चंदकालीन कुमाऊँ - गंगोली परगना

कुमाऊँ का इतिहास-चंद वंश के समय में गंगोली परगना -History of Kumaun-Gangoli Pargana in Chand dynasty, Kumaon ka Itihas, History of Kumaun

कुमाऊँ के परगने- गंगोली

(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार

३८. गंगोली 

सरहद- पूर्व, पश्चिम व दक्षिण में इसके रामगंगा व सरयू हैं।  उत्तर की ओर दानपुर का परगना है।  यहाँ को तथा सोर परगने को जाने में बड़ी कड़ी चढ़ाई का सामना करना पड़ता है।  यहाँ पर १० मील की चढ़ाई तथा उतार है।  यहाँ की चढ़ाई जो सरयू से प्रारंभ होती है, उसे देख एक परदेशी ने पूछा था कि अब कितनी दूर गंगोली-हाट है, तो वहाँ पर किसी मनुष्य ने कहा-
"गेल गाँव की सोत चार
कहाँ हाट कटा बाजार।"
वह परदेशी घबराकर लोट गया। एक अंग्रेजी लेकर सोर-गंगोली की चढ़ाई अंग्रेजी अक्षर W की तरह है।

नदियाँ- सरयू रामगंगा, नरगूल व पातालगंगा हैं।  इसलिए इस परगने का नाम संस्कृत में गंगावली है अर्थात् गंगाओं की भूमि या दो गंगाओं के बीच की भूमि।

पर्वत- दियारी, मेरंग का ढांडा, लुवाथल का धुरा, झलतोला, धौलीनाग, कालीनाग, पिंगलनाग, बेनीनाग आदि।

देवी-देवता- हाट श्रीकालिका या महाकाली का मंदिर गंगोलीहाट के पुर्व की तरफ़ देवदारु बनी के बीच बना है।  बड़ा ही रमणीक स्थान है। कहते हैं यह देवी कभी-कभी रात के समय ऊँची आवाज से 'कीर्ति बागीश्वर महादेव को पुकारती थी।  उस वाणी को जो कोई सुनता था, वह उसी वक्त मर जाता था।  इस कारण आस-पास के लोग तंग होकर दूर जा बसे थे।  जब से श्रीशंकरचार्य ने आकर इस देवता को दूसरे पत्थर से ढक दिया, तब से देवीजी का पुकारना बंद हो गया है, और लोग भी आस-पास रहने लगे हैं।  यहाँ वैसे हर अष्टमी को लोग आते हैं, पर चैत्राष्टमी व कुँआर की अष्टमी को विशेष मेला होता है।

महिषासुर मर्दिनी देवी की पीठ यहाँ है।  कहते हैं कि देवीजी के साथ महिषासुर ने युद्ध इस गंगोली में किया था।  जिसमें महिषासुर, चंडमुंड, रक्तवीर्य आदि बहुत से दैत्य मारे गये थे।

काली देवीजी के मंदिर की जड़ में पातालगंगा बताई जाती है।  एक पहाड़ पर चढ़कर फिर गुफा के भीतर मशाल (छिलुक ) लेकर जाना पड़ता है।  वहाँ हवा तेज़ चलती है और नदी भी ज़ोर से बहती है, बल्कि हवा से मशाल बुझ जाती है।  यदि इसमें लाल या सफ़ेद मिट्टी घोली जाये, तो २ मील में वह बाहर निकलकर प्रकट हो जाती है।  भीतर-ही-भीतर गुफा में नदी बहती है।  सरयू व रामगंगा के संगम में रामेश्वर महादेव का मंदिर है। कहते हैं इस मंदिर की स्थापना श्रीरामचन्द्र जी ने की थी!  यहाँ भी मेला होता है।

गंगोलीहाट से उत्तर की ओर पाताल-भुवनेश्वर है।  एक गुफा के भीतर दूर तक जाना पड़ता है।  लोग इसे ताँबाखान भी कहते हैं।  पहले रास्ता तंग, बाद को अच्छा है। भीतर पानी भी है।  प्रकाश लेकर जाना होता है।  यहाँ बहुत सी उप-गुफाएँ हैं।  एक जगह शिव-पार्वतीजी जुआ खेल रहे।

