारी। मुख विकट विशाल छि भयकारी।। 
जैल पुर जला हत च्यल तुमरा। सब बानर में विक बल थोड़ा।।
असंख्य नाम भट कठिन कराला। असंख्य हाथीबल बड़ विसाला।।

दोहा-
द्विविध मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केसरी निसठ शठ जामवंत बलराशि।।54।।

य कपि सबै सुग्रीव समाना। उनुँ जसै कोटि गिणुँ को नाना।।
राम कृपा अतुलित बल उँनुँकणिं। तिनड़ समान उँ त्रिलोक गिणनीं।।
यस मींल सुण कानों दशकंधर। अठार पद्म सेनापति बंदर।।
नाथ सेना में उ कपि न्हैंती। जो न तुमुँकैं जितो रण मेंजी।।
भौत रीसल् मिननि सब हाथा। पै आज्ञा नि दिना रघुनाथा।।
सोषि द्यौंल सिंघु दगै माँछ ब्याल। नतरि पुर भरि द्यौं पर्वत विशाल।।
मिनि माँटै मिलौंल दशशीसा। यसा वचन कौंणीं सब कीशा।।
गरजी डाँठनीं सहज असंका। मानो नेवण चाँनीं य लंका।।

दोहा-
सहज वीर कपि भालु सब फिर ख्वार परि प्रभु राम। 
रावण कोटी कालों हणिं जिति सकनीं संग्राम।।55।।

राम तेज बल बुद्धि अधिकाई। सौ हजार शेण नि सकन गाइ।। 
सोशि सकनिं एक बाँण सौ सागर। तब भै कैं पुछनिं नीतिनागर।। 
उनार वचन सुणीं उर समुद्र हैं। माँगनिं बाट् कृपा भरि मन में।। 
सुणनैं वचन हँसँछ दशसीसा। यसा वचन कौंनीं सब कीशा।। 
सहज डरूवक् वचन दृढ़ाई। सागर हैं ठानी मचलाई।। 
मूढ़ झुठि के करछै बढ़ाई। शत्रुबल बुद्धि थाह मींल पाई।। 
सचिव डरपोक विभीषण जैक। विजय विभूती का जगत वैक।। 
सुणि खल वचन दूतकि रीस बढि़। समय विचारि पत्रिका निकाई।। 
रामक् भुलुलै देछि य पाती। नाथ बाँचि ठंडी करो छाती।। 
हँसि उ बौं हाथल् ल्हिल्हिछ रावण। बुलै सचिव लागँछ सठ बाँचण।।

दोहा-
बातों लै मन ब्वत्यै सठ झन घाल कुलम खीस। 
राम विरोध नि बचलै प शरण विष्णु अज ईस।।  56क।।

या त्यागि मान नान भै जस प्रभु पद पंकज भृंग। 
या राम बाणकि अग्नि में खल ह कुल सहित पतंग।।56ख।।

सुणनैं सभय मन मुख मुस्काई। कौं दशानन सबुकैं सुणाई।।
भिमें पडि़ हाथ पकड़ुँ अगासा। नान् तपस्वीक् वाक्विलासा।। 
कँ दूत नाथ सत्य सबै वाणीं। समझो छोडि़ प्रकृति अभिमानी।।
सुणों वचन म्यार छोडि़ क्रोधा। नाथ राम हैं त्यागि विरोधा।। 
भौत कोमल रघुवीर स्वभाव। यद्यपि सारै लोकाक् राऊ।।
मिलि कृपा प्रभु तुमुँ परि करला। हिया अपराध नैं एक धरला।।
जनकसुता रघुनाथ कैं दियो। इदु कई स्वामी म्यर करि दियो।।
जब वील कौंछ दिंण वैदेही। चरण प्रहार करँछ सठ वीहैं।।
न्यौड़ै चरण ख्वौर गोय उ वाँ। कृपा क् सागर रघुनायक जाँ।।
करि प्रणाम आपु काथ् सुणाइ। राम कृपा आपणि गति पाई।। 
ऋषि अगस्त्य क् श्राप पै भवानी। राक्षस हई भय उ मुनि ज्ञानी।। 
वंदन राम चरण बार बारा। मुनि आपु आश्रम में खुट धरा।।

