
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
बारूं अध्याय - श्लोक (११ बटि २० तक)
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।
कुमाऊँनी:
यदि तुम म्यर् ल्हिजी कर्म करंण में असमर्थ छा, तो तुम अपंण कर्मूंक् फल कैं त्याग करि बेर आत्म-स्थिति हुणंक प्रयत्न करि सकंछा । यौ अभ्यास लै नि करि सकनां त् ज्ञानैकि खोज में लागि जाओ, पर ज्ञान है श्रेष्ठ ध्यान छू और ध्यान है लै श्रेष्ठ कर्म-फलूंक् त्याग छू, किलैकि त्याग ऐसि प्रवृत्ति छू कि वील् मन कैं शान्ति मिलि जैं।
(अर्थात् कर्म- फल क्ये लै मिलौ येकि चिन्ता छोड़ि बेर् जो श्रीभगवान् ज्यु प्रति आसक्त रहते हुए निरत् कर्म करते रूँ, यस् मनखि कर्तव्य-बोध कैं समजों और कर्तव्य- परायण मनखि, मिकैं क्य मिलौल यौ बातै कि चिन्ता नि करूंन, वीकि चिन्ता भगवान् ज्यु स्वयं करनीं। क्वे लै पदार्थ या फलौक् त्याग भौत् कठिन बात छू, जो यस् त्याग करि सकौं ऊ मनखि महान छू। और भगवान् ज्यु स्वयं बतूंण लै रयीं कि- ज्ञान और ध्यान है लै श्रेष्ठ छू त्याग।)
हिन्दी= यदि तुम मेरे इस भावनामृत में भी कर्म करने में असमर्थ हो, तो तुम कर्म के फल को त्याग कर आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करो, और यह भी नहीं कर सकते तो, ज्ञान का अनुशीलन करो, परन्तु ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, तथा कर्मों के फल का त्याग ध्यान से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि इससे मनुष्य को मनःशान्ति प्राप्त होती है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।१३।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१४।।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजतेच यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।
कुमाऊँनी:
जो कै दगै बैर नि धरौन्, सब्बै जीवोंक् प्रति दयालु रौं, जो आपुकैं स्वामी नि मानौंन्, झुट अहंकार है मुक्त छू, सुख और दुःख कैं एक समान समजों, हरदम आत्मतुष्ट रौं, आत्मसंयमी छू और निरन्तर मन-बुद्धि कैं स्थिर करि बेर् भक्ति में लागी रूं यस् भक्त मिकैं भौत् प्रिय छू। जो कैकैं कष्ट नि द्यून और कैक् द्वारा विचलित लै नि हुंन और सुख-दुख, डर या चिन्ता में लै एकनस्सै रूं ऊ मिकैं भल् लागूं।
(अर्थात् जब लै क्वे कष्ट ऐ जावो त् भगवान् ज्यु कि कृपा समजि बै अधीर नि हुण चैन्, दुःख ऐ रौ त् सुख लै आल् यस् सोचणीं दृढनिश्चयी भगवान् ज्यु कैं भल् लागूं और भगवान् ज्यु वीक् कष्ट कैं अपंण ऊपर लि लीन्ही। कष्ट शरीर कैं हूँ और शरीर हमर् कतई न्हैंति, यस् धारणा मन में हुंण चैं, इन्द्रियों कैं वश में करिबेर् मनखि सब कुछ प्राप्त करि सकूँ।)
हिन्दी= जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो स्वयं को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुंचता तथा जो किसी के द्वारा विचलित नहीं होता, जो सुख में दुःख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वही मुझे प्रिय है।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१६।।
यो न हृष्यतिन द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।१७।।
कुमाऊँनी:
जो समान्य कार्य-कलापूं पर आश्रित न्हां, शुद्ध छू, कुशल छू, बेफिकर छू, क्वे लै दुख कैं नि मानौन्, और क्वे फलप्राप्तिकि कामना नि करौन्। न कभ्भीं खुशि होंन् न शोक करौं , न पछताव करौं और नक् या भल् द्वियै प्रकारैकि वस्तुओं क् परित्याग करौं यस् भक्त मिकैं भौत् भल् लागौं।
(अर्थात् संसाराक् जो लै नक् या भल् काम छन् , शोक या दुःख छन्, इन सब्बूं है निर्लिप्त रूंणी जो म्यर् भक्त छू मैं वीकैं भौत्तै भल् माननूं।)
हिन्दी= मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य-कलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिन्तारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिये प्रयत्नशील नहीं है मुझे अतिशय प्रिय है । जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, न पछताता है, न इच्छा करता है, तथा शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।
तुल्यनिन्दास्तुतिरमौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।१९।।
कुमाऊँनी:
जो मितुर या बैरी ल्हिजी समान छू, मान-अपमान, ठंड-गरम, सुख या दुःख, जस् या अपजस् में लै समभाव धरूँ। जो कुसंगति है मुक्त रौं, जो कम बलां, और जरां में लै संतोष करूं, जो घर- कलेशुं कि चिन्ता नि करौन्, ज्ञान और भक्ति में लागी रूं यस् भक्त मिकैं भौत प्रिय छन्।
(अर्थात् कुसंगति है दूर रूंणी, झूठ और पाखंड है दूर रूंणी, कम बलाणी, तर्क नि करणीं, सुख होओ या दुःख परवा नि करणीं, मान या अपमानक् और जस्-अपजसक् बार् में नि सोचणीं और निरंतर भक्ति या सेवा में लागी रूंणी भक्त भगवान् ज्यु कैं भल् लागूं।)
हिन्दी= जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिये समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख अथवा दुःख, यश और अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो घर- बार की चिन्ता नहीं करता, ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में लगनशील है ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धानां मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:।।२०।।
कुमाऊँनी:
जो यौ भक्ति क् बाटक् अनुशरण करनीं, जो मिकैं अपुंण चरम लक्ष्य बणै बेर् श्रद्धा पूर्वक पूर्ण रूपैल् लागी रूनीं यस् भक्त मिकैं भौत्तै प्रिय छन्।
(अर्थात् नित्य सेवा धर्मक् पालन करणीं मनखि आत्मसाक्षात्कार जल्दि प्राप्त करूँ और आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुण पार् ऊ परमहंस स्थिति प्राप्त करि ल्यूं जैक् कारण यस् भक्त भगवान् ज्यु क् सब्बूं है नजिक रौं। तब यस् मनखि दुःख-सुख, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि भौतिक इच्छाओं है परे रूं और निरन्तर भक्ति में संलग्न व्यक्ति भगवान् ज्यु कैं भल् लागूं।
हिन्दी= जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुशरण करते हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बना कर श्रद्धासहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं।
🌹स्नेहीजनों आपूं सब्बूंक् सहयोगैल् यौ बारूं अध्याय पुरी गो।
जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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