
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-१७ बै अघिल
अट्ठारूँ अध्याय - मोक्ष सन्यास योग
अर्जुन बलाण
महाबाहु सन्यास तत्व कैं, भलिकै मैं समझण चाहूँ।
हृषीकेश ! हे हे केशि निषूदन! त्याग लै भली कै समझाओ।01।
श्री भगवान बलाण
काम्य कर्म सब निकरण कैं ही ाानिन लेसन्याय बतां।
सब कर्मन का फल कैं छाड़ि दिण अवद्वानन लै त्याग कयो।02।
दोष भरी सब कर्म त्याज्य छन कुछ मनीषिजन या कूनी।
यज्ञ, दान, तप तजण नि चैना कुछ ओरन को कथन एसो।03।
हे अर्जुन अब त्याग विषय में मेरा निश्चित मत कैं सुण।
पुरुषसिंह! यो त्याग लै निश्चय तीन प्रकार कई जाँ छऽ।04।
58
यज्ञ, दान, तप तजण नि चैना, यो अवश्य करणीय छनऽ।
यज्ञ ज्ञान तप विज्ञ जनन ले सदा पवित्र करि दीणी छन।।05।
इनने कैं करणो चैं छऽ फल त्यागी आसक्ति छोड़ी।
समझि आपण कर्तव्य पाथ्र! कर यो मेरो उत्तम मत छऽ।06।
नियत कर्म को त्याग करि दिणों, उचित न्हाति यो कै की तैं।
मोह विवश परित्याग करौ यदि तामस त्याग कई जालो।07।
काया क्लेया भय का कारण जो कर्म तजि दिनी दुःख समझि।
ऐसो राजस त्याग करण पर मिलि नि सकन त्याग को फल।08।
फल कैं औ आसक्ति कैं त्यागी, नियत कर्म कैं जो अर्जुन!
करनी निज कर्तव्य समझि वी सात्विक त्याग मानी जाँ छऽ।09।
दुखद कर्म को द्वेष नि हुन फिरि, हितकर में अनुराग नि हुन।
त्यागी सतोगुणी सन्यासी, संशय वीका कटी हुई।10।
कर्मन को संपूर्ण त्याग तऽ देह धरी दपर हे नि सकनं।
कर्म फलन को जो त्यागी छऽ वी यथाथ्रमें त्यागी छऽ।11।
इष्ट अलिष्ट और मिश्र छन तीन प्रकार कर्म का फल।
कर्म लिप्तकै मिलौं मरण पर, सन्यासी तैं क्ये नि हुन।12।
महाबाहु! छन पांचै कारण कोई कर्म का, बतैं दीं सुण!
सांख्य शास्त्र में कई गईं जो सब कर्मन की सिद्धिन हुण।13।
अधिष्ठान ओ कर्ता हुण चैं, करण हुनी फिरि अलग अलग।
विविध चेष्टा कतुक किसम की, पँचुवों कारण दैव हुँ छऽ।14।
मन वाणी शरीर का द्वारा नर जे क्ये कर्म करा।
न्याय और अन्याय जे करी बस य पाँचै हुतु हुनी।15।
यै पर लै जो आपणी आत्मा केवल कर्ता देखनै छऽ।
बुद्धि असंस्कृत हुण का कारएा, ऊ दूर्मति क्ये देखने न्हा।16।
मैं कर्ता छूँ भाव न जैको बुद्धि कती कै लिप्त नि हुनि।
हत्या करि सब लोकन की लै, मारन न्हा वी बन्धन न्हा।17।
ज्ञान ज्ञेय और ज्ञाता यो विविध कर्म चोदना’ कईं।
करण कर्म, कर्ता कैं ऐसिकै त्रिविध कर्मसंग्रह कूनी।18।
ज्ञान कर्म ओ कर्ता यों लै त्रिगुण भेद लै त्रिविध हुनी।
कपिल सांख्य में जसिक कई छन ठीक उसी कै उनन कै सुण।19।
खंड खंड में जो अखंड कैं अविनाशी कैं देखनो छऽ।
