श्रीमद्भगवतगीता - कुमाऊँनी भाषा में आठूं अध्याय (श्लोक सं. ०१-०९)

कुमाऊँनी भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता अर्थानुवाद् आठूं अध्याय (श्लोक ०१-०९) Kumauni Language interpretation of ShrimadBhagvatGita Adhyay-08 part-01

कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्

आठूं अध्याय (श्लोक सं. ०१ बटि ०९ तक)

अर्जुन उवाच-
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम । 
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।१।।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।२।।

कुमाऊँनी: 
अर्जुन कूंण लागौ- हे भगवान्! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्ये छू ? आत्मा क्ये छू ? सकाम कर्म क्ये छू ? यौ भौतिक जगत् क्ये छू? और द्याप्त क्ये छन्? कृपा करिबेर् मिकैं बताओ। यज्ञक् स्वामी को छू ? और ऊ शरीर में कसिक् यूँ?  और मरण तक भक्ति में लगी हुयी लोग तुमूंकैं कसिक् ज्याणनीं?
(अर्थात् अर्जुन हर ऊ सवाल भगवान् ज्यु तैं पुछंण लै रयीं जो हमूं जस् प्रत्येक मनखिक् मन में उठनी, जबकि अर्जुन हमूं जस् साधारण मनखि न्हैंति,  ऊ त् हमेशा भगवान् ज्यु दगड़ रूणी ऋषि नर छू । पर हम अज्ञानियोंक् समज में  आवौ येक् ल्हिजी भगवान् ज्यु कि प्रेरणाल् अर्जुन द्वारा यस् प्रस्न पुछी जांण लै रयीं, तो हमूकैं अर्जुनोंक् धन्यवाद् करण चैं,  आब् भगवान् ज्यु क्ये उत्तर दिनी आघिल देखी जाल्)
हिन्दी= अर्जुन ने कहा- हे भगवान् ! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है? सकाम कर्म क्या है? यह भौतिक जगत् क्या है? तथा देवता क्या हैं? कृपा करके यह सब मुझे बताइये। हे मधुसूदन! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहनेवाले आपको कैसे जान पाते हैं?

श्रीभगवानुवाच-
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः।।३।।

कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि जो अविनाशी और दिव्य जीव छु ऊ ब्रह्म कई जां, और वीक् नित्य स्वभाव अध्यात्म कई जां। जीवोंक् भौतिक शरीर सम्बन्धी क्रिया-कलाप कर्म या सकाम कर्म कई जां।
(ब्रह्म अविनाशी और नित्य  छु , जब जीव में भौतिक चेतना ज्यादे हैंछ तब ऊ पदार्थ में आसक्त रूं और जब वीकि चेतना अध्यात्म में रुचि धारण करीं तब ऊ परमेश्वर में अपंण ध्यान लगां।  वैदिक साहित्य में जीवात्मा कैं ब्रह्म और भगवान् कैं परब्रह्म कई जां । भौतिक प्रवृत्ति वाल् चौरासि लाख योनियों में भटकते रूनीं और अध्यात्मिक प्रवृत्ति वाल् जब शरीर छोड़नी तब  परब्रह्म कैं प्राप्त करनी)
हिन्दी= भगवान् कहते है- अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है, और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म कहलाता है। जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।
 
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।४।।

कुमाऊँनी:
हे श्रेष्ठ अर्जुन! हर पल रूप वदवणी (परिवर्तनशील) यौ भौतिक प्रकृति अधिभूत कयी जैं, भगवान् ज्युक् विराट रूप जै में सूर्य, चन्द्र जस् सब्बै द्यप्त शामिल छन् अधिदैव कयी जानीं । और प्रत्येक देहधारीक् हृदय में परमात्मा रूप मैं अधियज्ञ अर्थात यज्ञक् स्वामी कयी जानूं।
(भौतिक प्रकृति अपुंण स्वरूप बदलनैं रैं, भौतिक शरीर कैं छै अवस्थाओं बटि गुजर पड़ू- उत्पति, बढ़त, कुछ काल तक रूंण, कुछ पैद् करण, क्षीणता और विलुप्ति । यौ प्रकारैल् भौतिक प्रकृति अधिभूत , सब्बै द्यप्त सूर्य चन्द्र आदि अधिदैव और परमात्मा जो समस्त प्राणियों में विद्यमान छू अधियज्ञ कयी जां । मनखि कैं परमपुरुष परमात्माक् चिन्तन निरन्तर करंण चैं जैक् सिर उच्चलोकन् में, नेत्र सूर्य चन्द्र छीं और पग अधोलोक तक व्याप्त छीं)

हिन्दी= हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! निरन्तर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है। भगवान् का विराट रूप जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ ( यज्ञ का स्वामी) 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।५।।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजन्त्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।६।।

