
कुमाऊँनी भाषा में "सुन्दरकाण्ड" भाग-०५ (Sunderkand-05)
कुमाऊँनी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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आज रामलीला मंच के तालीम कक्ष में
कुमाउनी सुन्दरकाण्ड के पाठ में
प्रतिभागी सभी सज्जनों, एवं आदर्श रामलीला कमेटी गरूड़
को साभार हार्दिक धन्यवाद।
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा सुन्दरकाण्ड का पाठ
श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते
कुमाउनी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड
दोहा-
छन रामु सत्यसंकल्प प्रभु छु सभा कालवश तेरि।
नि दिये दोष अब ल्हैगीं रघुवीर कि शरण मीं।।41।।
यस कै हिटनीं विभीषण जब। आयु विहीन भया सबै तबै।।
साधु अपमान तुरन्त भवानी। सब कल्याण की करि द्यौं हानी।।
रावण जबबै विभीषण त्यागा। भय वैभव बिन तबै अभागा।।
गो हरशि उ रघुनायक पासा। करिं मनोरथ भौत मन मेंजा।।
देखुल् जैबे कमल जलजाता। कँउँ ललैंन सेवक सुखदाता।।
जो पद पलासि तरि ऋषिनारी। दंडक वन हैं उ पावनकारी।।
जो पद जनकसुता हिया धरी। जो कपट मृग का दगडि़ दौड़ीं ।
हर उर तालकमल पद जो छैं। अहोभाग्य मि देखूँल उनुँकैं।।
दोहा-
जो चरण पादुका भरत रौनिं मन लगैबेर।
वी चरण आज द्यखुँल मिं य आँखों ल् जैबेर।।42।।
य विधी करने सप्रेम विचारा। आया झिट में सिंधु का वारा।।
बानरोंल् विभीषण औंण देख। जाँण क्वे छु शत्रु क् दूत विशेष।।
उकैं धरि कपीस पास आया। समाचार सब उकैं सुणाया।।
फिर कँ सुग्रीव सुणो रघुराई। आय मिलण दशानन क् भाई।।
कौंनीं प्रभु सखा समझिबेर कया। कांनिं सुग्रीव सुणों नरनाहा।।
जाँणि नि जानिं निशाचर माया। कामरूप के कारण आया।।
हमरै भेद ल्हींहौं सठ आय। बादि धरँण म्यारा यास भाव।।
सखा नीति तुम भली विचारी। म्यर प्रण शरणागत भयहारी।।
सुणि प्रभु वचन हरष हनुमाना। शरणागत वत्सल उँ भगवाना।।
दोहा-
शरणागत जो त्यागनिं आपु अनहित अनुमानि।
उ नर पामर पापमय उनुँ देखणैं में हानि।।43।।
कोटि विप्र बध लागि हो जैकैं। आओ शरण उ तजो नैं उकैं।।
सनमुखै हँछ जीव म्यार जबै। कोटि जन्म पाप नसि जाँनि तबै।।
पापवंत क हौंछ सहज स्वभाव। म्यरा भजन एकै कभैं नि छाज।।
जो यदि दुष्ट हृदयकै उँ हौंछीं। तो उ के म्यार सन्मुख याँ औंछि।।
निर्मल मनक् जन वी मिकैं पाँछ। म्यकै कपट छल छिद्र नैं भाँछ।।
भेद ल्हिहौं भेजि य दशशीसा। तब लै के भइ हानि कपीशा।।
जग में छन सखा निशाचर जतु। लक्ष्मणैं मारि द्यल लड़ैं में कदु।।
जो भयभीत आय शरणाई। धरनुँ उकैं प्राणों की वाई।।
दोहा-
द्वियै भाँति उकै ल्हि आओ हँसि क कृपानिकेत।
जै कृपाल कै कपि हिटा अंगद हनू क् समेत।।44।।
सादर उकैं अघिल करि बानर। ल्हैगिं जो रघुपति करुणाकर।।
टाड़ देखि वील द्वियै भ्राता। नयनानन्द दान का दाता।।
फिर राम छविधाम कैं देखीं। रया ठिठकि एकटक पल रोकी।।
विशाल भुज कंजारूण लोचन। शाँवल आँङ प्रणत भय मोचन।
शेर जास् कान आयतछाति। मुख असंख्य मदनों मन मोहणीं।।
पुलकि शरीर आँखों में पाणिं। मन धरि धीर कै कमठ वाणीं।।
नाथा दशानन क् मि भ्राता। राक्षस कुल जन्म म्यर सुरत्राता।।
सहज पाप प्रिय तामसी देह। जसि उल्लू कैं अन्यार परि स्नेह।।
दोहा-
कानों लै सुयश सुणि बे आयुँ भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरत हरण शरण सुखद रघुवीर।।45।।
यस कै दंडवत करण उनुँ देखा। तुरत उठा प्रभु हर्ष विशेषा।।
दीन वचन सुणि प्रभु मन भाया। भुज विशाल पकडि़ हि लगाया।।
नान् भै दगै भैट ढीक भैटाईं। बुलाईं वचन भगत भय हारी।।
कओ लंकेश सहित परिवारा। कुषल कुठौर वास तुमारा।।
खल मंडली बसैं दिन राती। सखा धर्म निभौंछा के भाँति।।
मि जाँणनूँ तुमरि सब रीति। अतिनीति निपुण न भाँछ अनीती।।