सब प्रणिन में एक भाव ले, समझ ज्ञान यो सात्विक भै।20।
अलग अलग को भेदभाव ही भिन्न भिनन नाना विधि लै।
जाणण में ऊँ छऽ सब प्राणिन में, जाण् वी ज्ञान भयो राजस।21।
आपण ’खाल’ कैं सागर जाणी बिना हेतु आसक्त हई।
तत्व अर्थ बिन क्षुद्र ज्ञान जो वीकै तामस समझि लियो।22।
नियत कर्म आसक्ति रहित जो राग क्ष्ेष बिन करी जानी।
फल की कोई इच्छा नी धरि उननैं थें सात्विक कूनी।23।
फल की इच्छा धरी कर्म जो, अहंकार करि करी जानी।
बड़ो परिश्रम हूँ करणा में सो राजस स बस समझि लियो।24।
क्ये परिणाम? हानि या हिंसा देख नै पौरुख ओकाल होलार।
मोह विवश करणै में लरगि गे वीं सब कर्म भया तामस।25।
अहंकार आसक्ति मुक्त जो धैर्यवान उत्साह भरी।
उदासीन फल सिद्धि विषय में वी कर्तासात्विक कूनी।26।
रागी फल को लोभी जै को हिंसा डाह अशुचि तन मन।
हर्ष शोक लै विचलित है जौ, राजस समझौ कर्ता कन।27।
चंचल,मूढ़, घमंडी, शठ जो परहित घातक औ अलसी।
दीर्घसूत्री दुःख मुनी रूँ ऐसो हूँ कर्ता तामसी।28।
बुद्धि और धृतिलै गुण कारण तीन तरह की है जानी।
अलग अलग कै कूँछ सबन कैं भलिक धनंजय ऊ लै सुण।29।
जो प्रवृत्ति निवृत्ति मार्ग कैं कार्य अकार्य अभय भय कैं।
बन्ध मोक्ष कैं ठीककै समझौ, पार्थ! सात्विकी बुद्धि छ वी।30।
अधरम धरम, कुकरम सुकरम, ठीक ठीक जो समझि नि पौ।
निश्चय में संशय उपजूणी पार्थ! राजसी बुद्धि भई।31।
जो अधर्म कैधर्म कै मानि ल्हीं उज्याव कैं अन्यारपटृ समझौ। ,
सब अर्थन कैं उल्ट सुझै द्यो पार्थ! तामसी बुद्धि भई।32।
धृति कूनी इजो धारण करि दीं, मन इन्द्रिय प्राणन का काम
वी धृति पार्थ! भई सात्विकी, योग धरूँ अविचल अविराम।33।
धर्म अर्थ औ काम कर्म में, फल की अभिलाषा धरि पार्थ!
यथा प्रसंग जुटैं दी। तनम न, अर्जुन! धृति तामसी भईं।34।
जैका कारण निद्रा भय कैं, शोक फिकर आलस मद कैं।
छाड़ि नि सकना मूढ़ बुद्धि जन, धृति तामसी भई अर्जुन!35।
ऐसिके सुख लै तीन तरह का मैं थें सुण हे भारत श्रेष्ठ!
रमण करी अभ्यास लै जनरा, दुख को अन्त हई जाँ छऽ।36।
पैली जो विष जस लागनो छऽ पर परिणाम हूँ अमृत जस वी।
सुख थें सात्विक कूनी ऊ बुद्धि में निजानन्द बै ऊँ।37।
स्पर्श जनित विषयेन्द्रिन को सुख, जो आरंभ में अमृत जस।
पर परिणाम लागौं विष को जस ऊ सुख कई जाँ छऽ राजस।38।
आदि औ परिणाम में जो सुख आत्मा कैं मोहित करि दीं।
निद्रालस्य प्रमाद इ ैउपजी, सो सुख तामस कई गयो।39।
धरा स्वर्ग में द्याप्तन जाँ लै, कती कोई प्राणी एस न्हा।
प्रकृति बै उपजी तीन गुणन का जो प्रभव हे छुटी रईं।40।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र का, कर्म का ले हे अर्जुन!
