
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
नौऊं अध्याय - श्लोक (०९ बटि १७ तक)
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।९।।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।
कुमाऊँनी:
हे अर्जुन! यौं सार्रै कर्म मिकैं नि बांदि सकन्, मैं इन सार्रै भौतिक कर्मन् है सदा विरक्त (उदासीन) रूनूं। यौ भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में एक छू और मेरि अध्यक्षता में काम करीं, जैक् कारण सब प्रकारक् जीव पैद् हुंनी। यौ ई शक्तिक् शासन में यौ जगत् बार-बार सृजित हूँ और विनष्ट लै हूँ।
(अर्थात् भगवान् ज्यु एक न्यायाधीशैकि चारि अपुंण गोलोक बटि यौ संसारक् निर्देशन करनीं उनरि इच्छाल् यौ जगत् सृजित हूँ और विनष्ट लै हूँ । पर भगवान् ज्यु कुनई कि मैं हमेशा तटस्थ रूनूं कैक् सुख अथवा दुःख में मेरि क्वे भागीदारी नि रूंनि। परन्तु प्रकृति क् सब्बै क्रिया-कलाप मेरि कृपाल् चलनीं, मिल् यौ प्रकृति भौत्तै दर्शनीय और सुखदायक बणैं रै, आब् जो जस् कर्म करूँ वीकैं वस्सै फल प्राप्त हुंनी।)
हिन्दी= हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते। मैं उदासीन की भांति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ। यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर अथवा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।११।।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहनीं श्रिताः।।१२।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित हुंनू तब मूर्ख (कुबुद्धि) लोग म्यर् उपहास करनीं, ऊं म्यर् दिव्य स्वभाव कैं नि ज्याणन् । जो लोग यौ प्रकारैल् मोहग्रस्त हुंनी ऊं राक्षसी और नास्तिक बिचारौं क् प्रति आकृष्ट रूनीं , येसि अवस्था मे उनरि मुक्ति कि आशा, उनार् सकाम कर्म और ज्ञान सब्बै निष्फल है जां।
( अर्थात् जब-जब भगवान् ज्युल् यौ धरती पार् अवतार धारण करौं तब-तब कयेक् ज्ञानी लोगनन् लै उनर् उपहास करौ। जस् कि -( हिरण्यकषिपु, हिरण्याक्ष, रावण, जरासंध, शिशुपाल, कंस, दुर्योधन, जरासंध और वाणासुर आदि ) और भगवान् ज्यु क् हाथ मारी गयीं । निर्धन शबरी, सनद कसाई, ध्रुव, प्रह्लाद, गुह केवट जस् भक्तौल् परमधाम प्राप्त करौ। यौ सृष्टिक् रचयिता और संहारक् भगवान् ज्यु ई छन् जो हमर् कर्मन् अधार पर हमन् कैं तुरत फल दिनीं)
हिन्दी= जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख लोग मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते। जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं । इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।
महात्मानस्तु मां पार्थ देवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।१३।।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढवृताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।१४।।
कुमाऊँनी:
हे अर्जुन! जो महात्मा मोहमुक्त छन् ऊं सदा दैवी प्रकृतिक् संरक्षण में रूनीं और हर समय मेरी भक्ति में लागी रूनीं। किलैकि ऊं मिकैं आदि और अविनाशी रूप में ज्याणनीं। ऊं महात्मा नित्य कीर्तन- भजन करनैं- करनैं दृढसंकल्पक् साथ प्रयास करते हुए मिकैं नमस्कार करनीं और श्रद्धा-भक्ति क् पूर्वक मेरी आराधना करनीं।
(अर्थात् जो मोहमुक्त छन् यस् महात्मा दैवी प्रकृतिक् संरक्षण में निश्चित रूनीं, उनूकैं भौतिक प्रकृति से क्ये ल्हिण-दिण नि रूंन्। यस् महात्मा भगवान् ज्यु क् ध्यान है अलावा लोभ-लालच, सुख-दुःख, जन्म-मरण जस् भौतिक क्रियाओं क् बार् में सोचनैं न्हां, और सदैव भगवान् ज्यु क् गुणगान में मगन रूनीं। ऊं भगवान् ज्यु क् दिव्य रूप, दिव्य लीला और दिव्य दर्शनौंक् आशा में अपंण शरीर लगै दिनीं और मोक्ष प्राप्त करणाक् साधन में लागी रूनीं।)
हिन्दी= हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि यथा अविनाशी के रूप में जानते हैं। ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।१५।।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।१६।।
पितामहस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वाद्यों पवित्रमोंकारं ऋक्साम यजुर्वेद च।।१७।।
कुमाऊँनी:
जो लोग आपूं कैं ज्ञानी समजनीं और यज्ञ करनीं, ऊं भगवान् ज्यु कि पुज अद्वय (निराकार) रूप में, अनेक रूप में या विश्वरूप में करनीं । पर मैं ई कर्मकाण्ड, यज्ञ, पितरों कैं दियी जाणी तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि, घ्यूं, आग या आहुति छूं। यौ ब्रह्माण्ड क् इज, बाबू, दादा, या आश्रयदाता छूं, ज्याणंण लैक्, शुद्ध करणीं और पवित्र ओंकार लै मै ई छूं, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद लै मैं ई छूं।
(अर्थात् यौ संसार हर प्रकारैल् भगवान् ज्यु क् अधीन छू, भौतिक जीव (मनखी) आपूं कैं ज्ञानी समजणैकि भूल करूँ और क्वे-क्वे त् आपु कैं ई भगवान् समजि बेर् लोगन् तैं अपणि पुज करांनी, और धनार्जन तथा ख्याति अर्जित करनीं यस् लोग अन्त में नरकगामी हुंनी।)
हिन्दी= जो लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान् की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं, किन्तु मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि, घृत, अग्नि तथा आहुति हूँ। मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ। मै ही ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ। मैं ही ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद भी हूँ।
जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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