गरुड़ का मुँह टेढ़ा है, क्योंकि जब उसने अमृत को जूठा करना चाहा, तो भगवान् ने चक्र से मारा।  कहते हैं, “एक रास्ते से एक हिरन (कांकड़) के पीछे एक कुत्ता गया था।  बाद को वे काशी पहुँचे।"  इसका वर्णन मानसखंड में भी आया है। 

कोटेश्वर में भी. गफा के भीतर महादेव हैं।  पुंगेश्वर व छीड़ेश्वर दो अन्य शिवमंदिर हैं, जो कोटेश्वर के निकट हैं।  कोटेश्वर में शिवरात्रि को तथा कार्तिक के महीने में मेला होता है।  सानीउड्यार में कहा जाता है कि शांडिल्य ऋषि ने तपस्या की थी।  इस समय यहाँ बगीचा है।  जोहारवाले मिलम के पास गोरी नदी के गल के पास भी शांडिल्य ऋषि का आश्रम होना कहते हैं।  सानी उड्यार से क़रीब दो मील की दूरी पर भद्रकाली देवी का मंदिर है।  यहाँ चैत्राष्टमी को मेला लगता है।

पुष्करिया पोखरी- रामगंगा के पश्चिम तरफ पहाड़ पर एक पोखर या तालाब था।  तालाब बहुत बड़ा था, जिसके कारण उसके आसपास के आबाद गाँव का नाम पोखरी हो गया।  कहते हैं, एक समय कुमाऊँ में कोई जाट राजा भी रहता था।  उसने उस तालाब के पूर्व तरफ़ एक नाली पहाड़ में काटकर तमाम पानी तालाब का बहा दिया।  वहाँ पर अब सुन्दर खेती होती है।  यह नाली अब तक होनी कही जाती है।  इस पोखरी के ऊपर टिबरी में एक गढ़ी है।  उसके चारों तरफ़ पत्थर में खाई खुदी है।  वह गढ़ी भी कहते हैं कि जाट राजा ने बनाई थी।  उसी के निकट चामुंडादेवी का मंदिर है।  इन दिनों इस गढ़ी में घास जमी है और जंगली जन्तु रहते हैं।  एक पहाड़ दिआरी नाम का बहुत ऊँचा है।  वहाँ हिम के निकट के वृक्ष पांगर वगैरह होते हैं।  कस्तूरो-मृग भी दिखाई देता है।  इसी पहाड़ के नीचे सरयू व रामगंगा के किनारे साल के वृक्ष भी हैं।  इस पहाड़ के उत्तर तरफ़ को एक बहुत बड़ी ताँबे की खान है, जिसे रै यानी राजखान कहते हैं। दूसरी ताँबे की खान पश्चिम की ओर है।  दो ताँबाखान अठिगाँव पट्टी में हैं।  लेकिन इनमें तीन खाने बड़ी हैं, एक छोटी है।  लोग दूर तक नहीं खोदते।  ऊपर से धातु को निकाल लेते हैं, पत्थर दिखाई दिया, तो फिर नहीं खोदते।  सन् १८३५ में ५०) में इन चार खानों की बोली बोलनेवाला कोई न मिला।

नागों का वर्णन- अठिगाँव, बड़ाऊँ व पंगराऊँ में नागों के बहुत मंदिर हैं- कालीनाग, बेनीनाग, पिंगलनाग, धौलनाग, फेनीनाग, खरहरीनाग, अठगुलीनाग।  इन नागों की पूजा होती है।  जब कालीय नाग को जमुनाजी में श्रीकृष्णजी ने बहुत मथा, और वहाँ से निकल जाने को कहा, तो उसने कहा कि गरुड़ से उसकी दुश्मनी है।  तब श्रीकृष्ण भगवान भगवान ने उसके सिर कुछ चिह्न बना दिया, और कालीनाग को कहा कि वह बर्फानी पहाड़ों को चला जावे।  कालीनाग महाशय कुमाऊँ में आ गए. और उनके मुसाहिब पिंगलनाग, धौलनाग भी यहीं आ बसे और यहाँ पूजे जाने लगे।  (पर भागवत तो कालीनाग के रमणक द्वीप में जाने का वर्णन है।  न-जाने यह रमणक द्वीप कौन था।)

गंगोलीहाट में एक पुराना नौला (बाँवरी) है, जिसको जाह्नवी का नौला कहते हैं।  इसको रैका राजा ने बनवाया था।  इसका जल उत्तम है।