अलग अलग कै जो विभाग छन, गुण स्वभाव का कारण छन।41।
शम दम, तप अरु शोैच सरलता, ज्ञान, दान, विज्ञान, क्षमा।
ईश्वर प्रति आस्तिक्य बुद्धि यों ब्राह्मण कर्म स्वभाव बटी।42।
शौर्य और चातुय्र, तेल धृति युद्ध भूमि है भाजौ न जो।
दान और शासन की क्षमता क्षत्रिय कर्म स्वभाव बटी।43।
कृषि गोरक्षा ओ वाणिज यों, वैश्य कर्म स्वाभाविक छन।
परिचर्या और शिल्प श्ूद्र का यैं स्वाभाविक कर्म भया।44।
निज निज कर्मन लागी हुई नर सब िसद्धिन कन पूना छन।
आपण कर्म में निरत रूण पर जसिक सिद्धि हूँ सुण वीकन।45।
जै बट सब यो उदय भई छऽ जो सबको अन्तर्यामी।
निज कर्मन करि वीकी पूजा मानव हुँ छऽ सिद्धि स्वामी।46।
आपण धर्म गुण हीन ले भल भै, पर परधर्म सरल भल नै।
करि स्वधर्म का नियत कर्म कन, पाप नि हुन रूँ उज्वल मन।47।
सहज कर्म कैं आपण अर्जुन! दोषपूण्र ले छोड़िये झन।
कर्म मात्र में दोष घेरी छन, जस धूँ घेरि रूँछ चुल पन।48।
अनासक्त सर्वत्र बुद्धि छऽ आत्म जयी जी स्पृहा रहित।
परम श्रेष्ठ निष्कर्ष सिद्धि कैं सन्यासी ही प्राप्त करौं।49।
सिद्धि पई उपरान्त ब्रह्म की प्राप्त जसी हूँ मैं समझूँ।
यो संक्षेप में कौन्तेय! जो निष्ठा परा ज्ञान की छऽ ।50।
शुद्ध बुद्धि लै युक्त हई फिर, धृतिल ै आत्मा स्ववश करी।
इन्द्रिन का विषयन कैं छोड़ी, राग द्वेष कैं दूर धरी।51।
मिताहार एािन्त निवासी, काया, वाचा मन विजयी।
ध्यान योग में नित्य लागी हो, चित्त में हो वेराग्य छई।52।
अहंकार बल दर्प काम बै क्रोध परिग्रह आदिक बै।
मुचित हई मन निर्मम है जाँ, ब्रह्म स्वरूप् प्राप्त है र्जाँ।53।
ब्रह्मानन्द स्वरूप् प्रसन्न चित्त फिर नि करन शोच न आकोंक्षा।
सब प्राणिन की तैसमान रूँ मेरी परम भक्ति पे ल्हीं।54।
भक्ति हुणा परदतत्व ज्ञान हूँ मैं जस छूँ सब विदित हुँ छऽ।
मेरो तत्वज्ञान है जाण पर, मैं में ही प्रवेश करि जाँ।55।
सब कर्मन कैं करी सदा ही ल्ही केवल मेरा आश्रय।
मेरी कृपा लै प्राप्त करी ल्हीं नित्य सनातन पद अव्यय।56।
मन का द्वारा सब कर्मन को मेरी में करि ल्हे सन्यास।
बुद्धि योग को आश्रय ल्ही पर, सदा चित्त में मेरो निवास।57।
मैंमें चित धरि सब दुस्तर कैं, मेरी कृपा लै तरि जालै।
अगर नि सुणलै अहंकार वश, गति हूँ अधम उतरि जालै।58।
मै कदापि यो युद्ध करूँ नै अहंकार करि प्रण कर लै।
मिथ्या होलो निश्चय तेरो, प्रकृति विवश तू रण करलैं। 59।
स्वाभाविक ही बँधीहुई छै, कौन्तेय निज कर्मन लै।
जे नि चाहनै करण मोह वश, फिरि वी विवश हई करलै।60।
ईश्वर सब प्राणिन का भीतर अर्जुन! हृदय में बैठी रूँ।
तब वी की ही शरणपकड़ रे! सब प्रकार लै हे भारत! 61।
तब वी की ही शरण पकड़ रे! सब प्रकार लै हे भारत!