बड़ भल वास नरक उ ताता। दुष्ट संग झन दियो विधाता।।
आब् पद देखि कुशल रघुराया। जो तुम करी भक्त जाँणि दाया।।
दोहा-
तब तक कुशल न्हैं जीवों की स्वैणाँ मन विश्राम।
जब तक भजन नैं राम का शोकधाम तजि काम।।46।।
तब तक हि में राय दुष्ट नाना। लोभ मोह डाहा मद माना।।
जब तक हिय नि बसन रघुनाथा। धनुष बाँण धर तरकस बाँधा।।
काइपट्ट रात माइ अन्यारी। राग द्वेष उल्लुहूँ सुखकारी।।
तब तक बसैं जीव मनैं मजी। जब तक प्रभु प्रताप रवि न्हैंतीं।।
अब मीं कुशल मिट भय भारा। देखि राम पद कमल तुमारा।।
तु कृपालु जै पैर अनुकूला। उकै नि ब्यापँ भव त्रिविध सूला।।
मि निशिचर स्वभावक अति अधमा। शुभाचरण करि केलै निछना।।
जनर रूप मुनि ध्यान नि आया। वी प्रभु हरषि हि मिकैं लगाया।।
दोहा-
अहोभाग्य म्यर असीम अति राम कृपा सुख पुंज।
देख आँखाँल विरंचि शिव सेवन युगल पद कंज।। 47।।
सुण सखा आपु कौंनैं स्वभाव। जाँणनीं भुसुंडि शंभु गिरिराऊ।।
जो नर हौंछ चराचर द्रोही। आओ सभय शरण तक मेरी।।
त्यागूॅं मोह मद कपट छलणां। झट करि दिनूँ उ साधु समाना।।
मै बाब भै च्यल और दारा। तन धन घर मित्र औ परिवारा।।
सबुकैं ममता धाग बटोई। म्यर पद मनबै वादि भलि डोरि।।
समदर्शी इच्छा जै कैं न्हैंती। हर्ष शोक भय न्हैंती मन मेँजी।।
यस सज्जनम्यर हिय भैटूँ कसिक।लोभीक् हृदय धन बसों जसिक।।
सदा तुमुँ जस्सै उ संत प्रिय मिकैं। और निहर धरनूँ नैं देह कैं।।
दोहा-
सगुण उपासक परोपकारि रत निति दृढ़ नेम।
उ नर प्राण समान मिहैंणिं जनर द्विज पद प्रेम।।48।।
सुणों लंकेश सबै गुण तुमुमैं। तात तुम भौतै प्रिय छा मिकैं।।
राम वचन सुणि बानर यूथा। सबै कौंनिं जय कृपाबरूथा।।
सुणनैं विभीषण प्रभु की वाणिं। नि अघान श्रवणामृत जाँणी।।
चरण कमल पकड़ा कदु बारा। हिय अटाँनै न प्रेम अपारा।।
सुणो देव सचराचर स्वामी। प्रणतपाल हिया क् अंतर्यामी।।
हिय कुछ पैली वासना रई। प्रभु पद प्रीतीकि गाड़ उ बगी।।
अब कृपालु आपु भक्ति पावनी । दिया सदा शिवक् मन भावनी।।
एवमस्तु कौंनीं प्रभुरणधीरा। माँगछ तुरन्त सागर क् नीरा।।
यद्यपि सखा तेरी इच्छा न्हैंती। पर म्यर दर्शन अमोघ जग मेंजी।।
यस कै राम तिलक उकैंणिं करा। फूलां बरख अगास अपारा।।
दोहा-
रावण कि रीस अग्नि बै आपुँ स्वाँसकि हाव प्रचण्ड।
जगन विभीषण कैं बचैबेर दिदेछ राज अखण्ड।।49क।।
जो सम्पति शिवल् रावण कैं दि दिण पर दसमाथ।
वी संपदा विभीषण कैं संकोचि दिणीं रघुनाथ।।49ख।।
यस प्रभु दौडि़ भवानी औरौं कैं। उ नर पशु बिनै पुँछड़ सिंगैं कै।।
आपुसेवक जाँणि उ अपणाछ। प्रभुक् स्वभाव कपि कुल मन भाँछ।।
फिर सर्वज्ञ सबों हियाक् वासी। सर्वरूप सबै रहित उदासी।।
बुलाय वचन नीति प्रतिपालक। कारण मनखि दनुज कुल घालक।।
सुणों कपीश लंकापति वीर। के विधि तरियों जल निधि गंभीर।।
भरी मगर स्याप माछ जाती। अति अगाध दुस्तर सब सब भाँती।।
कौंछ लंकेश सुणों रघुनायक। कोटि सिंधु शोषणि तोमर सायक।।
यद्यपि तदपि नीती यसि गाई। विनय करियो समुद्र हैं जाई।।
दोहा-
प्रभु तुमर कुलगुरू जलधि कौल उपाय विचारि।
बिन प्रयास सागर तरि जाल सब भालु कपि पारि।।50।।
सखा तुमूँल कौछ भल उपाय। करियो देव जो हना सहाय।।
सलाह नैं य लखन क् मन आय। राम वचन सुणि अति दुख पाय।।
नाथ दैव क् के करण भरोस। सोसो सिंधु करो मन में रोष।।
कायरों क् मन क् एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुणिं हँसनैं बुलाइं रघुवीरा। यसै करूँल धरो मन धीरा।।
यस कै प्रभु नानभै समझाइं। सिंधु नजीक ग्याया रघुराई।।
पैलि प्रणाम कर ख्वर न्यौड़ाई। भैट फिर तट पर कुश बिछाई।।
जब विभीषण प्रभु पास आया। पछिल रावण दूत पठ्याया।।
मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 26-10-2020

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