गौंकि नरै

पहाड़ के गाँव की याद पर कुमाऊँनी कविता- गौंकि नरै Kumauni Kavita, Kumaoni poem remembering native hill village

गौंकि नरै

-प्रो. शेरसिंह बिष्ट, डी.लिट., हल्द्वानी

ल्हिगो धो-धो आपण दगाड़ 
गौं-बासि बाप कैं ऐल साल 
के कौल कै क्वीड़ी बिरादर 
च्या्ल-ब्वारींक शहर में ठाट 
लोटी रौ बुड़ गौंकि पटखाट 
के चैं तसि निठोर औलाद!
 
चार दिन लै आजि है न सक 
बुड़ज्यु कैं हैगो चुड़फुड़ाट 
अपछ्याण जा्ग में मन उचाट 
लु-सीमेंटक घनघोर जंगल 
गौं में कां फसकोंक दंगल 
न कै दगड़ि बात-ब्यवहार 
घटनै जाणौ बुड़ांक आहार 
न चितूणै उन आपण सहार! 

हैगो शहरी घर जेल जस 
खा्ण-पिण छु राजोंक जस 
न चितूणै स्वाद घरक जस 
को कर सकैं उनर मनकस 
लागण फैगो गौंक निस्वास 
चेलि कैं जसिक नौल सौरास!

कूण लागीं, न्है जांछूं आ्ब 
हैगै हुन्याल पिनालुक गा्ब 
फेड़ि है नरै नाति-प्वाथां दगै 
दिण छु उनरि नामकि बधै 
आया नौर्तों में ऐलाक साल 
पुजण छु द्याप्त हर हाल!

कूणौ च्यल, डर-डर बेर 
के करछा तुम गौं जैबेर 
रुकि जाओ यांई अलीबेर 
देखूंल अस्पताल भली कैबेर
न्हैथैं उमर आ्ब इकलै रूणी 
गौं में नैं क्वे चानी-चितूनी 
नैं खा्ण-पिणकि तैं पुछणी
 नैं क्वे सज-समाव करणी!

होलि गौं में हमरि बदनामी
रुकि जाओ, के छु परेशानी!

कूण फैटीं तमतमानै गर्स में 
दम घुटनौ म्यर यां शहर में 
मरुंल तो मैं आपणै घर में 
कै जै र्रइं पुरा्ण मैंस- 
कैं रया तुम जिंदगी भर 
आया मरण बखत आपणै घर! 

हित-मितुरों दगै भेट कर जूंल
बिरादरोंक का्न में चड़िबेर जूंल
लागल चित पितरोंक तिथान 
लागि जूंल पितरघुणि, तरि जूंल! 

जब तक छु शरीर में पराण 
को छाड़ैं घर-कुड़ि बिलाण 
किलै करूं ऐलै बै नौं हराण 
औनो आ्ब अशौजक म्हैण 
लगै राखीं गदू-तोर्यां-कका्ड़ 
है गै हुन्याल बाड़ि में घ्वाग 
भेजुंल तुमूहीं ऐलाक फ्या्र 
खा्ल नाति-प्वाथ लै म्या्र! 

आई करौ च्याला कभै-कभार 
हुनी साल में कतुक जै त्यार 
औनी परदेशि होलि-दिवालि में 
औरै रौनक है जैं घर-घर में 
आए अलीबेर नानतिना ल्हिबेर
पछिल कै चाणैई नैं घरहै जैबेर! 

कून-कूनै भरी आछ गव उनर 
के कै दिनी जाणी, मन में डर 
ऐगो भैर मनक दबी गुबार 
आंसु भर लाई, दिल में आग 
सकसकानै भरभरान आवाज 
को जाणि सकैं मनक राज 
के छु जाणी दिल में तकलीफ
हालत देखिबेर लागणै झीस! 

जा्ण छु घर दिवालि में यै साल 
कां मिलनी फिरि आपण मै-बाप 
आपणि बोलि-भा्श, आपणि थात 
बिरादरों दगै भेटघाट कुशलबात!

कतुकै अन-धन कमै ल्हियो 
पद-प्रतिश्ठा नाम कमै ल्हियो 
को चुकै सकैं मै-बाबुक रिण 
को है सकैं कभै वीहै उरिण!

ऐछि याद फिरि बालि उमरकि 
गौंक इस्कूलकि घर-बणकि 
लागण फैटै जनमभुमिकि नरै 
का्स ग्वाव खेल दगड़िया दगै 
छोड़ि आयां हम जनू पछिल
कतुक न्है गयां हम अघिल 
कटि गयां आपण जड़ों बै 
पछ्याण हमरि घर-गौं दगै!
 
जाओ जां लै देश-परदेश 
न्हैतन कैं आपण जस देश 
बोलि-भा्शक छु स्वादै और 
म्यर कुमाउं जस कैं न्हैं हौर! 

उत्तराखण्डी मासिक: कुमगढ़ 10 वर्ष 07 अंक 3-4 जुलाई-अगस्त 2020 से साभार 
फोटो: गूगल 

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