परम शान्ति वी कै प्रसाद हूँ, परम धाम वी दीं शाश्वत।62।
गोपनीय है गोपनीयतर, ज्ञान कथा मन में धरि ले।
पूर्ण रीति लै सब विचार कर, जसि इच्छा हो उस कर ले।63।
अती गोप्यतम अंतिम फिरि लै, सुणि ल्हे मेरा परम वचन।
अतिशय प्रिय छे त्वे थें कूँ छू! करण हूँ तेरो हित साधन।64।
मैं कन मन दे मेरो भक्त हो, मेरी वन्दना पूजा कर।
सत्य प्रतिज्ञा मेरी, मेरी मैं में मिल जालै मेरो प्रिय छै।65।
छाड़ि दे सब धर्मन कैं केवल, एकै मेरी शरण विचर।
मैं त्वे कन सब्बै पापन बै, मुक्त करूँलो ुिकर नि कर।66।
यो सब कूण नि चैन कभैं लै भक्तिहीन तप हीनन थें।
अथवा जो सुणनै नी चाहन, या जो मेरा निदक छन।67।
पर जो लैये गुप्त ज्ञान कैं मरा भक्तन थें कौला।
मेरी मरम भक्ति जो करलो निःसन्देह मकैं पालो।68।
मैंसन में क्वे वी है उत्तम मेरो प्रिय करणी नी इहो।
मेरी तैं लै ये पृथ्वी में वी है प्रियतर क्वे नी भैं।69।
हम द्वीनाउसंवाद रूप् में धर्मशास्त्र कैं जो पढ़लो।
मेरा मन में ज्ञान यज्ञलै ये मेरी पूजा होली।70।
दौष नि देखि जो श्रद्धा वालो, ये कन भलिक सुणी ल्हे लो।
मुक्त हई शुभ लोकन में यै पुण्य कर्म लै पे ल्हेलो।71।
क्ये एकाग्रच्तित ले अर्जुन! त्वीलै या सब योग सुणी।
क्ये अज्ञान मोह यो तेरो अहो धनंज्य नष्ट भयो!72।
अर्जुन बलाण
मोह नष्ट भै ज्ञान हई गो तुमार प्रसाद मेरो अच्युत।
थिर छूँ मे। सन्देह न्हाति क्ये पालन करुल वचन तुमरा।73।
संजय बलाण
श्री भगवान और अर्जुन को सुणौ मैंल संवाद ऐतण!
एतुकै सब यो छऽ पे्रमामृत अद्भुत करणी रोम हर्षण।74।
व्यासदेव ज्यू काप्रसाद लै योरहस्य मय योग सुणी।
साक्षात येगेश्वरहरि लै श्रीमुख बै जब कयो स्वयं।75।
करि करि याद यै संवादै जो, कृष्ण और अजुन में भै।
फिरि फिरिमैं रोमांचित हूँ ऊ औरै पुण्य दीणी महाराज!76।
फिरि फिरि याद करी श्री हरि का अति अद्भुत वर रूपैं को।
मकैं महा अचरजइ हूँ राजन! रोमांचित हूँ पुनः पुनः।77।
छन योगेयवर कृष्ण जै तरफ, जथकैं पाथ्र धनंजय छ।
श्री विभूति सब उती विजय छऽ अटल नीति यो निश्चय छऽ।78।
यै प्रकार अमृतकलश को अठृायँ अध्याय पूरो भयो।
संवत् द्वी हजार अट्ठाराह कृष्ण जन्म दिन म्हैंण।
अमृत कलश थापी गयो, पूरो भयो उचैण।।
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