दोहा-
विनती नि मानन जलधि जड़ ग्याय तीन दिन बीति। 
कय रामल् रीस ल् तबै भय बिन हनि न्हैं प्रीति।।57।।

लक्ष्मण ल्याओधैं धनुष बाँण। सोशूँ य समुद्र विशिख कृसानूँ।। 
दुष्ट हैं विनय कुटिल हैं प्रीती। सहजै कंजूस हैं सुन्दर नीति।। 
ममतारत हैं ज्ञान कहानी। अति लोभी हैं वैराग्य बखानी।। 
क्रोधी हैं शान्ति कामि हरि कथा। ऊसर बीज बोई फल जसा।। 
यस कै रघुपति चाप चढ़ाया। य मत भौत लखनक् मन भाया।। 
संधानीं प्रभु अगिनीं कराला। उठी उदधि उर उ अन्तर ज्वाला।।
मगर स्यापमाँछगण अकुलाँण।।जलणीं उ जन्तुजलनिधि जब जाँण।। 
सुनै थाई भरि मणिगण नाना। बाँमण रूप आ छोडि़ माना।।

दोहा-
काटि पतिर क्यव भल फवौं कोटि जतन कदु सींच।
विनय नि मानि खगेश सुँण डाँठण पर झुकँ नीच।।58।।

डरी सागर लै प्रभु खुट पकड़। क्षमो नाथ सबै अबगुण म्यार।।
वायु अगास अग्नि पाणि धरणीं। इनरिछु नाथ सहज जड़ करनी।। 
तुम प्रेरित माई उपजाई। सृष्टि लिजिक सब ग्रथों लै गाई।। 
प्रभु आज्ञा जैहैं जसि हैंछ। उ वी भाँति रौंण में सुख पाँछ।। 
प्रभु भलै कर मिकैं शिक्षा दि दी। मर्यादा फिर तुमरी बढ़ाई।।  
उ ढोल गवार शुद्र पशु नारी। सबै यै शिक्षा का अधिकारी।। 
प्रभु प्रतापलै मि जब सुकि जौंल। उतरलि सेना मर्याद नि रौल।।
प्रभु आज्ञा अपेल वेदों गाइ। करो उ जल्दि जसि तुमरि रजाई।।

दोहा-
सुणि विनीत वचन अति कौंनी कृपालु मुस्काई। 
जसिक उतरैं कपि सेना तात करो वी उपाय।।59।।

नाथ नील नल कपि द्वी भाई। नान्छिनाँ ऋषि आशिष पाई।।
उनार छुङिबे पहाड़ भारी। तैराल समुद्र प्रताप तुमरी।।
मि फिर हिय धरि प्रभु प्रभुताई। करूँल बल अनुसार सहाई।।
यै विधि नाथ सागर बधाओ। जसि सुयष त्रिलोक गाइ जाओ।।
य बाणल् म्यर उत्तर ठीक वासि। हतो नाथ खल नर पापराशि।।
सुणि कृपालु सागर मन पीड़ा। तुरन्तै हरी राम रणधीरा।।
देखि राम बल पौरूष भारि। खुशी पयोनिधि भया सुख्यारी।।
सब चरितों कैं प्रभुकैं सुणाय। चरण वंदन करि समुद्र ल्हैगोय।।

छंद-
आपु घरहैं ल्हैगो सागर श्री रघुपति कैं मत भौतै भाँछ।
य चरित्र कलिमलकै हरणि यथामति तुलसीदास गाँछ।।
सुख भवन संसय समन दमन विषाद रघुपति गुणगण।
छोडि़ सबै आस भरोस हमेशा गा धैं सुण सठ मन।।

दोहा-
सबै सुमंगलदायक छू रघुनायक गुणगान।
सादर सुणणीं तरि जाल् भवसिंधु बिन जलयान।।  60।।

मास पारायण, चौबीसवाँ विश्राम
पचुँ सोपान समाप्त
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः। कलयुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री राम चरित मानस का पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।
कलिगगाक् सबै पापां क् नाश करणीं वाल श्रीरामचरितमानस क् य पँचुँ सोपान समाप्त हौछ।
(सुन्दरकाण्ड सम्पूर्ण)

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