पैदावार- यहाँ की भूमि खूब उपजाऊ है।  यहाँ का जमोल चावल मीठा होता है। घी, शहद भी अच्छा होता है। केले, नारंगी प्रसिद्ध है।  यहाँ मधु-मक्खियाँ बहुत पाली जाती हैं।

कविवर गुमानीजी ने अपने स्वदेश गंगावली की गुणा-गरिमा गाकर उसको अमर बना दिया है।  कूर्माचली-भाषा में ऐसी रसीली कविता करनेवाले कवि कूर्माचल में कम देखे गये हैं-
"केला, निम्बू अखोड़ दाड़िम रिखू नारिंग आदो दही। 
खासो भात जमालिको कलकलो भूना गडेरी गवा। 
च्यूड़ा सद्य उत्योल दूध बाकलो घ्यू गाय को दाणोदार। 
खांनी सुन्दर मौणियाँ धबड़वा गंगावली रौणियाँ॥"
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"बने बने काफल किल्मडोछ, बाड़ा मणी दाडिम काकड़ोछ। 
गोठन में गोरू लैण बाखड़ोछ, स्थातिन में है उत्तम उपड़ोछ।”

प्राचीन इतिहास- जमणकोट नामक एक किला है, जो वीरान है।  यहाँ पर कहते हैं कि थोड़े दिनों को एक पल्याल-जाति का राजा हुआ था, उसकी संतान अब पाली गाँव के पल्याल कहाते हैं।

कत्यूरी-राज्य के समय तमाम गंगोली का एक ही राजा था।  उसके नगर व किले का नाम मणकोट था।  राजा भी मणकोटी कहलाता था।  मणकोट का अब थोड़ा-सा चिह्न ही मात्र है।  कुछ टूटे मकान, सीढ़ियाँ तथा देवताओं के टूटे मंदिर हैं।  ८ पश्त तक इस वंश के राजा ने राज्य किया।  ये भी चंद्रवंशी थे।  बाद को चंद-राजाओं ने इन्हें हराकर इनका राज्य कुमाऊँ में शामिल किया।  ये लोग नैपाल के पिऊठणा नामक स्थान को चले गये।  अब भी इनकी सन्तान वहाँ पर है। मणकोट के पश्चिम तरफ गंगोलीहाट नामक बाजार था, जो अब भी गंगालीहाट कहा जाता है।  यहाँ अब भी छोटा-सा बाजार है।  डाकघर व डाक-बँगला है।  मिडिल स्कूल भी है।

यहाँ बाघ बहुत होते थे।  किस्सा भी है, "खत्याड़ी साग गंगोली बाघ।" पहले यहाँ के लोग इतने सीधे थे कि सरकारी चपरासी से ज्यादा डरते थे, बनिस्वत बाघ के, पर अब यहाँ के ज्यादातर लोग विद्वान्, धनवान् व गुणवान् हैं।  देश-देशान्तरों में उच्च पदों पर हैं। बाबा लक्ष्मणजंगम नामक साधु यहाँ हैं, उन्होंने एक संस्कृत-पाठशाला भी खोली है।

गंगोली के मुख्य स्थान बेनीनाग, गंगोलीहाट हैं।  छोटे-छोटे स्थान चौकोड़ी, धर्मघर, झलतोला, कांडा व सानीउड्यार हैं।  कांडा में पुराना हिन्दी मिडिल स्कूल है।  अब बेनीनाग व गंगोली में भी मिडिल स्कूल हैं।  यहाँ डाकबंगले व दूकान भी हैं।

३९. चौगर्खा
यह परगना गंगोली, काली कुमाऊँ, बारामंडल तथा कत्यूर के बीच में है।  इसकी पट्टियाँ ये हैं-रीठागाड़, लखनपुर, दारुण, रंगोड़, सालम, खरही।
पहाड़- ऊँचे पहाड़ जागीश्वर, बिनसर, मोरनौला है।
नदियाँ- पूर्व तरफ़ सरयू तथा सालम में पनार है।  पनार की मिट्टी धोने से भी सोना निकलता है। सुआल नदी भी इसकी सीमा को चाटती हुई बहती है।
देवता- जागीश्वर में अनेक देवता हैं।  इसीलिए किस्सा है-
"देवता देखण जागेश्वर, गंगा नाणी बागेश्वर"


श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे, 
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा, 
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com

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