श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में आठूं अध्याय (श्लोक सं. २०-२८)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता अर्थानुवाद् आठूं अध्याय (श्लोक २०-२८) Kumauni Language interpretation of ShrimadBhagvatGita Adhyay-08 part-03

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

आठूं अध्याय (श्लोक सं. २० बटि २८ तक)

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।२०।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं  प्राप्य न  निवर्तन्ते तद्धाम  परमं  मम।।२१।।
 
कुमाऊँनी:
यौ प्रकृतिक् अलावा लै एक और प्रकृति छू, जो शास्वत छू और व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ है परे छू, यौ श्रेष्ठ और कभ्भीं नष्ट नि  हुंणी वाई छु। जब यौ संसार में सब कुछ खतम है जां, तब लै येक् नाश नि हुंन । जैकैं वेदान्ती (वेद शास्त्रों कैं मानणीं) अप्रकट और अविनाशी बतूनी,  जैकैं प्राप्त करणाक् बाद क्वे वापिस यौ लोक में नि ऊंन्,  यौ ई म्यर् परमधाम छू।
(अर्थात् भगवान् ज्यु कुनई कि जो म्यर् परमधाम छू ऊ भौतिक परिवर्तनों है परे छू। म्यर् धाम कैं प्राप्त करणाक् बाद मनखि यौ भूलोक में वापिस दुःख भोगणक् ल्हिजी  नि ऊन्)
हिन्दी= इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शास्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होनेवाली है। जब इस संसार का सबकुछ लय होजाता है , तब भी उसका नाश नहीं होता। जिसे वेदान्ती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं,  जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है।

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।२२।।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं  चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।२३।।

कुमाऊँनी:
भगवान्,  जो सब प्राणियों है महान छीं,  अनन्य भक्ति द्वारा ई प्राप्त करी जै सकनीं । भले ही ऊं अपुंण धाम में विराजमान छीं,  तब लै ऊं सर्वव्यापी छीं और सब कुछ उनूं में ई स्थित छू। हे भरतश्रेष्ठ! आब् मैं तुमूंकैं उन विभिन्न कालोंक् बारे में बतूनूं जनूंमें यौ संसार बटि प्रयाण करणक् बाद योगीजन् जन्म-मृत्यु वाल् यौ संसार में वापिस ऊंनी या नि ऊन् ।
(अर्थात्,  परमधाम ऊ स्थान छू जां प्रवेश करणाक् बाद जीव वापिस यौ नश्वर संसार में नि ऊन् । भगवान् परमधाम में वास करनीं फिरि लै ऊं सर्वव्यापी छन् यानि कि हर जाग् में उपस्थित रूनीं,  भक्ति द्वारा ई भगवान् ज्यु क् दर्शन या मुक्ति सम्भव छू, यस् शास्त्रों क् मत छू, ऊ परमधाम में भौतिक कुछ लै न हैं,  जो लै छू अलौकिक छू । भगवान् ज्यु क् अनन्य अथवा पूर्ण शरणागत  भक्त सब कुछ भगवान् ज्यु पार् छोड़ि दिनीं और उनरि भक्ति करनीं)
हिन्दी= भगवान्,  जो सबसे महान है,  अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं । यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं,  तब भी वे सर्वव्यापी हैं और उनही में सब कुछ स्थित है । हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊंगा,  जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।२४।।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चन्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। २५।।

