श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में नौऊं अध्याय (श्लोक २६-३४)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता अर्थानुवाद् नौऊं अध्याय - श्लोक (२६ - ३४) Kumauni Language interpretation of ShrimadBhagvatGita Adhyay-09 part-04

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

 नौऊं अध्याय - श्लोक (२६ बटि ३४ तक)

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं  भक्त्युपहृतमश्नामि  प्रयतात्मनः।।२६।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।२७।।

कुमाऊँनी:
जब क्वे श्रद्धा और भक्ति क् दगड़ मिकैं पत्र, पुष्प, फल या जल  प्रदान करौं त् मैं ऊ सब स्वीकार करनूं।  हे अर्जुन! तुम ज्ये लै करंछा, ज्ये खांछा, ज्ये लै अर्पित करंछा या दान दिंछा और चाहे तप करंछा यौ सब मिकैं अर्पित करते हुए करौ। 
(अर्थात्- यौ संसार में एकमात्र भोक्ता भगवान् ज्यु ई छन्।  तब भगवान् ज्यु कुनई कि- तुम जो लै कर्म करंछा, शाक, अन्न, फल, दूध या जल ज्ये लै खांछा,  तप, पुज-पाठ करंछा ऊ सब मिकैं अर्पित करते हुए करौं मि सब स्वीकार करनूं और तुमूंकैं उचित फल प्रदान करनूं।)

हिन्दी= यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र,  पुष्प,  फल या जल अर्पण करता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।  हे कुन्तीपुत्र!  तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो तपस्या भी करते हो, उसे मुझे अर्पण करते हुए करो। 

शुभाशुभफलैरेवं   मोक्ष्यसे   कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्त्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।२८।।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।।

कुमाऊँनी:
यौ प्रकारैल् तुम कर्मूंक् बन्धन और येक् शुभ और अशुभ फलों है मुक्त है सकंछा।  यौ संन्यास योग में अपंण चित्त कैं स्थिर करिबेर् तुम मुक्त है म्यर् पास ऐ सकंछा।  मैं न त् कैक् दगड़ द्वेष करनूं और न पक्षपात करनूं, मैं सब्बूं कै ल्हिजी समभाव छू, किन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरि सेवा करूँ ऊ म्यर् और मैं वीक् मित्र छूं।  यस् मनखि हमेशा मिमैं ई स्थित रूं।
( अर्थात् भगवान् ज्यु जै प्रकारैल् बतूणई यदि मनखि ऊ पार् ध्यान धरौं त् कर्मूंक् बन्धन ऊकैं नि बादि सकन् और शुभ या अशुभ फलों है ऊ मुक्त है जां। भगवान् ज्यु कुनई कि- मैं कैक् मित्र या शत्रु न्हैंतु, मनखि आफ्फी अपुंण मित्र लै छु और शत्रु लै छु।  वेद, शास्त्र, पुराण या फिरि गुणीलोग जो रस्त बतूनी ऊ रस्त पार् चलणोंक् अर्थ छू कि ऊ मनखि अपुंण मित्र छू और जो सन्मार्ग पार नि चलौंन अर्थक् अनर्थ करौं ऊ आफ्फी अपुंण शत्रु है जां।  भगवान् ज्यु कुनई कि वेद, शास्त्र या विद्वानुक् द्वारा बताई रस्त पार चलणी हमेशा मि में स्थित रूं और जब मनखि हर समय भगवान् ज्यु क् शरण में रौल् त् ऊ कभ्भीं गलत रस्त पार् जै ई नि सकौन्।

हिन्दी= इस तरह तुम कर्म के बन्धन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे।  इस संन्यासयोग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे । मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ,  न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ।  मैं सब के लिये समभाव हूँ।  किन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, और मैं उसका मित्र हूँ, एसा व्यक्ति हमेशा मुझ में स्थित रहता है।

अपितु चेत्षौदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।३०।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।३१।।

कुमाऊँनी:
यदि कारणवश क्वे जघन्य कर्म करि बैठौं और मेरि भक्ति में लै दृढ रौं त् वीकैं लै साधु समजंण चैं,  किलैकि ऊ मेरि भक्ति में अडिग छू, जैक् कारण ऊ तत्काल धर्मात्मा है जां और शान्ति प्राप्त करूँ।  हे अर्जुन! तुम यौ कै सकंछा कि म्यर् भक्तों क् कभीं विनाश नि हुंन।
(अर्थात्, जो परमात्मा कि भक्ति में दृढ छू और देशकाल परिस्थिति क् कारण या क्वे विवशता क् करण जघन्य अपराध करि बैठौं त् वीकैं लै धर्मात्मा ज्याणौ। किलैकि अपुंण जीवन, धर्म, परिवार, देस और भूमि कि रक्षा करणाक् ल्हिजी या भौतिक सम्बधोंकि रक्षा करंण खातिर,  यदि क्वे अपराध करंण पडूं तो ऊ अपराधैकि श्रेणी में  नि ऊन् (सरकार लै जानमाल सुरक्षा क् ल्हिजी बन्दूक क् लैसन्स दिंछ))।

हिन्दी= यदि कोई किसी कारण वश जघन्य से जघन्य कर्म करता है और भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिये।  क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।  वह तुरन्त धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शान्ति को प्राप्त होता है।  हे कुन्तीपुत्र!  निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता।

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेपिऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।।३३।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।३४।।

कुमाऊँनी:
हे पार्थ! जो मेरि शरण में ऐ जानीं, ऊं चाहे स्त्री, वणिक या सेवक  जो लै छीं,  म्यर् परमधाम कैं प्राप्त अवश्य करनीं । फिरि धर्मात्मा ब्राह्मणों, और जो म्यर् अनन्य भक्त छन्, या राजऋषियों छीं उनरि त् बातै क्ये करणीं। अर्थात  यौ क्षणिक दुखमय संसार में ऐ बेर् तुम मेरि भक्ति में मन लगाओ। अपुंण मन कैं लगातार म्यर् चिन्तन में लगाओ,  म्यर् भक्त बणौ,  मिकैं नमस्कार करते हुए मेरि पुज करौ।  यौ प्रकारैल् पूर्णतया मिमैं तल्लीन हुंण पार् तुम निश्चित रूपैल् मिकैं प्राप्त है सकंछा।
(अर्थात् भगवान् ज्यु क् चिन्तन सब प्रकारैल् फैद् दिंण वाल् छु, जब मनखी भगवान् ज्यु क् चिन्तन में रौल् त् वीकैं भलि बुद्धि और भलि सोच प्राप्त हैली, भलि सोच और बुद्धि प्राप्त हुंण पार् ऊ कभ्भीं गलत काम नि करौं, स्वहित या जनहित में भल करणीं या सोचणीं मैंस यौ संसार में लै यश और सम्मान प्राप्त करौं और भगवान् ज्यु कि कृपा लै प्राप्त करौं।)
हिन्दी= हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य तथा शूद्र ही क्यों न हों, वे मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं।  फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजऋषियों के लिये तो कहना ही क्या है, अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी भक्ति में अपने आपको लगाओ।  अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करते हुए मेरी पूजा करो।  इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।

आपूं स्नेहीजनों क् सहयोगैल् श्रीमद्भगवद्गीता ज्यु क् नऊं अध्याय पुरी गो।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर
 
श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार

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