कुमाऊँनी:
हे पार्थ! मरण बखत् जो म्यर् स्मरण (ध्यान) करूँ,  ऊ तत्काल म्यर् स्वभाव कैं प्राप्त है जां,  यौ कथन में जरां लै संदेह नि करंण चैन् । किलैकि देह त्याग करंण तक मनखि जो-जो भाव अपुंण मन में करूँ वी भाव कैं प्राप्त हूंछ।
(यौ प्रकृतिक् रचना में परमेश्वर सबन् है शुद्ध छू,  यैक् ल्हिजी अन्त समय में जो परमेश्वरक् ध्यान करूँ वीकि मुक्ति निश्चित छू। यौ ई बात भगवान् ज्यु अर्जुनाक् माध्यमैल् हमूकैं बतूंण लै रयीं । मरणक् बखत भौतिक संसाराक् क्रियाकलापोंक् ध्यान छोड़ि बेर मात्र भगवान् ज्यु क् ध्यान करंण लाभप्रद छू यैक् ल्हिजी परमात्मा है अलावा कैक् ध्यान नि करण  चैंन्।)
हिन्दी= और जीवन के अन्त में जो मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त होता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस भाव को प्राप्त होता है।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः।।७।।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्त्ययन्।।८।।

कुमाऊँनी:
हे अर्जुन! तुमूंकैं हमेशा कृष्ण रूप में म्यर् चिन्तन करंण चैं और दगण-दगणै लड़ैं करणक् अपंण कर्तव्य लै पुर करंण चैं। अपण कर्मूंकैं मिकैं समर्पित करिबेर् मन और बुद्धि मिमैं स्थिर करि बै तुम निश्चित रूपैल् मिकैं प्राप्त करि सकला।  हे पार्थ! जो मनखि म्यर् चिन्तन में अपंण मन कैं हमेशा लगै बेर् अविचल भावैल् भगवान् रूप में म्यर् ध्यान करूँ,  ऊ मिकैं अवश्य प्राप्त हूंछ।
( भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन कैं सम्बोधित करते हुए समस्त जगत् कैं सन्देश दिणई कि-  हे अर्जुन! तुमूंकैं हमेशा म्यर् अर्थात भगवानक् चिन्तन(स्मरण) करण चैं और अपुण कर्तव्य (चाहे युद्ध होवो या प्रजापालन, खेति-किशानी, स्वरोजगार या फिर नौकरी आदि) निष्ठापूर्वक करण चैं । बस अपुंण कर्मूं कैं भगवान् ज्यु कैं समर्पित करते हुए मन तथा बुद्धि भगवान् ज्यु क् ध्यान में रूंण चैं । फिरि भगवान् ज्यु कुनई कि जो म्यर् ध्यान करते हुए अपुण निर्धारित कर्म करूँ,  लाभ या हानि कैं महत्व नि द्यून ऊ मनखी मिकैं अवश्य प्राप्त करूँ)

हिन्दी= हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए । अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवम्  बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे । हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरन्तर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य प्राप्त होता है।

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।९।।

कुमाऊँनी:
मनखी कैं परमपुरुष (भगवान् ज्यु क्) ध्यान करंण तक अपुंण मन में सोचंण चैं कि परमात्मा सब ज्याणनीं,  पुरातन (सब प्राणियों है पुराण ) छीं,  लघुतम( सूक्ष्म) छीं,  सब जीवनक् पालन करण वाल् छीं,  भौतिक (सांसारिक बुद्धि है परे छीं,  अचिन्त्य छीं और नित्य (हमेशा प्रगट रूणी) छीं। ऊं सूर्य क् समान तेजस्वी और भौतिक प्रकृति है अलग दिव्य रूप छीं।
(अर्थात् भगवान् ज्यु भूत, भविष्य और वर्तमान यौ तीनों कालक् ज्ञान धरनी( सबकुछ ज्याणणीं) छीं,  ऊं प्राचीनतम पुरुष छीं किलैकि सब वस्तु या पदार्थ उनूं बटि पैद् हुंनी,  यौ समस्त ब्रह्माण्ड क् नियन्ता ( संचालक) वीं छीं, अचिन्त्य अर्थात् हम जो लोक या वस्तुक् बार में सोचि लै नि सकन् भगवान् ज्यु ऊ सब ज्याणनीं।  ज्ञानी लोग शास्त्रों में वर्णित इन सब बातूं कैं माननीं और ज्याणनीं , अज्ञानी तर्क करनीं पर भगवान् तर्क, कुतर्क  है परे छीं जो यौ बात कैं समजि जां वी ज्ञानी छू।)
हिन्दी= मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भीलघुतर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिक बुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य के समान तेजवान हैं और भौतिक प्रकृति से परे दिव्य रूप हैं।

जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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