
पैलिक मैस
रचनाकार: घनश्याम पाठक
मी भे ले पैलिक मैस जो मील देखीं, छी,
उनर ज्ञानक बार में ले बतोंनू वों के बतोंछी।
वों पढ़ी लेखी कम, पर अकल में हगिल छी,
उन दिनों गोंनों विकास उनर मन में रोंछी।
पैदल जाणीं बााटों कै, अफी भल बणों छी,
बाट सुदारहणि वों सपै गोंनों में पैली बतोंछी।
मिलि जुलि बे नान ठुल कामों में हाथ बटोंछी,
चाहे दार पतार हो या काज, कामों में ओंछी।
ढुँग ले लोंछी,सब झणी मिलि बे पाथर ले लोंछी,
कामक बाद केवल गुड दगैड़ि चाह वों पींछी।
कतुक भल मैस छी तब, निस्वार्थ भाव बतोंछी,
कैकी ले परेशानी समय पर सब हाथ बटोंछी।
आजक जापान में ग्राम सभा में काम करोंनी,
पैस सरकार बे औंनी, खर्च गों सभापति देखोंनी।
गोंनों विकास अपणें मनैलि, अपणै घरक करोंनी,
जनोंकैं मिलण चैं, निमिलन, अपण तिपुर,बडोंनी।
अपण गों में बाट बणि जानी, घर घर पाणि लगोंनी,
दुसार गोंनों में काम करण में अपण नियम बतोंनी।
पहाडों बे पलायन कुड बाड़ सब बाँझ पडि गयीं,
आबे वापस आवाद करो इनोंकैं, जो बाँझ है गयीं।
बिना सुविधा कसिक रौंल मैस यो क्वे नि बतोंणयीं,
जननकै फराँग हयी छी, वो हर तरफ टाँग अण्यूणयीं।
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घनश्याम पाठक, 03-07-2021
घनश्याम पाठक जी की फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पर पोस्ट से साभार
फोटो सोर्स: गूगल
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