
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
अग्यारूं अध्याय - श्लोक (२४ बटि ३४ तक)
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्याप्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।।२४।।
दंष्टाकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।२५।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु क्विश्वरूप कैं देखिबेर् अर्जुन कूंण लागौ कि- हे भगवान्! हे सर्वव्यापी विष्णु! तुमर् यौ रूप धरति बटि अगास तक फैली छू, और मुख फैलायी, ठुला-ठुल् चमकिल् आखों कै देखिबेर् मैं अपंण मन कैं संतुलित नि करि सकनौय। हे जगन्निवास! तुमर् यौ प्रलयंकारी रूप कैं देखिबेर् मिकैं दिशाभ्रम लै है गो, मेरि समज में क्ये नि ऊण लै रोय।
(अर्थात् अर्जुन कूंण लागौ कि - हे भगवान् ज्यु! जो रूप कैं द्येखणां ल्हिजी मैं भौत्तै लालायित छी, तुमर् यौ रूपै कैं देखिबेर् मैं त् भ्रमित और भयभीत है गयूं, म्यर् दिशाज्ञान लै हरै गो, और मेरि समज में क्ये उणें नि लै रौय, कृपा करौं प्रभु कृपा करौ।)
हिन्दी= हे सर्वव्यापी विष्णु! नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखे निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है। मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही मन को संतुलित कर पा रहा हूँ। दे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मैं इस प्रकार आपके प्रलयाग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतो को देखकर अपना संतुलन नहीं रख पा रहा। मैं दिशाज्ञान भी भूल चुका हूँ, और सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ।
अभी च त्वां धार्तराष्ट्रस्य पुत्राः
सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।।२६।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।।२७।।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।२८।।
कुमाऊँनी:
हे भगवन्! धृतराष्ट्रक् सब्बै च्यल् अपंण सहायक रजों और भीष्म, द्रोण, कर्ण और हमर् दगड़ो मुख्य योद्धा यौं सब तुमर् विकराल मुख में प्रवेश करनयी और कैक् मुनऊ कैं त् मैं तुमर् भयानक दांतू बीच टुकुड़-टुकुड़ होते देखनयू। जस्सै छलबलाट्- बलबलाट करणीं सब्बै नदी समुन्दर में समै जानीं वी प्रकारैल् यौं सब योद्धा तुमर् मुखन् में समाण लै रयीं।
(अर्थात् यौ संसार नस्वर छू, जो पैद् हूं, ऊ एक दिन मृत्यु कैं प्राप्त जरूर हूं। यौ दृश्य अर्जुन विराटरूप में साक्षात देखनौ और यौ ई सत्य लै छू कि एक दिन 'रामनाम सत्य है सत्य बोलो गत्त है' यौ स्थिति औनेरै छू। वेद, शास्त्र और पुराण लै यौ ई बातक् संदेश दिनी कि- परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।)
हिन्दी= धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं। उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतो के बीच चूर्णित होता हुआ देख रहा हूँ। जिस प्रकार वेगवती नदियाँ समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये समस्त योद्धा भी आपके इन प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-
स्थापित वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।२९।।
लेलिह्यसे प्रसमानः समन्ता-
ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।।३०।।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृतिम्।।३१।।
कुमाऊँनी:
अर्जुन कूंण लागौ- मैं सब लोगन् कैं तुमर् मुख में प्रवेश करन् देखनौयू जस्सै कि पतिंग अपंण विनाशक् ल्हिजी जलती हुयी आग में कुदि जानीं। हे विष्णु! तुमत् अपंण मुख बटि प्रज्वलित आग में सब दिशाओं बटि जीवों कैं निगम जां हंछा और सारै ब्रह्माण्ड कैं अपण तेजैल् प्रकाशित करिबेर् फिरि अपंण विकराल झुलसणीं किरणों द्वारा नष्ट लै करंण लागि रौछा। हे देवेश! मिकैं बताओ कि यतुक् उग्र रूप में तुम को छा? मैं तुमूंकैं नमस्कार करनूं कृपा करिबेर् मिकैं पार् प्रसन्न होओ। आपू आदि भगवान् छा मैं तुमूंकैं ज्याणण् चानूं, मेरि समझ मैं तुमर् यौ विकराल रूप नि ऊण लै रौय। मिकैं अपंण प्रयोजन बताओ।
(अर्थात् भगवान् ज्यु क् विकराल विश्वरूप कैं देखि बेर् अर्जुनैक् समज में नि ऊण लै रौय कि भगवान् त् सबुक् पालनहार छन् फिरि यौ विकराल रूप कैक् छु। तब भगवान् ज्यु तैं विनति करनौ कि मिकैं बताओ तुम यस् क्यलै देखियण लै रौछा।)
हिन्दी= मैं समस्त लोगों को पूर्णवेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिये प्रज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं। हे विष्णु! मैं देख रहा हूँ कि आप अपने प्रज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के जीवों को निगले जा रहे हैं। आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे है। हे देवेश! कृपा करके मुझे बताइये कि इतने उग्र रूप में आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हों। आप आदि भगवान् हैं, मैं आपको जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं नहीं समझ पा रहा कि आपका प्रयोजन क्या है।
श्रीभगवानुवाच-
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।३२।।
तस्मात्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।३३।।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
माया हतांस्त्वं जेहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।३४।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- सब संसारन् कैं विनष्ट करंण वाल् काल मैं ई छूं और इन सब्बूं क् विनाश करणाक् ल्हिजी मैं यां ऐ रयूं। तुमर् (पाण्डवों) कैं छोड़ि बेर् द्वियै पक्षोंक् सब्बै योद्धा यौ युद्ध में मारी जाल्। तुम उठो! और लड़णाक् ल्हिजी तैयार हौओ और जस प्राप्त करिबेर् राज्यसुख भोगौ। यौं सब म्यर् द्वारा पैलियै मारी गयीं। तुमत् खालि निमिमात्र बणै जाओ। द्रोण, भीष्म, कर्ण और जयद्रथ जस् योद्धा म्यर् द्वारा पैलियै मारी गयीं, आब् तुम खेल-खेल में उनौर् वध करौं और बिल्कुल विचलित न हौओ। बस तुमरि विजय निश्चित छू।
(अर्थात् भगवान् ज्यु कुनई कि- हे सव्यसाची!मैं त् कालक् लै काल छूं और समस्त ब्रह्माण्ड कैं मैं क्षणमात्र में निंगइ सकनूं। जो लै वीर योद्धाओं कै तुम द्यैखण् लै रौछा, ऊं त् मिल् भौत पैली मारि है ली, किलैकि जब मनखिकि आत्मा मरि जैं त् वीकैं मरियै समजौ। आब् तुम इनूंकै मारि बेर् जस् प्राप्त करौ, और निष्कंटक राज्य सुख भोगौ।)
हिन्दी= श्रीभगवान् ने कहा- समस्त जगतों को विनष्ट करनेवाला काल मैं ही हूँ और मैं यहाँ समस्त आततायियों का विनाश करने आया हूँ। तुम्हारे (पाण्डवों) के सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जायेंगे। अतः उठो! लड़ने के लिये तैयार होओ और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं, और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्त मात्र हो। द्रोण, भीष्म, कर्ण तथा जयद्रथ समेत अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। अतः तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ। तुम तो केवल युद्ध करो और अपने शत्रुओं को परास्त करो।
जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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