कुमाऊँनी:
जो परब्रह्म कैं ज्याणनीं, ऊं अग्निदेवक् प्रभाव में,  उज्याव में,  दिनक् शुभक्षण में,  शुक्लपक्ष में और सूर्य जब उत्तरायण में रूँ इन छै महीनों में देह त्याग करनीं,  ऊं परब्रह्म कैं अवश्य प्राप्त हुंनी और जो योगी धुँ , रात, कृष्णपक्ष,  या सूर्य जब दक्षिणायन में रूनीं,  इन छै महीनों में देह त्याग करनीं ऊं चन्द्रलोक कैं प्राप्त हुंनी और फिरि यौ मृत्यु लोक (धरती) में ऊंनी।
(अर्थात् देह त्याग करणाक् ल्हिजी उत्तरायण,  शुक्लपक्ष,  और दिनक् समय उत्तम छू, कृष्णपक्ष , दक्षिणायन या रात में मरणी चाहे ऊ महायोगी लै छू त् चन्द्रलोक प्राप्त करूँ फिरि जन्म ल्हि बेर् यौ संसार में वापिस ऊछ। भगवद्कृपा जै पार् ह्वैलि ऊ ई सद्गति प्राप्त करि सकूँ और भगवद्कृपा प्राप्त करणाक् ल्हिजी नियम, संयम और भगवान् ज्यूक् ध्यान जरूरी छु)
हिन्दी= जो परब्रह्म ज्ञाता हैं,  वे अग्नेदेव के प्रभाव में,  प्रकाश में,  दिन के शुभ क्षण में,  शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छः मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर परब्रह्म को प्राप्त करते हैं। जो योगी धुएं,  रात्रि,  कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छः महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किन्तु वहां से पुनः पृथ्वी पर आता है।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शास्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।२६।।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।२७।।

कुमाऊँनी:
वैदिक मतानुसार यो संसार बटि विदा हुंणक् द्वी मार्ग बतै रयीं- एक प्रकाश मार्ग ( शुक्ल पक्ष,  उत्तरायण,  और दिन ) और दुहर् अंधकार मार्ग ( कृष्णपक्ष,  दक्षिणायन,  और रात्रि ) । जब मनखि प्रकाश मार्ग बटि जां अर्थात देह त्याग करूँ त् ऊ फिरि जन्म नि ल्यून् और जो अंधकार मार्ग बटि जां अर्थात देह त्याग करूँ त् ऊ फिरि जन्म ल्यूं , और कुछ योगी यस् लै हुंनी जो भगवान् ज्यु कि कृपा प्राप्ति क् बाद सशरीर सब लोकन् में भ्रमण करनीं ।  हे अर्जुन! भक्तलोग यौ द्वियै मार्गों कैं ज्याणनीं,  पर ऊं मोहग्रस्त नि हुंन,  येक् वास्ते तुम मेरि भक्ति में हमेशा-हमेशा स्थिर रओ।
(अर्थात्  चाहे प्रकाश मार्ग बटि जाओ या अंधकार मार्ग बटि ये में भक्त लोगन् कैं चिन्ता करणैंकि जरवत् न्हैं, किलैकि जो भगवद्भक्ति में दृढ़ छू वीकि चिन्ता या उद्धार भगवान् ज्यु स्वयं करनीं।  बस सोते जागते, कर्म या विश्राम करते, प्रतिक्षण भगवद्नामक् उच्चारण करते रूंण चैं भगवान् ज्यु हर समय हमर् ल्हिजी उपस्थित रूनीं)

हिन्दी= वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं- एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का।  जब मनुष्य प्रकाश मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता है,  किन्तु अंधकार के मार्ग से जानेवाला पुनः लौटकर आता है।  हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।२८।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि, जो मनखि भक्तिमार्ग कैं स्वीकार करूँ, ऊ वेदाध्ययन,  तपस्या,  दान आदि द्वारा प्राप्त हुंणी फलों है वंचित नि रूंन्।  ऊ मात्र भक्ति द्वारा ई इन सब फलों कैं प्राप्त करिबेर् परम नित्यधाम कैं प्राप्त करूँ।
(अर्थात् भगवान् ज्यु भक्ति मार्गक् महत्व सब क्रियाओं (वेदाध्ययन, तप, दान) आदि सकाम कर्मन् है ठुल् बतूणई, सकामकर्म कर्म करिबेर् परमात्मा क् सानिध्य प्राप्त करणाक् ल्हिजी भौतै लम्ब रस्त छू, भक्ति मार्ग सरल छू, निश्छल मनैल्,  निराकार भावैल् भक्ति पथ पर जो मनखि अपुंण ध्यान लगां ऊकैं परमधाम प्राप्त करंण में विलम्ब नि हुन्)
हिन्दी= जो व्यक्ति भक्ति मार्ग स्वीकार करता है,  वह वेदाध्ययन,  तपस्या,  दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म से प्राप्त होनेवाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।

आपूं सब्बै स्नेहीजनों क् सहयोग और प्रेमैंल् श्रीमद्भगवद्गीता क् आठूं अध्याय पुर हैगो।

धन्यवाद्, जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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